ब्यूटी और ड्यूटी
ब्यूटी और ड्यूटी
हर इंसान की ज़िन्दगी में उसके ज़रिए निभाई जाने वाली ड्यूटी की बहुत अहमियत होती है। अस्ल में किसी भी ड्यूटी के निभाए जाने का सलीक़ा ही उस इंसान की शख़्सियत की पहचान बन जाता है। एक डॉक्टर जब अपने मरीज़ का इलाज बेहतर तरीक़े से करता है और अपनी ड्यूटी को सही ढंग से निभाता है तो हर इंसान उसकी तारीफ़ करता है। उसकी शोहरत और इज़्ज़त बढ़ती जाती है। यानी उसकी ड्यूटी ही उसकी पहचान बन जाती है।
जब कोई टीचर अपने सब्जेक्ट को पूरी मेहनत और समझदारी के साथ स्टूडेंट्स को पढ़ाता है तो उसका असर क्लास में साफ़ नज़र आता है। बच्चों के बेहतर रिज़ल्ट उनके टीचरों की मेहनत और क़ाबलियत के गवाह बन जाते हैं। इसी तरह हमारे समाज में अलग-अलग पेशे और कामों से जुड़े लोग जैसे वकील, इंजीनियर, राइटर्स, पॉलीटिशियंस और बिज़नेसमैन वग़ैरा जब अफनी ड्यूटी को ईमानदारी, समझदारी और ज़िम्मेदारी के साथ निभाते हैं तो उसका फ़ायदा ख़ुद उनको, उनकी फ़ैमिली, उनकी क़ौम और साथ ही पूरे मुल्क को मिलता है।
इसी का दूसरा रुख़ यही है कि जब कोई इंसान अपनी ड्यूटी को निभाने में लापरवाही, ग़ैरज़िम्मेदारी और बेईमानी से काम लेता है तो उसका निगेटिव इफ़ेक्ट ख़ुद उसकी लाइफ़ और उससे जुड़े तमाम इंसानों और पूरे समाज पर पड़ता है।
किसी भी इंसान की ड्यूटी सिर्फ़ उससे जुड़े पेशे या काम तक ही मेहदूद नहीं होती है। बल्कि माँ-बाप की अपने बच्चों के लिए, बच्चों की अपनी पैरेन्ट्स के लिए, अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए, मुल्क, समाज और दुनिया के लिए पेशे से हटकर भी इंसान की कुछ अहम ड्यूटीज़ होती हैं। उनका निभाया जाना सिर्फ़ ज़रूरी ही नहीं बल्कि कम्पलसरी भी है। अपनी ड्यूटी को सही तरीक़े से निभाया जाना इंसानी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा होने के साथ ज़िन्दगी को बामक़सद भी बनाता है। इंसान की एबिलिटी को उजागर करने में उसकी ड्यूटी बहुत ख़ास रोल निभाती है। यही ड्यूटी उसकी इनर और रियल ब्यूटी को ज़माने के सामने ज़ाहिर करती है। जब इंसान अपनी ब्यूटी को कामयाबी के साथ निभा लेता है तो वह सिर्फ़ दूसरों से ही तारीफ़ और इज़्ज़त नहीं हासिल करता बल्कि ख़ुद अपनी नज़रों में भी उसकी इज़्ज़त बढ़ जाती है जिस्से उसे एक ख़ास तरह का सुकून और ख़ुशी मिलती है। यही फ़ीलिंग उसकी पर्सनाल्टी में निखार और सेल्फ़ कांफ़िडेंस पैदा करती है। यानी किसी भी इंसान की ड्यूटी का उसकी रियल ब्यूटी से बहुत गहरा रिश्ता होता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं किः "इंसान की अहमियत उसके हुनर से होती है।" उन्होंने एक बार इमाम हसन (अ.) से फ़रमाया था किः "तुम ज़िन्दगी में बहुत ज़्यादा मेहनत करो, क्योंकि जो शख़्स किसी चीज़ को हासिल करने की कोशिश करता है तो वह मेहनत से उस चीज़ को मुकम्मल या उसका कुछ हिस्सा हासिल कर ही लेता है।" यहाँ पर हज़रत अली (अ.) हमें बता रहे हैं कि कोशिश और मेहन कभी बेकार नहीं जाती। अपने टारगेट को हो सकता है किसी वजह से हम हासिल न कर सकें लेकिन मेहनत से उस के आसपास तो पहुँच ही सकते हैं। हज़रत अली (अ.) ने सिर्फ़ अपने क़ौलों से ही नहीं बल्कि अपने अमल से भी काम की अहमियत समझाई है। उन्होंने यहूदी के बाग़ में नौकरी करके हमें बताया है कि जॉब छोटी भी हो तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, अगर वह जाएज़ है तो फिर उसे करने में ज़िल्लत महसूस नहीं करनी चाहिए। अस्ल में इज़्ज़त का ताल्लुक़ सिर्फ़ पोस्ट से नहीं होता बल्कि उसके करने के तरीक़े से होता है। मान लीजिए किसी ऑफ़िस में सबसे बड़ी पोस्ट पर काम करने वाला ऑफ़िसर बेईमान और ग़ैर ज़िम्मेदार है, जबकि उसी ऑफ़िस का प्यून अपनी ड्यूटी को पूरी ईमानदारी और ज़िम्मेदारी से निभाता है। अब बताईए कि आपकी नज़र में कौन इज़्ज़तदार है, ऑफ़िसर या प्यून? हज़रत अली (अ.) ने यहूदी के बाग़ में नौकरी करके यह भी साबित कर दिया कि अगर अपनी ड्यूटी को सही तरीक़े से अंजाम देने वालों में से हैं तो ग़ैर भी आपकी सर्विस लेने में पीछे नहीं हटता है।
इंसान का किसी ड्यूटी में इंगेज होना और बिज़ी रहना बहुत ज़रूरी है। ख़ाली दिमाग़ को शैतान का दिमाग़ कहा जाता है, क्यों कि अगर इंसान के पास कोई ख़ास काम नहीं होता है तो वह बेकार और फ़ालतू की चीज़ों में उलझने लगता है। यही वजह है कि बेरोज़गार नौजवान हों या नौकरी से रिटायर होकर ख़ाली बैठने वाले उमर दराज़ लोग तरह-तरह की बीमारियों और मेंटल प्रॉब्लम्स का शिकार होने लगते हैं ऐसे लोगों को डॉक्टर ख़ुद को बिज़ी रखने का मश्वरा देते हैं। आज के इंसान की सोच बड़ी प्रोफ़ेशनल हो गई है। वह अपने हर काम और ड्यूटी को पैसे की तराज़ू में तौलता है। जबकि बहुत सारे काम ऐसे भी होते हैं जो हमें धन-दौलत न भी दें लेकिन ज़ेहनी सुकून और समाज में इज़्ज़त ज़रूर देते हैं। हमारे बैंक एकाउंट का बैलेंस डाउन हो सकता है लेकिन सवाब के एकाउंट का बैलेंस तेज़ी से बढ़ने लगता है। ऐसे कामों में भी हमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए। इस हक़ीक़त को अगर हम सभी समझ लें तो यक़ीन जानिए कोई भी जॉबलेस नहीं हो सकता। सोशल सर्विस एक ऐसा सेक्टर है जिसका दाएरा बहुत वाइड है। अगर उससे जुड़े किसी कारे ख़ैर को हम ख़ुद की ड्यूटीज़ में शामिल कर लें तो हो सकता है कि हमें ज़ाहिरी नफ़ा नज़र न आए लेकिन उससे हक़ीक़ी फ़ाएदे बहुत हैं। 'वर्क इज़ वरशिप' कहा जाना काफ़ी हद तक सही है। अस्ल में हमारी ड्यूटी भी एक तरह की इबादत ही है। हज़रत अली (अ.) ने जब एक शख़्स को अपनी हर ड्यूटी से मुँह मोड़कर मस्जिद में दिन रात अल्लाह की इबादत में बिज़ी देखा तो उसको नापसंद फ़रमाया। उन्होंने उस शख़्स को समझाया कि इस तरह की इबादत को अल्लाह हरगिज़ क़ुबूल नहीं करेगा।
मेहनत
एक सौदागर व्यापार करने के मक़सद से घर से निकला। उसने एक अपाहिज लोमड़ी देखी, जिसके हाथ-पैर नहीं थे, फिर भी तंदरुस्त। सौदागर ने सोचा, यह तो चलने-फिरने से भी मजबूर है, फिर यह खाती कहां से है?
अचानक उसने देखा कि एक शेर, एक जंगली गाय का शिकार करके उसी तरफ़ आ रहा है। वह डर के मारे एक पेड़ पर चढ़ गया। शेर लोमड़ी के क़रीब बैठकर ही अपना शिकार खाने लगा और बचा-खुचा शिकार वहीं छोड़कर चला गया। लोमड़ी आहिस्ता-आहिस्ता खिसकते हुए बचे हुए शिकार की तरफ बढ़ी और बचे कुचे को खाकर अपना पेट भर लिया। सौदागर ने यह माजरा देखकर सोचा कि महान ईश्वर जब इस अपाहिज लोमड़ी को भी बैठे-बिठाए खाना देता है तो फिर मुझे घर से निकल कर दूर-दराज़ जंगलों में ख़ाने के इंतजाम के लिए भटकने की क्या ज़रूरत है? मैं भी घर बैठता हूं, वह वापस चला आया।
कई दिन गुज़र गए लेकिन आमदनी की कोई सूरत नज़र नहीं आई। एक दिन घबराकर बोला-ऐ मेरे मालिक अपाहिज लोमड़ी को तो तूने खाना दिया और मुझे कुछ नहीं।
आखिर ऐसा क्यों? उसे एक आवाज सुनाई दी, 'ऐ नादान हमने तुझको दो चीज़ें दिखाई थीं। एक मोहताज लोमड़ी जो दूसरों के बचे-कुचे पर नज़र रखती है और एक शेर जो मेहनत करके खुद शिकार करता है। तूने मोहताज लोमड़ी बनने की तो कोशिश की, लेकिन बहादुर शेर बनने की कोशिश न की। शेर क्यों नहीं बनते ताकि खुद भी खाओ और दूसरों को भी खिलाओ।' यह सुनकर सौदागर फिर सौदागरी को चल निकला।
हर चीज़ का एक मुनासिब वक़्त और तरीक़ा होता है। जिस तरह अल्लाह की इबादत हम पर वाजिब है उसी तरह अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाना और अपनी हर ड्यूटी को ईमानदारी के साथ पूरा करना भी हम पर लाज़िम है। दुनिया के कामों में इतना खो जाना कि अल्लाह की इबादत के लिए वक़्त ही न मिल सके उसी तरह से ग़ैर शरई और ग़लत है जैसे अपने बाक़ी कामों को भूल कर सिर्फ़ इबादत ही करते रहना। इंसान को अपने हर अमल में बैलेंस रखना बहुत ज़रूरी है। दीन-दुनिया दोनों से जुड़ी अपनी ड्यूटीज़ को जब हम मुनासिब ढंग से अदा करते हैं तो हमें अपनी ओरिजनल ब्यूटी हासिल हो जाती है।
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