इराक़ सेना को आयतुल्लाह सीस्तानी के 20 नसीहतें
इराक़ में सेना, स्वयसेवकों की आपसी बढ़ती लड़ाई और ISIS के आतंकवादियों के साथ जंग अपनी चरम सीमा पर है, श्रेष्ठ धर्मगुरु आयतुल्लाह सीस्तानी ने इराक़ी सैनिकों वास्तविक जिहाद के लिये 20 आदेश दिया है और उनसे कहा है कि दाइश के साथ युद्ध में धार्मिक सीमाओं से आगे न बढ़ें
हम यहां पर आपके लिये आयतुल्लाह सीस्तानी के आदेशों को ला रहे हैं
بسم الله الرحمن الرحیم
الحمد لله رب العالمین والصلاة والسلام على خیر خلقه محمد وآله الطیبین الطاهرین
प्यारे सैनिकों जिन्हें ईश्वर ने हमलावरों के विरुद्ध जिहाद और जंग की तौफ़ीक़ दी हैं जान लें:
1. जिस प्रकार ईश्वर ने मोमिनों के जिहाद का निमंत्रण दिया है और उसके धर्म का स्तंभ क़रार दिया है उसी प्रकार उसके कुछ नियम भी बताए हैं आप भी इन नियमों को जानें और उनका पालन करें क्योंकि जो भी इनका पालन करेगा उसका सवाब अधिक और जो अवहेलना करेगा उसकी सवाब कम होगा और वह अपने मक़सद को न पा सकेगा।
2. जिहाद के कुछ नियम हैं कि अगर ग़ैर मुसलमान के साथ जंग हो तब भी उनका पालन आवश्यक है जैसा कि इमाम सादिक़ की हदीस में हैः कि जब पैग़म्बर किसी को जंग पर भेजते थे को सेना को बुला कर कहते थेः मरने वालों के अंगों को न काटो, धोखा न दो, बच्चों और औरतों की हत्या न करो, पेड़ों को न काटों।
3. विद्रोही और बाग़ी मुसलमानों के साथ युद्ध के भी नियम है जिनके बारे में इमाम अली ने फ़रमाया है कि अहलेबैत की शैली को देखो, उनकी शैली का अनुसरण करो, क्योंकि वह तुम्हे मार्गदर्शन के मार्ग के बाहर नहीं करते, अगर वह जाएं तो तुम भी जाओ, अगर वह खड़े हो तो तुम भी खड़े हो, उसने आगे न बढ़ो कि गुमराह हो जाओं और उनसे पीछे भी न रहो कि हलाक हो जाओ।
4. लोगों को मारने और हत्या करने में ईश्वरीय नियमों का पालन करो, और ईश्वर ने जिसकी हत्या से मना किया है उसको क़त्ल न करो बेगुनाहों की हत्या बहुत बड़ा पाप है, और उनकी जान बचाना बहुत बड़ा पुन्य है। जैसा कि अमीरुल मोमिनीन ने मालिके अशतर को पत्र में लिखाः हलाल रास्ते के अतिरिक्त ख़ून बहाने सो बचो (बेगुनाह की हत्या न करो) ईश्वर बेगुनाहों के ख़ून का बदला लेगा, अपनी सत्ता को बेगुनाहों के ख़ून से शक्ति न दो क्योंकि यह हुकूमत की कमज़ोरी और पतन का कारण है, बेगुनाह की हत्या पर ईश्वर और मेरे सामने कोई बहाना न होगा, उसकी सज़ा क़िसास है।
इसलिये अगर तुमको कोई संदिग्ध चीज़ दिखाई दे और वह तुमको आतंकवादियों को कोई साज़िश और चाल दिखाई दे तो बिना उन लोगों को निशाना बनाएं गोलियां चला कर चेतावनी दो ताकि ईश्वर के सामने तुम्हारे बास बहाना हो और तुम बेगुनाहों की हत्या से बच सको।
5. जो लोग तुमसे नहीं लड़ रहे हैं उनके बारे में हराम कार्यों को करने से ईश्वर से डरो विषेश कर बूढ़ों, बच्चों और महिलाओं के बारे में चाहे वह उनके परिवार वाले ही क्यों न हो जो तुमले युद्ध कर रहे हैं, क्योंकि लड़ने वालों के परिवार वाले तुम्हारे लिये हलाल नहीं है, केवल उनकी सम्पत्ति को तुम ले सकते हो।
हज़रत अली की शैली भी यही थी वह ख़ारेजीयों के कहने के बाद भी शत्रुओं के घरों और उनकी औरतों पर हमला नहीं करते थे और फ़रमाते थेः पुरुष हमले लड़े, हम भी लड़े लेकिन औरतों और बच्चों पर हमला नहीं किया जा सकता क्योंकि यह मुसलमान है, जंग में जो चीज़ें तुम्हारे विरुद्ध प्रयोग की गई हैं वह सेना की है और उसपर तुम्हारा अधिकार है लेकिन जो घरों में है वह परिवार वालों की मीरास है और तुम्हारा उस सम्पत्ति और औरतों एवं बच्चों में कोई हक़ नही है।
6. इज़्ज़तों को मुबाह करने के लिये लोगों के दीन पर आरोप गलाने के बचो, जैसा कि सदरे इस्लाम में ख़ारेजीयों ने किया
जान लो कि जो भी शहादतैन पढ़ ले वह मुसलमान है और उसका ख़ून और माल सम्मानीय है चाहे वह कुछ गुमराही में ही क्यों न हो और बिदअत ही क्यों न की है, क्योंकि हर गुमराही काफ़िर नहीं बनाती है और हर बिदअत इंसान को इस्लाम से बाहर नहीं करती है...
7. ग़ैर मुसलमान चाहे वह किसी दीन, धर्म को हो उनपर आक्रमण से बचो यह लोग मुसलमानों की पनाह में है, और जो भी उनपर आक्रमण करे वह ख़यानत करने वाला है।
यह सही नहीं है कि मुसलमान, मुसलमानों की पनाह में आए ग़ैर मुसलमान पर आक्रमण होने दे, बल्कि मुसलमानों को चाहिये कि उन (ग़ैर मुसलमान) के लिये अपने परिवार की भाति कार्य करे और उनकी सुरक्षा करे।
8. लोगों की सम्पत्ति के बारे में ईश्वर से डरो, कि मुसलमान का माल दूसरे मुसलमान के लिये जाएज़ नहीं है, मगर यह कि वह राज़ी हो इसलिये जी भी ज़बरदस्ती दूसरे मुसलमान के माल पर क़ब्ज़ा कर ले, उसने नर्क की आग को हाथ में लिया है।
: "إن الذین یأكلون أموال الیتامى ظلماً إنّما یأكلون فی بطونهم ناراً وسیصلون سعیراً
हज़रत अली की भी यह सीरत थी कि वह युद्ध में किसी के माल पर क़ब्ज़ा नहीं करते थे यहां तक कि मरवान बिन हकम कहता है किः जब अली ने हमको बसरा में हराया तो उन्होंने लोगों के माल को वापस कर दिया जो भी तर्क लाता था कि यह उसका माल है उसको दे देते और जिसके पास तर्क न होता उसको क़सम खाने को बोलते और माल दे देते।
9. हराम कार्यों के संबंध में चाहे वह ज़बान से हों या व्यवहार से ईश्वर से डरो, किसी दूसरे के पाप के लिये दूसरे से पूछताछ न करो, किसी को संदेह के आधार पर गिरफ़्तार न करो, संदेह के बारे में छानबीन करो और तर्क लाओ की यही एहतियात है, ध्यान रहे कि जिससे तुम नफ़रत करते हो तुम्हारी नफ़रत उसके बारे में हराम कार्यों की तरफ़ न ले जाए
अलीरुल मोमिनीन ने सिफ़्फ़ीन की जंग में फ़रमायाः मरने वालों के अंगो को न काटो और जब उनके घरो में पहुँचो तो पर्दो को न हटाओ और घरों में प्रवेश न करो उनके माल में से कुछ न उठाओ... महिलाओं को प्रताणित न करो चाहे वह तुम्हें और तुम्हारे सरदारों को गाली भीं दें।
10. ध्यान रहें जो क़ौम जब तक तुम्हे युद्ध न करो उसके अधिकारों से उसको वंचित न करो, चाहे वह तुमसे नफ़रत ही करते हो, क्योंकि अमीरुल मोमिनीन की शैली थी कि वह विरोधियों के साथ भी दूसरे मुसलमानों की भाति पेश आते थे, जब तक वह हथियार न उठा लें, आप कभी भी उनसे जंग आरम्भ नहीं करते थे....।
11. जान लो कि अधिकतर जो लड़ रहे हैं वह गुमराह करने वालों की बातों में आकर पथभ्रष्ट हुए हैं तो तुम कोई ऐसा कार्य न करो जो लोगों के दिमागों में संदेह और शंकाओं को बलवान बना दे और वह उनको गुमराह करने वालों का साथी बना दे और अपने इस कार्य से तुमने गुमराह करने वालों की सहायता की हो, बल्कि अच्चे व्यवहार, नसीहत, न्याय, सही क्षमा, अत्याचार से दूरी और बुरे व्यवहार से बचकर ऐसा कार्य करो संदेह और शुब्हे अप्रभावी हो जाएं.....।
12. कोई यह न समझें कि अत्याचार उस चीज़ को सही कर सकता है जिसको न्याय सही नहीं कर सकता, क्योंकि यह सोंच कुछ वास्तविक्ताओं पर पहली नज़र और अल्प अवधि या लंबी अवधि में उसके अंजाम पर ध्यान न देने और जीवन की रीतियों और क़ौमों के इतिहासों को अंदेखा करने से पैदा होती है, जहां यह सब अत्याचार के अंजाम की सूरत में लोगों के दिलों में नफ़रत, शत्रुता और समाज में बिखराव का कारण बनती है के बारे में चेतावनी दे रहे हैं। हदीस में भी है कि जिसके लिये न्याय कठिन हो उसको लिये अत्याचार और भी कठिन है, और समकालीन इतिहास में भी ऐसी इबरतें हैं कि जहां कुछ शासकों ने अपनी सत्ता को मज़बूत करने के लिये लाखों लोगों पर अत्याचार किया और यहां तक कि ईश्वर ने उनको उस स्थान से जहां से उनको आशा भी न थी बदला दिया इस प्रकार कि जैसे उन्होंने अपने हाथों से हुकूमत को समाप्त कर दिया।
13. सहिष्णुता और इतमामे हुज्जत में चाहे हमारे लिये थोड़ी हानि ही क्यों न हो लेकिन इस कार्य की बरकत और नतीज़ा अच्छा ही होगा। जैसा कि हमको अहलेबैत की सीरत में दिखाई देता है कि जब जमल के दिन आपकी सेना बाहर आई तो आपने आदेश दिया कि कोई भी जंग को आरम्भ नहीं करेगा यहां तक कि मैं आदेश दूँ। कुछ सहाबियों ने कहां कि वह हमपर तीर बरसा रहे हैं, आपने फ़रमायाः अभी रुके रहो, उसके बाद फिर कुछ लोगों ने कहा कि उन्होंने हम पर तीर बरसाए हैं और कुछ लोग शहीद हुए हैं तब आपने कहा कि अब आरम्भ करो.... इमाम हुसैन ने भी कर्बला में ऐसा ही किया।
14. जिन लोगों के सामने जाते हो उनके रक्षक और शुभचिंतक रहो ताकि वह भी शत्रुओं के मुक़बाले में तुम्हारी सहायता करें, बल्कि जहां तक संभव हो कमज़ोरों की सहायता करो वह तुम्हारे भाई और परिवार वाले हैं, अपने परिवार वालों की भाति उनपर दया और शुभचिंतक रहो जान लो कि तुम ईश्वर की निगाहों के सामने हो वह तुम्हारे कार्यों को लिख रहा है, तुम्हारी नियतों को जानता है और तुम्हारी परीक्षा लेता है।
15. वाजिब नमाज़ों के बारे में ग़ाफ़िल न हो क्योंकि ईश्वर के सामने नमाज़ के बेहतर कोई भी कार्य नहीं है.... नमाज़ दीन का स्तंभ और इबादतों की स्वीकृति का मापदंड है, और ईश्वर ने डर एवं युद्ध के समय इसके कमी की है यहां तक कि अगर नमाज़ के पूरे समय युद्ध में है वह हर रकअत की बदले एक तकबीर कहे यहां वह क़िबले की तरफ़ न हो
"حافظوا على الصلوات والصلاة الوسطى وقوموا لله قانتین، فإن خفتم فرجالاً أو ركباناً، فإذا أمنتم فاذكروا الله كما علّمكم ما لم تكونوا تعلمون"
16. ईश्वर की याद, क़ुरआन की तिलावत और ईश्वर से मुलाक़ात और उससे मुलाक़ात की याद से अपनी सहायता करो....।
17. ईश्वर तुम्हारी सहायता करे, ध्यान रहे कि युद्द और सुलह में तुम्हारा व्यवहार पैग़म्बर और अहलेबैत (अ) की भाति होना चाहिये ताकि तुम इस्लाम के सम्मान और उनके व्यवहार का आईना बन सको......
18. एहतियात के स्थानों पर जल्दबाज़ी से बचो ताकि स्वंय को बरबाद न कर लो, क्योंकि शत्रु तुमसे यही चाहता है कि तुम बिना सोचे समझे इन स्थानों में प्रवेश कर जाओ और बिना एहतियात और होशियारी के आगे बढ़ो, अपनी टुकड़ियों की व्यवस्था और अपने कार्यों में तालमेल बिठाओ, और किसी भी कार्य में जल्दबाज़ी न करो, इससे पहले कि उसके बारे में जाच पड़ताल, उसके संसाधनों की व्यवस्था कर लो। ईश्वर फ़रमाता हैः
"یَا أَیُّهَا الَّذِینَ آمَنُوا خُذُوا حِذْرَكُمْ فَانفِرُوا ثُبَاتٍ أَوِ انفِرُوا جَمِیعًا"
और फ़रमाता हैः
"إِنَّ اللَّهَ یُحِبُّ الَّذِینَ یُقَاتِلُونَ فِی سَبِیلِهِ صَفًّا كَأَنَّهُم بُنْیَانٌ مَّرْصُوصٌ"؛
तुमको अपने शत्रु से अधिक शक्तिशाली होना चाहिये क्योंकि तुम हक़ पर हो और जान लो अगर तुमको दर्द होता है तो उनको भी दर्द होता है, लेकिन तुमको अल्लाह से आशा है लेकिन उनको नहीं है , मगर यह कि वह बेकार की उम्मीदों और झूठी आशाओं के अपने लिये रखें है जो एक प्यासे के लिये मरीचिका की भाति है.....।
19. वह लोग जो आपके सामने हैं और शत्रु ने जिनको अपनी ढाल बना रखा है उनको अपने समर्थकों का शुभचिंतक होना पड़ेगा और उनके बलिदानों का सम्मान करना पड़ेगा
जान लो कि कोई भी तुम्हारे लिये तुम्हारे जैसा शुभचिंतक नहीं हो सकता है लेकिन शर्त यह है कि तुम साफ़ हो, नेक कार्यों के लिये एक दूसरे का साथ दो, आवश्यकता के समय दूसरों की ग़ल्तियों या पापों को क्षमा कर दो, चाहे यह पाप बड़े ही क्यों न हो, क्यों कि जिसकों भी यह लगे कि एक अजनबी उसके लिये परिवार, क़बीले और उसके देश के लोगों से अधिक उसका अच्छा चाहता है और वह उसके साथ मिल जाए वह धोखे का शिकार हुआ है......
20. सभी को जातपात के भेदभाव को छोड़ना होगा, और नेक व्यवहार को अपनाना होगा क्योंकि ईश्वर ने सभी को क़ौमों और मिल्लतों में पैदा किया है ताकि वह पहचाने जाएं.....
इसलियें तुमपर छोटी सोंच और अहंकार हावी न होने पाए, इसके अतिरिक्त आप अच्छी तरह से जानते हैं कि आप पर और दूसरे देशों में मुसलमानों पर कौन सी मुसीबत आई है इस प्रकार कि उनकी एनर्जी, पैसा एक दूसरे को मारने में ख़र्च हो रहा है बजाए इसके कि तरक़्क़ी, और लोगों के जीवन के स्तर को सुधारने में ख़र्च हो...... इसलिये अब जो फ़ितना उठ चुका है उसको समाप्त करने की कोशिश करें.....।
(अनुवाद एवं सारांशः सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी)
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