क्रोध को पी जाने वाले इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का शहादत दिवस

क्रोध को पी जाने वाले इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का शहादत दिवस

ईश्वरीय धर्म इस्लाम के संदेशों को लोगों तक पहुंचाना पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की एक विशेषता रही है। उनमें से सबने अपने समय में लोगों का मार्गदर्शन करने और मनुष्यों को ज्ञान एवं परिपूर्णता के शिखर पर पहुंचाने में सहायता की है।

ये महान हस्तियां अपने आध्यात्मिक सदाचरण से लोगों के हृदयों पर शासन करती थीं। आज २५ रजब हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत का दुःखद अवसर है। इस दुःखद अवसर पर हम आप सबकी सेवा में हार्दिक संवेदना प्रस्तुत करते हैं और आज हम इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के जीवन के कुछ आयामों की चर्चा करेंगे।

ज़ैद नाम का एक व्यक्ति काफी दूर से पवित्र नगर मदीना आया था। वह इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के दर्शन के शौक में डूबा हुआ था। उसने सुन रखा था कि इमाम मस्जिदुन्नबी में बहुत आते हैं और उस पवित्र स्थान पर नमाज़ पढ़ते हैं। ज़ैद बड़ी उत्सुकता के साथ मस्जिद गया। यह पहली बार था जब वह इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का दर्शन निकट से करना चाह रहा था। जब वह मस्जिद पहुंचा तो उन निशानियों के माध्यम से उसने इमाम को पहचान लिया जो उसे पहले से ज्ञात थीं। उसने देखा कि इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम बहुत ही शांत भाव से मस्जिदुन्नबी के किनारे नमाज़ पढ़ने एवं ईश्वर की उपासना में लीन हैं उसने आगे जाना चाहा कि लोगों के शोर की आवाज़ सुनाई दी। अत्याचारी अब्बासी ख़लीफा हारून के कारिन्दों ने इमाम को गिरफ्तार करने के लिए मस्जिद पर आक्रमण कर दिया था ताकि वह इमाम को गिरफ्तार करके बग़दाद ले जायें। ज़ैद ने इमाम को देखा तो वह विशेष शांत भाव के साथ नमाज़ पढ़ने में लीन रहे। इसके बाद उसने लोगों को देखा और लोगों के उस समूह से जा मिला जो मामून के कारिन्दों के मुकाबले में खड़े हो गया था ताकि वह इमाम को बग़दाद ले जाने के मार्ग में रुकावट बन जाये परंतु मामून के कारिन्दों ने बड़े दुस्साहस एवं हिंसा के साथ लोगों को तितर- बितर किया और जब इमाम की नमाज़ पूरी हो गयी तो उन्हें अपने साथ ले गये। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों के लिए इस दुस्साहस को सहन करना बहुत कठिन था। ज़ैद लोगों के मध्य चिल्लाया कि इस प्रकार का अत्याचार क्यों कर रहे हो? मैं बहुत दूर से इमाम को देखने के लिए यहां आया हूं। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की स्नेह व प्रेमपूर्ण दृष्टि ज़ैद पर पड़ी। इमाम अपने श्रृद्धालुओं व चाहने वालों के लिए बहुत दुःखी व चिंतत थे। ज़ैद रो रहा था वह स्वंय से कह रहा था काश थोड़ी देर इमाम के पास होता और उनके महान अस्तित्व से लाभान्वित होता”

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने लोगों से धैर्य व शांति बनाये रखने की अपील की और मामून के कारिन्दे ज़बरदस्ती इमाम को बग़दाद ले गये और वहां उन्हें कारावास में डाल दिया गया। जेल की कठिनाइयों को सहन करने में इमाम के धैर्य व प्रतिरोध ने भी अत्याचारी अब्बासी शासकों को हतप्रभ कर दिया और उन्होंने इमाम को शहीद कर देने को ही लोगों के मध्य उनके आध्यात्मिक प्रभाव से मुकाबले का एकमात्र मार्ग समझा।

जब बग़दाद में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत का समाचार फैला तो एक बूढ़ा व्यक्ति इमाम के घर आया और वह बहुत रोया। जब उससे इस तरह रोने का कारण पूछा गया तो उसने एक घटना सुनाई। उसने कहा कि एक बार उसकी पूरी खेती बर्बाद हो गयी थी उसमें से कुछ भी नहीं बचा था। बूढे व्यक्ति ने, जो अपने दुःख पर नियंत्रण पाने का प्रयास कर रहा था, कहा। मैंने वर्षों तक प्रतिष्ठा का जीवन बिताया और लोगों के सामने हाथ नहीं फैलाना चाहता था परंतु नहीं जानता था कि अपने ऋण को किस प्रकार वापस करूंगा। उस समय इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम मेरा और मेरी पत्नी का हालचाल पूछने तथा सहानुभूति व्यक्त करने के लिए मेरे पास आये। उन्होंने मुझसे पूछा तुमको कितने का नुकसान हुआ है? मैंने कहा १२० दीनार का। उसके बाद इमाम ने बड़े स्नेह व प्रेम के साथ १५० दीनार की एक थैली मुझे प्रदान की। इमाम की प्रेमपूर्ण दृष्टि जो हर प्रकार के अंहकार और एहसान जताने से दूर थी, मेरे हृदय में बैठ गयी। मैंने बड़े उत्साह के साथ इमाम से हाथ मिलाया। यद्यपि मैं बहुत शर्मिन्दा था परंतु मैंने इमाम की वित्तीय सहायता स्वीकार कर ली और इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने मुझसे कहा कि कभी भी ईश्वर की दया व कृपा से निराश न हो। इस समय मैं इस कारण रो रहा हूं कि हमारे बीच से महान वह हस्ती चली गयी है जिसकी विनम्रता एवं प्रेमपूर्ण स्वभाव उसके सदाचरण का आभूषण था और उसके मन में परेशान व दुःखी एवं दरिद्र लोगों की सहायता विशेष स्थान व महत्व रखती थी।

काज़िम का अर्थ क्रोध को पी जाने और उस पर नियंत्रण करने वाला होता है और यह इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम की एक उपाधि थी। हज़रत मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने ईश्वरीय शिक्षाओं के प्रचार- प्रसार के लिए वर्षों का समय निष्कासन और कारावास में बिताया। हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने पिता हज़रत इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम की ज्ञान की सभाओं में भाग लेते थे। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम जाफरे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने एक बड़े शिक्षा केन्द्र की स्थापना की थी जिसमें इस्लामी जगत के विभिन्न क्षेत्रों के लगभग ४ हज़ार शिष्य शिक्षा ग्रहण करने आते थे और वहां आयोजित होने वाले ज्ञान की सभाओं में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम भी भाग लेने कर अपने पिता की पवित्रता, बहादुरी और न्यायप्रेम जैसी विशेषताओं से लाभान्वित होते थे। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का जीवन छोटी बड़ी घटनाओं से भरा पड़ा है जिनसे हमें महत्वपूर्ण सीख मिलती है। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के समक्ष अब्बासी शासकों ने जो सीमाएं व बाधाएं उत्पन्न कर रखी थीं उसके बावजूद इमाम ने लोगों के मार्ग दर्शन में अपनी ज़िम्मेदारी के निर्वाह में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं लिया ताकि ईश्वरीय शिक्षाएं हर प्रकार की दिग्भ्रमिता से सुरक्षित रहें। इमाम काज़िम अलैहिस्सम ने अपने काल में इस्लामी संस्कृति की हदीस और पवित्र क़ुरआन से जो व्याख्या की उससे यह संस्कृति अधिक समृद्ध हो गयी।

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम मुसलमानों यहां तक कि समस्त मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करते थे। इस संबंध में आप कहते हैं” विद्वानों की संगोष्ठी में भाग लिया करो और उनसे निकट रहो यहां तक जगह कम होने के कारण तुम्हें पंजों के बल क्यों न खड़ा होना पड़े। क्योंकि ईश्वर मरे हुए दिलों को ज्ञान व तत्वदर्शिता से जीवित करता है जिस तरह से वह मुर्दा ज़मीन को वर्षा के माध्यम से जीवित करता है”

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम विद्वानों की संगोष्ठियों में बैठने की सिफारिश के साथ लोगों को पथभ्रष्ठ लोगों के साथ बैठने से मना भी करते थे। इस संदर्भ में एक कहानी में आया है” अब्दुर्रहमान बिन याक़ूब इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का एक विरोधी था और वह इमाम के विश्वासों व आस्थाओं से मुकाबले के लिए बैठकें भी आयोजित करवाता था। जाफर नाम का उसका एक भांजा था जो इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम का अनुयाई व चाहने वाला था। एक दिन इमाम ने जाफर को संबोधित करके कहा हे” जाफर अब्दुर्रहमान बिन याक़ूब की सभा में क्यों जाते हो? जाफर ने उत्तर में कहा वह मेरा मामू है और मैं कभी कभी उससे मिलने के लिए जाता हूं। इस पर इमाम ने कहा किन्तु उसके विचार भ्रष्ठ हैं और ईश्वर के बारे में अशोभनीय बातें करता है तुम उसके साथ उठो बैठो या हमारे साथ”

जाफर ने इमाम के उत्तर में कहा हां उसके विश्वास गलत व भ्रष्ठ हैं किन्तु मैं उसके विश्वासों से सहमत नहीं हूं। इस प्रकार के उठने बैठने से क्या नुकसान है? इमाम ने उत्तर में कहा” भाई मनुष्य कभी भी दिग्भ्रमित लोगों के साथ उठने बैठने से पथभ्रष्ठ होने के खतरे से सुरक्षित नहीं है क्या उस व्यक्ति की कहानी नहीं सुने हो जो हज़रत मूसा का अनुयाई था जबकि उसका बाप फिरऔन का अनुयाई था। जब मूसा की क़ौम व जाति नदी पार कर गयी और मूसा का अनुयाई, जो अपने दिग्भ्रमित पिता को देखने के लिए गया था, फिरऔन की सेना के साथ नदी में डूब गया। जैसे ही यह खबर मूसा को मिली उन्होंने कहा ईश्वर उस पर दया करे उसकी आस्था उसके पिता की आस्था से भिन्न थी परंतु जब भ्रष्ठ लोगों पर प्रकोप आता है तो जो भी उनके साथ होगा वह स्वयं की रक्षा नहीं कर सकता है”

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने लगभग ३५ वर्षों तक लोगों का मार्गदर्शन किया और इसमें से अधिकांश समय जेल में रहे और उन्हें उनकी मातृभूमि से दूर रखा गया। ये परिस्थितियां इस बात की सूचक हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के प्रति अब्बासी शासकों की ओर से की जाने वाली कड़ाई में असाधारण वृद्धि हो गयी थी। जिस चीज़ ने इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम को मौजूदा परिस्थिति के विरुद्ध आवाज़ उठाने पर बाध्य किया वह इस्लामी समाज में भ्रष्ठ राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था थी। एसी परिस्थिति में इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम ने लोगों की राजनीतिक और सामाजिक जानकारी में वृद्धि की और अब्बासी शासकों के व्यवहार को इस्लामी मूल्यों के विरुद्ध बताया। अब्बासी खलीफा हारून नहीं चाहता था कि लोग इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के ज्ञान के अथाह सागर से लाभ उठायें इसलिए वह इमाम के साथ बहुत कठोर बर्ताव करता था।

इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम महान ईश्वर की उपासना व सामिप्य के लिए हर अवसर से लाभ उठाते थे। इमाम कठिनाइयों में धैर्य एवं नमाज़ से काम लेते थे और प्रत्येक दशा में महान ईश्वर का आभार व्यक्त करते थे। बसरा नगर का जेलर ईसा बिन जाफर कहता है” मैंने मूसा काज़िम पर हर पहलु से कड़ी दृष्टि रखने का बहुत प्रयास किया यहां तक कि धीरे से उनकी दुआओं को भी सुनता था परंतु वह ईश्वर से दया और क्षमा मांगते थे और इस वाक्य को बहुत दोहराते थे कि हे ईश्वर तू जानता है कि मैं तेरी उपासना के लिए एकान्त चाहता था और तूने मेरे लिए वह स्थान उपलब्ध कर दिया है इसके लिए मैं तेरा आभार करता हूं”

इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को जिस अंतिम जेल में रखा गया उसका जेलर सनदी बिन शाहिक नाम का बड़ा कठोर व निर्दयी व्यक्ति था। उसने इमाम को बहुत यातनाएं दीं और अंततः अब्बासी शासक मामून के एक षडयंत्र में इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम को विष दे दिया गया और उसके तीन दिन बाद ५५ वर्ष की आयु में १८३ हिजरी क़मरी को इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम शहीद हो गये। सलाम हो इमाम मूसा काजिम अलैहिस्सलाम पर जिनके धैर्य व प्रतिरोध ने शत्रुओं को घुटने टेकने पर विवश कर दिया।

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