हज़रत ख़दीजा सलामुल्लाहे अलैहा की तीन वसीयतें
हज़रत ख़दीजा सलामुल्लाहे अलैहा की तीन वसीयतें
जब हज़रत ख़दीजा की बीमारी बढ़ गई तो आपनें पैग़म्बरे अकरम से फ़रमाया कि उनकी वसीयत को सुन लें फिर आपनें फ़रमाया- ऐ रसूले ख़ुदा स. मेरी वसीयत यह है कि मेरी जो कमियां आपके हक़ को अदा करने में रह गईं हैं उनको माफ़ कर दें। पैग़म्बरे अकरम स. नें फ़रमाया- ऐसा बिल्कुल नहीं है मैंने तुम से किसी कमी को नहीं देखा है। तुमनें अपनी पूरी कोशिश और ताक़त रिसालत के अधिकारों के अदा करने में लगा दी है। सबसे ज़्यादा कठिनाइयां तुमनें मेरे साथ उठाईं हैं। अपने सारी दौलत को तुमनें ख़ुदा के रास्ते पर निछावर कर दिया है।
फिर आपनें फ़रमाया मैं आप स. से वसीयत करती हों अपनी बेटी फ़ातिमा स. के बारे में यह मेरे बाद यतीम और अकेली हो जाएगी बस कोई क़ुरैश की औरतों में से उसे परेशान न करे, कोई उसको थप्पड़ न मारे, कोई उसको डांटे नहीं, कोई उसके साथ सख़्ती न करे।
और मेरी तीसरी वसीयत जोकि मैं अपनी बेटी फ़ातिमा से करुँगी कि वह उस को बता दें क्योंकि मुझे आप (स.) के सामने कहते हुए शर्म आती है।
पैग़म्बरे अकरम कमरे से बाहर चले गए उस समय हज़रत ख़दीजा अ. नें हज़रत फ़ातिमा अ. से कहा- ऐ मेरी प्यारी बेटी पैग़म्बरे अकरम स. से कह देना मैं क़ब्र से डरती हूँ मुझे अपनी से चादर से जो आप स. वही के आने के समय ओढ़ते हैं, में कफ़न दें। जब हज़रत फ़ातिमा नें यह बात पैग़म्बर स. को बताई तो आप स. नें जल्दी से वह चादर फ़ातिमा स. को दे दी, उन्होंने अपनी माँ जनाबे ख़दीजा स. को ला कर दी। यह देख कर हज़रत ख़दीजा बहुत ख़ुश हुईं।
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