फ़िलिस्तीनी बच्चों पर इस्राईली अत्याचार के आयाम
फ़िलिस्तीनी बच्चों पर इस्राईली अत्याचार के आयाम
ब्रितानी समाचारपत्र इंडिपेन्डंट के पत्रकार किम सेनगुप्ता ने इस समाचारपत्र के मुख्य पेज को ग़ज़्ज़ा में बच्चों के जनसंहार के वर्णन के लिए विशेष किया। उन्होंने एक नौ वर्षीय लड़की की कहानी बयान की जो दिल दहलाने वाली है। इस नौ वर्षीय लड़की का नाम मरयम अलमिस्री है। उसके मां-बाप कृत्रिम गर्भाधारण शैली से उसके मां-बाप बने और इस समय मरयम की स्थिति बहुत ही दयनीय है। इस लड़की के पिता अलाउल मिसरी कहते हैं कि मरयम उनके जीवन की सबसे मूल्यवान संपत्ति है। हमने इस बच्चे के लिए बहुत इंतेज़ार किया और अब उसके होश में आने का इंतेज़ार कर रहे हैं। अलाउल मिस्री आगे कहते हैं कि मरयम घर के आंगन में खेल रही थी कि इस्राईल के निर्दयी युद्धक विमानों ने हमारे सामन वाले घर पर बमबारी की। भीषण विस्फोट के कारण हमारा घर भी क्षतिग्रस्त हुआ और आंगन में खेल रही मरयम ख़ून में लतपत होकर ज़मीन पर गिर पड़ी।
किन्तु मरयम ग़ज़्ज़ा युद्ध की बलि चढ़ने वाली एक मात्र बच्ची नहीं है बल्कि उसके साथ बहुत से फ़िलिस्तीनी बच्चे भी ज़ायोनी शासन के बर्बरतापूर्ण हमलों की बलि चढ़े हैं। यदि और जानने की कोशिश करें तो मरयम से ज़्यादा हृदयविदारक घटनाएं भी मौजूद हैं जैसे एक ही परिवार के आठ सदस्यों का मारा जाना जिसमें चार बच्चे और दो महिलाएं शामिल हैं।
एक और हृदय विदारक घटना ईद के दिन की है। इस दिन भोले-भाले बच्चे पश्चिमी ग़ज़्ज़ा में एक पार्क में खेल रहे थे कि अचानक इस्राइली मीसाइल का निशाना बने। इस हवाई हमले में नौ बेगुनाह बच्चे मारे गए कि सबके सब बारह साल से कम उम्र के थे। यह इस्राईल की ओर से ईद के अवसर पर एक प्रकार का उपहार था ताकि यह पता चले कि यह शासन पाश्विकता में सारे अपराधियों से दस क़दम आगे है। इस बीच संयुक्त राष्ट्र संघ इन चीख़ों के सामने इस प्रकार गूंगा बना बैठा है मानो निर्दोष लोगों की रक्षा के लिए उसके पास कोई प्रस्ताव व प्रोटोकाल नहीं है।
अतिग्रहणकारी इस्राइली शासन द्वारा ग़ज़्ज़ा की निर्दोष जनता का जनसंहार और उसे पानी, खाना, दवा और जीवन की मूलभूत ज़रूरतों से इस प्रकार वंचित किया गया है कि ग़ज़्ज़ा एक बड़ी जेल बन गया है। ग़ज़्ज़ा में ज़ायोनी शासन के अपराध इतने ख़तरनाक व पाश्विक हैं कि उसके लिए केवल जनसंहार कहना काफ़ी नहीं है बल्कि यह खुल्लम खुल्लम जातीय सफ़ाया है और ज़ायोनी शासन की ओर से किए जा रहे जातीय सफ़ाए की भेंट निर्दोष बच्चे चढ़ रहे हैं कि जिनकी संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। विश्व में बच्चों के अधिकारों की समर्थक संस्था यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के अनुसार ग़ज़्ज़ा पर इस्राइली सेना के पाश्विक हमलों की बलि चढ़ने वालों में लगभग 30 प्रतिशत बच्चे हैं। अलबत्ता जिसे भी ज़ायोनी शासन के अस्तित्व में आने के इतिहास का ज़रा भी ज्ञान हो शायद उसे इसर्इली शासन के वर्तमान जघन्य अपराध नई बात लगे क्योंकि इस शासन ने फ़िलिस्तीनियों की भूमि को उनका ख़ून बहाकर हड़पा है और इस प्रकार इस्राईल अस्तित्व में आया। हर दिन इस्राईल द्वारा निर्दोष लोगो का जनसंहार का नया दृष्य सामने आ रहा है मानो इस्राईल ने मानवता के विकास के बजाए उसका सर्वनाश करने में महारत हासिल की है।
बच्चों का हत्यारा ज़ायोनी शासन इतना दुस्साहसी हो गया है कि उसका स्नाइपर अपने फ़ेसबुक के पेज पर बड़ी बेशर्मी से लिखता है, “मैंने एक दिन में 13 फ़िलिस्तीनी बच्चों की जान ली।” वह हाथ में आधुनिक हथियार लिए अपनी तस्वीर पोस्ट करता है और बड़े दुस्साहस से निर्दोष बच्चों की हत्या पर गर्व करता है। दूसरी ओर इस्राइली सैनिक फ़िलिस्तीन के प्रतिरोधकर्ताओं से लड़ने से भयभीत हैं और कभी भी भाग खड़े होते हैं।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई अपने हालिया हाषण में ग़ज़्ज़ा में निर्दोष फ़िलिस्तीनियों के जनसंहार की ओर लोगों का ध्यान ले गए और कहा, “ आज इस्लामी जगत का सबसे बड़ा मामला ग़ज़्ज़ा है। शायद यह कहना ग़लत न होगा कि मानव जगत का सबसे बड़ा मामला ग़ज़्ज़ा का मामला है। नरभक्षी भेड़ियों व कुत्तों ने निर्दोष लोगों पर हमला किया है। इन हमलों में मारे जाने वाले बेगुनाह बच्चों से ज़्यादा कौन दमित व पीड़ित होगा? उन माओं से ज़्यादा कौन दमित होगा जो अपनी गोद में अपने बच्चों को मरता देख रही हैं? नास्तिक अतिग्रहणकारी ज़ायोनी शासन ने मानवता के सामने ये अपराध किए हैं। पूरी मानवता को इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिए। वरिष्ठ नेता के इस भाषण से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के उस बयान की याद आ जाती है जिसमें उन्होंने कहा है, “ जो कोई इस तरह सुबह करे कि उसे मुसलमानों के मामलों की चिंता न हो तो वह मुसलमान ही नहीं है।” हर व्यक्ति, राष्ट्र, सरकार विशेष रूप से देशों के अधिकारियों को इस बारे में सोचना चाहिए। पूरे इस्लामी जगत, पूरी इस्लामी सरकारों और मुसलमान राष्ट्र के एक एक व्यक्ति का कर्तव्य है कि इस्राईल का मुक़ाबला करे। उसके कृत्यों से घृणा दर्शाएं। यह सार्वजनिक कर्तव्य है। ज़ायोनियों को अलग थलग करें और संभव हो तो आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से निपटें। यह मुसलमान जगत का कर्तव्य है।”
इस बीच अरब देशों के राष्ट्राध्यक्षों का मौन बहुत ही शोचनीय है। उनका मौन ग़ज़्ज़ा की दमित जतना के शरीर पर पड़ने वाला घातक प्रहार है और उनकी पीड़ाओंको बढ़ा रहा है।
कुवैत की संसद के प्रतिनिधि फ़ैसल शाए ज़ायोनी शासन के अपराधों के संबंध में अरब देशों के अर्थपूर्ण मौन की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “ इस संदर्भ में मौन बहुत ही ख़तरनाक है और यह कहना चाहिए कि ग़ज़्ज़ा में यह जनसंहार, घरों का ध्वस्त होना, मूलभूत संरचनाओं का सर्वनाश, बच्चों और निर्दोष महिलाओं का जनसंहार ये सबके सब वर्तमान समय में अरब और इस्लामी देशों के मौन का परिणाम है।”
यह भी एक हक़ीक़त है कि अरब देश वर्षों से फ़िलिस्तीनी जनता के दुर्भाग्य का बैठे तमाशा देख रहे हैं। इन देशों ने कभी भी अतिग्रहणकारी इस्राइली शासन के विरुद्ध एक स्वर में आवाज़ नहीं उठायी और कोई क़दम नहीं उठाया और इस समय भी इस त्रासदीपूर्ण जनसंहार पर चुप बैठे हुए हैं।
इस्लाम में जिस प्रकार अत्याचार का विरोध किया गया है उसी प्रकार अत्याचार के सामने झुकने की भी निंदा की गयी है और पीड़ित व दमित लोगों की रक्षा और सहायता को धार्मिक कर्तव्य की संज्ञा दी गयी है। पवित्र क़ुरआन में पीड़ितों व दमित लोगों की तुरंत सहायता करने का स्पष्ट रूप में उल्लेख किया गया है। जैसा कि निसा नामक सूरे की आयत संख्या 75 में ईश्वर कह रहा है, “ क्यों ईश्वर के लिए और दबाए गए पुरुषों, महिलाओं और बच्चों के अधिकार के लिए नहीं लड़ते।”
इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह आरंभ में ही ज़ायोनी शासन की नीच प्रवृत्ति को समझ गए थे और बड़ी वीरता से उन्होंने सार्वजनिक रूप में कहा था कि इस्राईल कैंसर का फोड़ा है जिसे ख़त्म होना चाहिए। इमाम ख़ुमैनी को इस्राईल के संबंध में अरब राष्ट्राध्यक्षों के मौन का सदैव शिकवा था और इशारे में उनसे कहा था, “ अगर मुसलमानों में एकता होती तो हर कोई एक एक बालटी इस्राईल पर पानी डालता तो उसे सैलाब बहा ले जाता।” इमाम ख़ुमैनी इस्राईल के संबंध में अरब देशों के मौन पर अपने एक बयान में कहते हैं, “ मेरे लिए यह बात एक पहेली है कि सभी मुसलमान राष्ट्र व सरकारें जानती हैं कि यह पीड़ा क्या है। जानती हैं कि बाहरी तत्वों के हाथ हैं। देख रहे हैं कि खोखला इस्राईल मुसलमानों के सामने खड़ा है। इसके बावजूद उसके सामने असहाय हैं।”
इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक ने अरब सरकारों को बारंबार सचेत किया था कि इस्लामी देशों के राष्ट्राध्यक्ष यह समझ लें कि यह षड्यंत्र का जीवाणु जिसे इस्लामी देशों के बीच में बिठाया गया है, केवल फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के दमन के लिए नहीं है बल्कि पूरे मध्यपूर्व के लिए ख़तरा है।
किन्तु खेद की बात है कि इमाम ख़ुमैनी और उनके बाद वरिष्ठ नेता के चेतना को जगाने वाले बयान पर अरब सरकारों के कान पर जूं तक न रेंगी और वे अपने निर्लज्जता भरे मौन के कारण फ़िलिस्तीन के एक एक पीड़ित व दमित बच्चों व बेघर महिलाओं के की हत्या में सहापराधी हैं।
नई टिप्पणी जोड़ें