तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या) का इल्म और तफ़सीर करने वालों की श्रेणियां
तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या) का इल्म और तफ़सीर करने वालों की श्रेणियां
पैग़म्बरे अकरम (स) की वफ़ात के बाद कुछ सहाबी जैसे ऊबई बिन काब, अब्दुल्लाह बिन मसऊद, जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी, अबू सईद ख़िदरी, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर, अनस बिन मालिक, अबू हुरैरा, अबू मूसा, और सबसे मशहूर अब्दुल्लाह बिन अब्बास क़ुरआन की तफ़सीर में व्यस्त थे।
पहली श्रेणीः सहाबियों की तफ़सीर
तफ़सीर में उनकी कार्य शैली यह थी कि कभी कभी क़ुरआन की आयतों के अर्थ से सम्बंधित जो कुछ उन्होने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सुना था कि उस को रिवायत और हदीस के रूप में बयान किया करते थे। यह हदीसें क़ुरआन के शुरु से लेकर आख़िर तक लगभग 240 से ज़्यादा हैं। जिन में से बहुत सी ग़ैर मुसतनद (वह हदीसें जिनका पैग़म्बर से होने में संदेह है) और ज़ईफ़ हदीसें भी शामिल हैं और कुछ हदीसों को स्वीकार करना संभव नही है और कभी कभी आयतों की तफ़सीर के सम्बंध में (एकाकी तौर पर) विचार व्यक्त किया गया है बग़ैर इसके कि उस हदीस को पैग़म्बरे इस्लाम की तरफ़ निसबत दी जाए। इस प्रकार अपने ज़ाती विचारों को मुसलमानों पर ठूँसा गया है।
पुराने मुफ़स्सिर और उलामा इस प्रकार की रिवायतों और हदीसों को तफ़सीर में पैग़म्बर की हदीसों में शुमार करते थे क्योकि (उनके अनुसार) सहाबा ने क़ुरआने मजीद के इल्म को ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सीखा था और यह संभव नहीं है कि ख़ुद उन्होने उस में कमी बेशी की हो।
लेकिन इस विचारे के सही होने के सम्बंध में कोई प्रमाणिक्ता नहीं है इस के अलावा बहुत ज़्यादा ऐसी रिवायतें भी हैं जो आयतों के असबाबे नुज़ूल (आयतों के उतरने का कारण) और तारीख़ी क़िस्सों में अगर से घुसेड़ी गई हैं, जब्कि पैग़म्बर ने इस प्रकार की कोई हदीस नहीं फ़रमाई थी, और इसी प्रकार ऐसा भी है कि बहुत से यहूदी ज्ञानी जो मुसलमान हो गए थे जैसे काबुल अहबार वग़ैरह ने बिना पैग़म्बर की तरफ़ निसबत दिए बहुत सी हदीसों को क़ुरआन की तफ़्सीर में घुसाया है, जिनके सही होने में संदेह है।
इसी तरह इब्ने अब्बास अधिकतर आयतों के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये शेरों से मिसालें लाते थे जैसा कि नाफ़ेअ बिन अरज़क़ के सवालात के जवाबात में इब्ने अब्बास से एक रिवायत में आया है कि उन्होने 200 से ज़्यादा सवालात के जवाब में अरबी शेरों से मिसाल देते हैं और सुयूती अपनी किताब अल इतक़ान में 190 सवालात लाये हैं। इसी तरह ऐसी रिवायतें और हदीसें जो मुफ़स्सेरीन सहाबा से हम तक पहुची हैं उन को अहादीसे नबवी में शामिल नही किया जा सकता और उन में सहाबा की नज़री मुदाख़ेलत की नफ़ी भी नही की जा सकती है। लिहाज़ा मुफ़स्सेरीन सहाबा पहले तबक़े में आते हैं।
दूसरी श्रेणीः ताबेईन
दूसरा तबक़ा: दूसरा तबक़ा ताबेईन का है जो मुफ़स्सेरीन सहाबा के शागिर्दों में से हैं जैसे मुजाहिद, सईद बिन जुबैर, इकरमा, ज़हाक और इसी तबक़े के दूसरे मुफ़स्सेरीन जैसे हसन बसरी, अता बिन अबी रियाह, अता बिन अबी मुस्लिम, अबुल आलिया, मुहम्मद बिन काब क़रज़ी, क़तादा, अतिया, ज़ैद बिन अस्लम और ताऊस यमानी वग़ैरह।
तीसरी श्रेणीः तबए ताबईन
तीसरा तबक़ा: तीसरा तबक़ा दूसरे तबक़े शागिर्दों पर मबनी है जैसे रबी बिन अनस, अब्दुल रहमान बिन ज़ैद बिन असलम, अबू सालेह कलबी वग़ैरह, तफ़सीर में ताबेईन की कार्य शैली यह थी कि आयतों की तफ़सीर को भी पैग़म्बरे अकरम (स) से डायरेक्ट या सहाबा से नक़्ल करते हैं और कभी आयतों के अर्थ को बग़ैर किसी से मंसूब किये लिख देते थे। वह अपने विचारों पर ऐतेराज़ करते थे बाद के मुफ़स्सेरीन ने उन कथनों को अहादीसे नबवी में दर्ज किया। ऐसी रिवायात व अहादीस को मौक़ूफ़ा कहते हैं। क़दीम मुफ़स्सेरीन उन्ही दो तबक़ो पर मुशतमिल हैं।
चौथी श्रेणी
चौथा तबक़ा: यह तबक़ा पहले तबक़े के मुफ़्सेरीन की तरह है जैसे सुफ़ायन बिन ओनैया, वकी बिन जर्राह, शोअबा बिन हुज्जाज, अब्द बिन हमीद वग़ैरह और मशहूर मुफ़स्सिर इब्ने जरीर तबरी इसी तबक़े से ताअल्लुक़ रखते हैं।
इस गिरोह की शैली में भी ऐसा था कि सहाबा और ताबेईन के कथनों को रिवायात की सूरत में अपनी पुस्तकों में दाख़िल कर लेते थे लेकिन अपने विचार नहीं व्यक्त किया करते थे। उन में से सिवाए इब्ने जरीरे तबरी के जो अपनी तफ़सीर में कभी कभी कथनों में से बाज़ को प्राथमिक्ता देते थे और उस पर विचार व्यक्ति किया करते थे। मुतअख़्ख़िर तबक़ा उन ही में से शुरु होता है।
पांचवी श्रेणी
पाँचवा तबक़ा: इस गिरोह में ऐसे लोग शामिल हैं जो हदीसों व रिवायतों को सनद के बग़ैर ही अपनी पुस्तकों में दर्ज कर लेते थे और केवल कथनों को लिखा करते थे।
कुछ उलामा का कथन है कि तफ़सीर की तरतीब और तंज़ीम में गड़बड़ यहीं से शुरु हुई है और उन तफ़सीरों में बहुत ज़्यादा कथन बिना किसी सनद और सत्यता दाख़िल हो गये हैं और सनद के सही होने का आधार उनका सहाबा और ताबेईन से मंसूब होना है। इस गड़बड़ी के कारण बहुत ज़्यादा कथन तफ़सीरों में दाख़िल हो गये हैं जिस के कारण कथनों की सत्यता और सनद मुतज़लज़ल हो कर रह गई है।
लेकिन अगर कोई शख़्स रिवायते मुअनअन (इंतेसाबी) पर ग़ौर व फ़िक्र करे तो कोई शक एवं संदेह नही रह जाएगा कि इन रिवायतों और दहीसों में बनावटी (जाली हदीसें) बहुत ज़्यादा हैं। समर्थक और विरोधी दोनों प्रकार के कथन एक सहाबी या ताबेई से मंसूब किये गये हैं और ऐसे क़िस्से और कहानियां जो बिल्कुल झूठी हैं, इन रिवायतों में बहुत ज़्यादा देखी जा सकती हैं। आयतों के असबाबे नुज़ूल और नासिख़ व मंसूख़ के बारे में वह रिवायतें जो क़ुरआनी आयतों के सियाक़ व सबाक़ के अनुसार नही हैं। इस प्रकार की रिवायतें एक दो नहीं हैं जिनसे चश्म पोशी की जा सके। यहाँ तक कि इमाम अहमद बिन हंबल (जो ख़ुद इस तबक़े के वुजूद में आने से पहले थे) ने फ़रमाया है कि तीन चीज़ों का कोई आधार नहीं है।
(1) लड़ाई
(2) जंगें
(3) तफ़सीरी रिवायतें।
इसी प्रकार इमाम शाफ़ेई का बयान है कि इब्ने अब्बास से मरवी हदीसों में से सिर्फ़ 100 हदीसों की सत्यता साबित है।
छठी श्रेणी
छठा तबक़ा: इस जमाअत में ऐसे मुफ़स्सेरीन शामिल हैं जो विभिन्न प्रकार के ज्ञान के पैदा होने और तरक़्क़ी के बाद पैदा हुए हैं और हर इल्म के माहिर ने अपने विशेष अंदाज़ के अनुसार क़ुरआन की तफ़सीर शुरु की। इल्मे नहव के माहेरीन ने नहव के ज़रिये जैसे ज़ुजाज़, वाहिदी और अबी हय्यान जिन्होने क़ुरआनी आयात पर ऐराब लगाने के मौज़ू पर बहस की है, फ़साहत व बलाग़त के मौज़ू पर अल्लामा ज़मख़शरी ने अपनी किताब अल कश्शाफ़ में इज़हारे ख़्याल किया है। इल्मे कलाम के माहेरीन ने इल्मे कलाम के ज़रिये अपनी किताब की वज़ाहत की है जैसे इमाम फ़ख़रुद्दीन राज़ी ने तफ़सीरे कबीर में, आरिफ़ों मे इरफ़ान के ज़रिये जैसे इब्ने अरबी और इब्ने रज़्ज़ाक़े काशी ने अपनी अपनी तफ़सीरों में, इल्मे अख़बार (हदीस) के आलिमों के अख़बार (अहादीस व रिवायात) नक़्ल कर के जैसे सालबी ने अपनी तफ़सीर में, फ़क़ीहों ने फ़िक़ह के वसीले से जैसे क़ुरतुबी और बाज़ दूसरे हज़रात ने भी मख़लूत तफ़सीरें, उलूमे मुतफ़र्रेक़ा के बाब में लिखी हैं जैसे तफ़सीरे रुहुल बयान, तफ़सीरे रुहुल मआनी और तफ़सीरे नैशा पुरी वग़ैरह।
आलिमे तफ़सीर के लिये इस गुट की सेवा यह है कि तफ़सीर उस एकरूपता और ठहराव की हालत से बाहर आ गया जो पहली पाँचों श्रेणियों में पाया जाता था और इस तरह एक नये मरहले में दाख़िल हो गया जो बहस व अध्ययन का मरहला था। अगर कोई शख़्स इन्साफ़ की निगाह से देखे तो मालूम होगा कि इस तबक़े की तफ़सीरी बहसों में इल्मी नज़रियात को क़ुरआन पर ठूँसने की कोशिश की गई है लेकिन ख़ुद क़ुरआनी आयात पर उन मज़ामीन के लिहाज़ से बहस नही हुई है।
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