किशोरावस्था में बच्चों साथ परिवार में कैसा व्यवहार करें
किशोरावस्था में बच्चों साथ परिवार में कैसा व्यवहार करें
हर व्यक्ति की ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण व निर्णायक चरण युवावस्था का होता है। इस चरण में युवा, अपने भीतर शारीरिक और मानसिक दृष्टि से बहुत तेज़ी से परिवर्तन महसूस करता है। युवा ख़ुद को लड़कपन और व्यस्कता के बीच में पाता है। इसलिए वह दो अलग प्रकार की दुनिया में अनेक प्रकार के आपसी टकराव के बीच में ख़ुद को पाता है। नवयुवक अपनी सही पहचान की तलाश में होता है और इस संदर्भ में अपने व्यक्तित्व को साबित करने के लिए अपनी योग्यता को पेश करता है। युवावस्था पारिवारिक निर्भरता से छुटकारा पाने तथा सामाजिक मंच पर उपस्थित होने का दौर है।
सबसे पहली बात तो यह है कि माँ बाप को चाहिए कि अपने बच्चों को सामान्य से ज़्यादा ख़ुद पर निर्भर न बनाएं ताकि उनकी स्वाधीनता की पृष्ठिभूमि आसानी से तय्यार हो सके। इसी प्रकार माँ बाप युवाओं को एक हद तक स्वाधीनता देकर इस चरण को उनके लिए संतोषजनक बना सकते हैं। जिस युवा के व्यक्तित्व का उसके परिवार में सम्मान किया जाता है और उसे परिवार का प्रभावी सदस्य समझा जाता है, वह युवा मानिसक दृष्टि से संतोष व सुख का आभास करता है। ऐसा युवा चूंकि आत्मविश्वास से भरा होता है इसलिए वह कभी भी हीन भावना का शिकार नहीं होता। इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कहना है, “जिस व्यक्ति में सज्जनता और आत्म सम्मान होगा वह ख़ुद को पाप से कलंकित नहीं करेगा।”
माँ बाप को बच्चे में आत्मविश्वास पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि माँ बाप के बच्चों ख़ास तौर पर युवा बच्चों के साथ संबंध को मज़बूत बनाने की एक प्रभावी शैली उनमें ख़ुद को मूल्यवान समझने तथा आत्म विश्वास की भावना पैदा करना है। मनोवैज्ञानिक, माँ बाप को इस बात का मशविरा देते हैं कि वे अति से बचते हुए युवाओं की क्षमताओं की सराहना करें।
युवावस्था में युवक नई परिस्थितियों से ख़ुद को समन्वित करने की कोशिश करता है। इस चरण से सफलतापूर्वक गुज़रना इस बात पर निर्भर करता है कि युवक ने ख़ुद को इसके लिए कितना तय्यार किया है। इन परिस्थितियों से समन्वय के लिए उचित मानसिक विकास बहुत ज़रूरी है। दूसरे शब्दों में युवा में मानसिक व भावनात्मक तय्यारी, परिवर्तनों से समन्वित होने में उसकी मदद करती है।
युवा जीवन के इस चरण में भावनात्मक और सामाजिक दृष्टि से उल्लेखनीय परिवर्तन महसूस करता है। माँ बाप का आज्ञापालन और बात बात पर उनसे पूछने की भावना धीरे धीरे कम होती जाती है। युवा अपनी उम्र के दोस्तों व लोगों के साथ उठना बैठना ज़्यादा पसंद करता है। वह अपनी उम्र के युवाओं को यह बताने की कोशिश करता है कि वह भी स्वाधीन है। युवावस्था का एक महत्वपूर्ण मामला, भावनाओं का उग्र होना है। इसी प्रकार युवा क्रोध, निराश या भय का शिकार हो जाता है। इसी संदर्भ में संभव है कि कुछ युवा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की शैली से परिचित न होने के कारण, उसे अप्रचलित ढंग से दर्शाएं। युवाओं को अपने व्यवहार और भावनाओं पर कम नियंत्रण होता है। इसी कारण इस उम्र में अनुचित व क्षणिक कर्म अधिक होते हैं। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि युवावस्था भावनात्मक व सामाजिक स्वाधीनता की प्राप्ति के अनुभव का चरण है। जिस युवा का यह चरण अच्छी तरह बीत जाता है, अच्छा भविष्य उसके इंतेज़ार में रहता है। वरना इस चरण में नुक़सान पहुंचने की संभावना बहुत ज़्यादा होती है। जैसे नशे की आदत, अपराध और पाप की ओर रुझान इसी चरण में पैदा होता है।
युवावस्था उतार चढ़ाव से भरा मार्ग है। युवा की भावनात्मक ज़रूरतों की ओर माँ बाप के ध्यान देने से उसे इस चरण को अच्छी तरह तय करने में मदद मिलती है। माँ बाप की ओर से अनुशंसाएं और देखरेख, पूरी युवावस्था में उसके लिए चमकते हुए दीपक की भांति होना चाहिए। युवा की शारीरिक, भावनात्मक, वैचारिक और धार्मिक ज़रूरतें होती हैं। इसलिए वह सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष रूप से माँ बाप से इस बात की अपेक्षा करता है कि वे उसकी ज़रूरतों को पूरा करें। इसी दृष्टि से हर परिवार में युवा का धार्मिक प्रशिक्षण भी बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में कुछ बिन्दुओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
जैसा कि आप जानते हैं कि युवावस्था में धार्मिक विचारों का विकास और नैतिक गुणों की ओर रुझान, युवावस्था में अपने चरम पर पहुंच सकता है। इस चरण में कुछ युवा यह चाहते हैं कि न सिर्फ़ उनका बल्कि दूसरों का व्यवहार भी अच्छा हो। यह विचार उन्हें बुरायी से दूर रखता है। हालांकि युवावस्था में आत्मिक शुद्धि ज़्यादा होती है किन्तु इसी उम्र में धर्म की बहुत सी बातों पर शक पैदा होता है। युवा कभी कभी अपने माँ बाप की आस्था पर शक करता है। वह संतोष हासिल करना चाहता है कि जो बातें उसने अब तक सीखी हैं वे सही हैं या नहीं। युवा तर्क से अपनी आस्था को परखता है कि वह सही है या नहीं। अलबत्ता कभी कभी वह अपने संदेह को दूसरों के सामने रखने में हिचकिचाता है और मुश्किल यहीं से शुरु होती है जब युवा के मन में संदेह बाक़ी रह जाए। दूसरा ख़तरा यह होता है कि वह धार्मिक मामले में अपने संदेह को अयोग्य लोगों के सामने पेश करे।
इसलिए माँ बाप और प्रशिक्षक का रोल युवाओं व जवानों को धार्मिक व अच्छे नैतिक मूल्यों का अनुसरण कराने में बहुत अहम होता है। माँ बाप और प्रशिक्षक का युवाओं के साथ धार्मिक प्रशिक्षण के समय मैत्रीपूर्ण होना चाहिए। युवाओं का सही ढंग से सोचने की शैली से अवगत होना बहुत ज़रूरी है। धार्मिक विषयों और एकेश्वरवाद की विचारधारा को तर्क पर आधारित होना चाहिए। इस संदर्भ में उन्हें ऐसी किताबों के अध्ययन की सिफ़ारिश करनी चाहिए जो उनके सवालों के सही जवाब देकर उनके संदेह को दूर कर सके। इस बात में शक नहीं कि युवाओं के साथ धार्मिक मामलों को पेश करना बहुत अहम है। धार्मिक विषयों को इस प्रकार पेश करना चाहिए कि वे धार्मिक शिक्षाओं को अपने दैनिक जीवन से प्रासंगिक पाएं। युवा इस बात को महसूस करे कि धार्मिक नियमों की दैनिक जीवन में उपयोगिता है और वे अपनी मानसिक ज़रूरतों को धार्मिक शिक्षाओं की मदद से पूरा कर सकते हैं। अगर धार्मिक विषय अनुभव व व्यवहार में उतर जाए तो इसका युवा की अंतरात्मा पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति में युवा वीरता, सदाचारिता और सच्चाई के फ़ायदे का आभास करता है।
माँ बाप और प्रशिक्षक इस हक़ीक़त से युवा को क़रीब कर सकते हैं कि धर्म तर्क और विज्ञान से समन्वित है। इस स्थिति में युवा यह बात समझ जाएगा कि आज के युग में जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है, धर्म मानव जाति के विकास व उन्नति में रुकावट नहीं है बल्कि धार्मिक शिक्षाएं इंसान को वैज्ञानिक प्रगति के लिए प्रेरित करती हैं।
माँ बाप का यह दायित्व है कि उपासना और प्रार्थना के महत्व को बच्चों को बहुत अच्छे ढंक से समझए। जैसे जब प्रार्थना करें तो प्रार्थना के वैज्ञानिक व आत्मिक प्रभाव के बारे में बताएं। यह बताएं कि किस तरह प्रार्थना का मनुष्य के जीवन व कर्म पर प्रभाव पड़ता है। यह भी बताएं कि प्रार्थना गतिहीनता नहीं बल्कि गतिशीलता लाती है और मन में आशा पैदा करती है। हर व्यक्ति को एक ऐसे मज़बूत आधार की ज़रूरत होती है जो पतन का शिकार न हो। ऐसा आधार जिस पर वह हर क्षण भरोसा कर सके और उससे मदद मांग सके। सृष्टि के स्रोत पर युवा में विश्वास, उसके वजूद में निर्णायक बदलाव लाता है। यह विश्वास युवा को जीवन की डगर पर दृढ़ता से चलने में मदद देता है और संदेह से दूर करता है। ऐसी स्थिति में युवा के लिए जीवन अर्थपूर्ण व मूल्यवान हो जाता है और उसमें आत्म विश्वास पैदा होता है।
अंत में इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि माँ बाप और प्रशिक्षक की यह ज़िम्मेदारी है कि वह युवाओं को सतही धार्मिक भावनाओं से ऊपर उठाएं और उनमें विचार व सोचने समझने की आदत विकसित करें। अगर वे ऐसा कर ले जाते हैं तो उन्होंने सही अर्थ में युवा की ख़ुद से, ईश्वर से और दूसरो से अच्छा संबंध बनाने में मदद की है।
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