रोज़े के अहकाम

रोज़े के अहकाम

रोज़ा यह है कि इंसान ख़ुदावन्दे आलम के हुक्म पर अमल करने के लिए अज़ाने सुबह से मग़रिब तक उन चीज़ों से परहेज़ करे जिनके बारे में बयान किया जायेगा।

नियत

(1615) इंसान के लिए रोज़े की नियत का दिल में गुज़ारना या मसलन यह कहना कि “मैं कल रोज़ा रखूँगा” ज़रूरी नहीं है बल्कि इतना ही काफ़ी है कि वह अल्लाह तआ़ला के हुक्म पर अमल करने के लिए अज़ाने सुबह से मग़रिब तक कोई ऐसा काम अंजाम न दे जो रोज़े को बातिल करता हो। और यह यक़ीन करने के लिए कि इस तमाम मुद्दत में वह रोज़े से रहा है ज़रूरी है कि कुछ देर अज़ान से पहले और कुछ देर मग़रिब के बाद भी ऐसे काम करने से परहेज़ करे जिन से रोज़ा बातिल हो जाता है।

(1617) अगर इंसान  माहे रमज़ान के अलावा कोई दूसरा रोज़ा रखना चाहता है तो उसे चाहिए कि उस रोज़े को मुशख़्ख़स करे। मसलन नियत करे कि क़ज़ा या नज़र का रोज़ा रखता हूँ। लेकिन माहे रमज़ान में लाज़िम नहीं है कि नियत करे कि माहे रमज़ान का रोज़ा रखता हूँ। बल्कि अगर न जानता हो कि यह माहे रमज़ान है या भूल जाये और किसी दूसरे रोज़े की नियत करे तो वह रोज़ा भी माहे रमज़ान का रोज़ा शुमार होगा।

(1618) अगर इंसान जानता हो कि यह माहे रमज़ान है और जान बूझ कर किसी दूसरे रोज़े की नियत करे तो न वह रमज़ान का रोज़ा माना जायेगा और न जिस रोज़े की नियत की है उसमें शुमार होगा।

(1621) अगर कोई शख़्स अज़ाने सुबह से पहले रोज़े की नियत करे और सो जाये और मग़रिब के बाद बेदार हो तो उस का रोज़ा सही है।

(1628) इंसान माहे रमज़ानुल मुबारक की हर रात को उस से अगले दिन के रोज़े की नियत कर सकता है और बेहतर यह है कि इस महीने की पहली रात को ही पूरे महीने के रोज़ों की नियत करे। लेकिन मुहिम यह है कि इंसान हर रोज़ आज़ाने सुबह क़रीब रोज़े की नियत करे।

वह चीज़े जो रोज़े को बातिल करती हैं:

(1) खाना (2) पीना।

(1633) अगर रोज़ेदार कोई चीज़ जानबूझ कर खा पी ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है। चाहे वह चीज़ आम तौर पर खाई या पी जाती जैसे रोटी और पानी या आम तौर पर न खाई पी जाती हो मसलन मिट्टी और पत्ते, चाहे वह चीज़ कम हो या ज़्यादा यहाँ तक कि अगर रोज़ेदार एक धागे को अपने थूक में तर करे और दुबारा उसको मुँह में लो जाये व उसकी तरी को निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाये गा। इसी तरह मिसवाक मुहँ से निकाले और दोबारा मुहँ में ले जाये और उस की तरी निगल ले तब भी रोज़ा बातिल हो जायेगा। लेकिन अगर इन की तरी थूक में इस तरह घुल मिल जाये कि उसे बाहर की तरी न कहा जा सके तो कोई हर्ज नहीं है। इसी तरह उस खाने को निगलने से जो दाँतों के बीच फंसा रह जाती है रोज़ा बातिल हो जाता है।

(1634) अगर रोज़ेदार भूले से कोई चीज़ खा पी ले तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता।

(3) जिमाअ (संभोग)

(1643) अगर कोई रोज़े की हालत में संभोग करे तो अगर उसके लिंग का अलगा भाग (सुपारी) प्रवेश कर जाए तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है चाहे वह आगे करे या पीछे।

(1644) अगर कोई भूल जाये कि रोज़े से है और जिमाअ करे या उसे जिमाअ पर इस तरह मजबूर किया जाये कि उस का इख़्तियार बाक़ी न रहे तो उस का रोज़ा बातिल नहीं होगा अलबत्ता अगर जिमाअ की हालत में उसे याद आ जाये कि रोज़े से है या मजबूरी ख़त्म हो जाये तो ज़रूरी है कि फ़ौरन रुक जाए और अगर ऐसा न करे तो उस का रोज़ा बातिल है।

(4) इस्तिमना- यानी इंसान ख़ुद कोई ऐसा काम करे जिस से उसकी मनी (वीर्य) निकल जाये।

(1646) अगर रोज़ेदार इस्तिमना करे यानी ख़ुद से कोई ऐसा काम करे कि उसकी मनी निकल आये तो उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा, लेकिन अगर मनी कुछ किये बिना ख़ुद निकल आये तो रोज़ा बातिल नहीं है। लेकिन अगर वह कोई ऐसा कामकरे जिस से मनी बेइख़्तियारी के साथ निकल जाये तो उसका रोज़ा बातिल है।

(1647)  अगर रोज़ेदार जानता हो कि अगर वह दिन में सोएगा तो उसे एहतिलाम (स्वप्न दोष) हो जायेगा यानी सोते में उस की मनी निकल जायेगी तो वह सो सकता है और अगर वह सो जाये और उसे एहतिलाम भी हो जाये तब भी उसका रोज़ा सही है मख़सूसन अगर न सोने की बिना पर कोई नुक़्सान हो।

(5) अल्लाह ताआला, पैग़म्बर (स0) और आप के जानशीनों पर झूठ मढ़ना।

(1652) अगर रोज़ेदार ज़बान से या लिख कर या इशारे से या किसी और तरीके से अल्लाह तआला या रसूल अकरम (स0) या आपके जानशीनों में से किसी से भी जान बूझ कर कोई झूठी बात मंसूब करे तो अगरचे वह फ़ौरन ही कह दे कि मैं ने झूठी कहा है या तौबा करे तब भी उस का रोज़ा बातिल है और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स0) और तमाम अम्बिया व मुर्सलीन और उन के जानशीनों से भी कोई झूठी बात मंसूब करने का यही हुक्म है।

(6) गाढ़ा गर्द व ग़ुबार हलक़ तक पहुँचाना।

(1659) गर्द का हलक़ तक पहुचाना रोज़े को बातिल कर देता है चाहे ग़ुबार किसी ऐसी चीज़ का हो जिस का खाना हलाल हो मसलन आटा या किसी ऐसी चीज़ को हो जिस का खाना हराम हो मसलन मिट्टी।

(1660) एहतियाते वाजिब यह है कि रोज़ेदार भाप,सिगरेट व तम्बाकु और इन्हीं जैसी दूसरी चीज़ों के धुएं वग़ैरा को भी हलक़ तक न पहुँचाये।

(7) पूरे सर को पानी में डुबोना।

(1662) अगर रोज़ेदार जान बूझ कर सारा सर पानी में डुबो दे और उस का बाक़ी बदन पानी से बाहर रहे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।लेकिन अगर पूरा बदन पानी में हो और सर का कुछ हिस्सा बाहर हो तो रोज़ा बातिल नहीं होगा।

(1663) अगर रोज़ेदार अपने आधे सर को एक दफ़ा और बाक़ी सर को दूसरी दफ़ा पानी में डुबोये तो उस का रोज़ा बातिल नहीं होगा।

(8) अज़ाने सुबह तक जनाबत, हैज़ और निफ़ास की हालत में रहना।

(1673) अगर कोई रमज़ानुल मुबारक के रोज़े या उनकी क़ज़ा रखना चाहे तो उसे जान बूझ कर सुबह की अज़ान तक जनाबत पर बाक़ी नहीं रहना चाहिए। लेकिन अगर कोई जान बूझ कर ग़ुस्ल न करे और वक़्त कम होने की हालत में तयम्मुम भी न करे तो उसका रोज़ा बातिल है। लेकिन दूसरे रोज़े चाहे वाजिब हो   या मुस्तहब अगर उन में जनाबत पर बाक़ी रहा जाये तो रोज़े पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

(1676) अगर शख़्स माहे रमज़ान में ग़ुस्ल करना भूल जाये और एक दिन या कई दिन के बाद उसे याद आये तो ज़रूरी है कि उन दिनों के रोज़ों की क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद याद आये तो इतने दिनों के रोज़ों की क़जा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो कि वह जुनुब था। मसलन अगर उसे यह इल्म न हो कि तीन दिन जुनुब रहा या चार दिन तो ज़रूरी है कि तीन दिन के रोज़ों की कज़ा करे।

(1691) अगर औरत सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और जानबूझ कर ग़ुस्ल न करे या वक़्त तंग होने की सूरत में तयम्मुम भी न करे तो अगर उस का रोज़ा माहे रमज़ान या उसकी क़ज़ा का है तो बातिल है। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि दूसरे वाजिब व मुस्तहब रोज़ों में इस बात का ध्यान रखा जाये।

(9) किसी बहने वाली चीज़ से अनीमा करना।

(1698) बहने वाली चीज़ों से अनीमा करना चाहे यह मज़बूरी की हालत में या इलाज की ग़रज़ से ही क्योँ न हो रोज़े को बातिल कर देता है। लेकिन इसके लिए जो ख़ुश्क़ चीज़े इस्तेमाल होती हैं उन में कोई हर्ज नहीं है जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन से भी परहेज़ किया जाये। और इसी तरह जिन चीज़ों के जामिद (जमी हुई) या सय्याल (बहने वाली) होने में शक हो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उन से भी परहेज़ करना चाहिए।

(10) उल्टी करना।

(1699) अगर रोज़ेदार जान बूझ कर उल्टी करे चाहे बीमारी वग़ैरा की वजह से मजबूरन ऐसा करना पड़े उस का रोज़ा बातिल हो जाता है। लेकिन अगर भूले से या बे इख़्तियार उल्टी करे तो कोई हर्ज नहीं है।

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