कर्बला के बाद यज़ीद के विरुद्ध पहला विद्रोह “क़यामे तव्वाबीन”

करबला की दुखद घटना के बाद यज़ीद की हुकूमत के विरुद्ध होने वाला पहला आन्दोलन "क़यामे तव्वाबीन" ने नाम से जाना जाता है जो इमाम हुसैन के ख़ून का इन्तेक़ाम लेने के लिए 65 हिजरी में अहलेबैत के चाहने वालों के माध्यम से यज़ीद की सेना के विरुद्ध ऐनुल वरदा में सुल

सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

करबला की दुखद घटना के बाद यज़ीद की हुकूमत के विरुद्ध होने वाला पहला आन्दोलन "क़यामे तव्वाबीन" ने नाम से जाना जाता है जो इमाम हुसैन के ख़ून का इन्तेक़ाम लेने के लिए 65 हिजरी में अहलेबैत के चाहने वालों के माध्यम से यज़ीद की सेना के विरुद्ध ऐनुल वरदा में सुलैमान बिन सर्द ख़ज़ाई के नेतृत्व में किया गया।

आन्दोलन की वजह

करबला में आशूर के दिन इमाम हुसैन की शहादत के बाद आपके वह साथी जिन्होंने आपके समर्थन और सहायता का वादा किया था और आपको कूफ़ा आने के लिए पत्र लिखे थे, लेकिन बाद में वह अपने वादे से मुकर गए, अपने इस कार्य पर बाद में वह बहुत पछताए, और उन्होंने अपने पापों के प्राश्चित के लिए इस बात का फैसला किया कि उनके दामन पर नबी के नवासे को अकेला छोड़ने का धब्बा उस समय तक साफ़ नहीं हो सकता है जब तक कि वह इमाम हुसैन के कातिलों से बदला न ले लें। (1)

आन्दोलन का गठन

करबला की घटना के कुछ महीनों के बाद अहलेबैत के कुछ चाहने वाले "सुलैमान बिन ख़ज़ाई" जो कि कूफे के सम्मानित व्यक्ति थे के घर में जमा हुए, सुलैमान ने उनके बीच सूरए बक़रा की 54वीं आयत की तिलावत करके क़ौमे मूसा की तौबा की बात कहते हुए कहाः हमने अहलेबैत की सहायता का वादा किया था, लेकिन हम केवल अंत देखते रहे और हमारे नबी का बेटा शहीद कर दिया गया, ख़ुदा हम से राज़ी नहीं होगा मगर यह कि हम उनके हत्यारों से युद्ध करें, अपने तलवारें तेज़ कर लो, ताक़त और घोड़े तैयार कर लो और बुलावे की इन्तेज़ार करो। (2)

सुलैमान की बातों के बाद, दूसरे शिया और "मुसय्यब बिन नजबा फज़ारी", "रफ़ाआ बिन शद्दाद बिजिल्ली", "अब्दुल्लाह बिन वाले तमीमी" और "अब्दुल्लाह बिन सअद अज़दी" जैसे इमाम अली के सहाबियों ने भी तक़रीर की और अंत में सुलैमान बिन सर्द ख़ज़ाई को इस आन्दोलन का मुखिया चुना गया। (3)

आन्दोलन के उद्देश्य

सुलैमान बिन ख़ज़ाई के घर में हुई बैठक और वहां हुई बातों के देखते हुए इन आन्दोलन की दो उद्देश्य थे।

1.    इमाम हुसैन के हत्यारों से बदला लेना।

2.    अहलेबैत के हाथों में हुकूमत सौंपना।

युद्ध की तैयारियां

सुलैमान बिन ख़ज़ाई के घर में तव्वाबीन हर सप्ताह बैठकें करते थे जिस में हथियार, संसाथान और लोगों को जमा करने पर बात की जाती थी, इन लोगों ने चोरी छिपे कूफ़ा और उसके आसपास के क़बीलों से हथियारों और लोगों को जमा करना शुरू कर दिया। (4)

सेना तैयार होने के बाद सुलैमान बिन ख़ज़ाई ने 44 हिजरी को मदाएन में शियों की लीडर "सअद बिन हुज़ैफ़ा" और बसरा में शिया लीडर "मसना बिन मख़रमा अबदी" को पत्र लिखा और उनको अपने आन्दोलन में शरीक होने का निमंत्रण दिया, बसरा और मदाएन के शियों ने भी उनका निमंत्रण स्वीकार किया और कहा कि वह भी उनके आन्दोलन में शरीक होंगे। (5)

सेना का कूच करना

सुलैमान बिन ख़ज़ाई ने 65 हिजरी में आन्दोलन शुरू कर दिया, अगरचे आन्दोलन शुरू होने से पहले बहुत से लोगों ने शामिल होने का वादा किया था लेकिन जब आन्दोलन शुरू हुआ तो 4000 लोग “नख़ीला” में तव्वाबीन कैंप पहुँचे। (6)
लिखा जाता है कि "मुख़्तार सक़फ़ी" का मानना था कि सुलैमान में राजनीतिक और सैनिक समझ नहीं है और यही कारण है कि बहुत से लोग सुलैमान की सेना से अलग हो गए। (7)

तव्वाबीन सेना ने 5 रबीउल अव्वाल को नख़ीला से दमिश्क की तरफ़ कूच किया, जब यह सेना करबला पहुँची तो सभी घोड़े से उतरे और रोते हुए इमाम हुसैन की क़ब्र पर पहुँचे (8) सुलैमान ने सभी को संबोधित करते हुए कहाः या अल्लाह तू गवाह रहना हम हुसैन के दीन और उनके रास्ते पर हैं और उनके हत्यारों के दुश्मन हैं। (9)

युद्ध का आग़ाज़

शाम की सेना पहुँचने से पहले तव्वाबीन ने "ऐनुल वरदा" में कैंप लगाया और पाँच दिन वहां आराम किया, युद्ध के दिन सुलैमान ने युद्ध की शैली और रणनीति के बारे में सभी को बताया और अपने उत्तराधिकारियों की घोषणा की। उन्होंने सभी को संबोधित करते हुए कहाः अगर मैं मार दिया जाऊँ तो सेना के कमांजर मुसय्यब बिन नजबा होंगे, उनके बाद अब्दुल्लाह बिन सअद बिन नफ़ील होंगे, उनके मारे जाने के बाद सेना का नेतृत्व अब्दुल्लाह बिन वाल और रफ़ाआ बिन शद्दाद के हाथों में होगा। (10)

25 जमादिउल अव्वाल को दोनों सेनाएं आमने सामने आती हैं यज़ीदी सेना का सेनापति "ओबैदुल्लाह बिन ज़ियाद" था और "हसीन बिन नुमैर", "शर हबील बिन ज़िलकलाअ हमीरी", "अदहम बिन महरज़ बाहुली", "रबीआ बिन मख़ारिक़ अनवी" और "जबला बिन अब्दुल्लाह ख़सअमी" उसका साथ दे रहे थे (11) दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध होता है। (12)

चार दिन तक युद्ध चलता रहता है जिसमें बहुत से तव्वाबीन शहीद हो जाते हैं और कुछ को यज़ीदी सेना घेर लेती है, तव्वाबीन सेना के कमांडर एक के बाद एक शहीद हो जाते हैं और कुछ बचे हुए तव्वाबीन रफ़ाआ बिन शद्दाद बिजिल्ली के नेतृत्व में पीछे हटने पर मजबूर हो जाते हैं, जब हारे हुए तव्वाबीन कूफ़ा पहुँचते हैं और मुख़्तार सक़फ़ी को उनके बारे में पता चलता है तो मुख़्तार सुलैमान बिन ख़ज़ाई और दूसरे शहीदों की प्रशंसा करते हैं और वादा करते हैं कि वह तव्वाबीन का इन्तेक़ाम लेंगे और इमाम हुसैन के ख़ून का बदला लेने के लिए क़याम करेंगे। (13)
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1.    तबक़ातुल क़ुरहा, जिल्द 6, पेज 25, केताबुल फ़ुतूह जिल्द 6, पेज 205 और 206
2.    बेहारुल अनवार जिल्द 45, पेज 355
3.    अलकामिल फ़ित्तारीख़, जिल्द 4, पेज 160
4.    तारेख़ तबरी जिल्द 4, पेज 430 और 431
5.    बेहारुल अनवार जिल्द 45, पेज 355 और 356, तारीख़े तबरी जिल्द 4, पेज 429
6.    अलबेदाया वलनेहाया, जिल्द 8, पेज 276 और 277
7.    अनसाबुल अशराफ़ जिल्द 6, पेज 367 और 368
8.    अलकामिल फ़ीत्तारीख़ जिल्द 4, पेज 176
9.    तारेख़ी तबरी जिल्द 4, पेज 456 और 457
10.    अलबेदाया वलनेहाया जिल्द 8, पेज 278
11.    अनसाबुल अशराफ़ जिल्द 6, पेज 370
12.    अलकामिल फ़ीत्तारीख़ जिल्द 4, पेज 182
13.    अलबेदाय वलनेहाया जिल्द 8, पेज 279 और 280, अलकामिल फ़ीत्तारीख़ जिल्द 4, पेज 184- 186

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