माता पिता के साथ अच्छा व्यवहार

माता पिता के साथ अच्छा व्यवहार

लगभग बीस साल पहले मशहदे मुक़द्दस के एक सफ़र में मुझे बुज़ुर्ग आलिमे दीन हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन जनाब सय्यद जवाद ख़ामेनाई (इस्लामी इन्क़ेलाब के सुप्रीम लीडर हज़रत आयतुल्लाह खामेनाई के पिता) से मुलाक़ात का अवसर मिला जिस घर में यह बुज़ुर्ग आलिमे दीन ज़िन्दगी गुज़ारते थे वह बहुत ही पुराना और साधारण था।

उस घर में रोज़ाना राम आने वाली चीज़ें भी बहुत कम थीं। मैं यह सब देख कर दंग रह गया कि यह महान हस्ती इसके बावुजूद कि इतने होनहार बेटों के बाप हैं जिनमें से एक ईरान के राष्ट्रपति भी है और दूसरे बेटे भी अपनी अपनी जगह पर ऊँचा स्थान रखते हैं फिर भी इतनी सादगी से एक छोटे और साधारण मकान में थोड़ी सी आवश्यक चीज़ों के साथ ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं और इससे अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि यह दोनों बूढ़े पति-पत्नी बग़ैर किसी नौकरानी के ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे और मेहमान नवाज़ी (हॉस्पिटेलिटी) का यह हाल था कि मैं उनकी मेहमान नवाज़ी से शर्मिन्दा हुए बिना नहीं रह सका कि मैंने उन बुज़ुर्गों को इतने कष्ट में डाल दिया है। मुख्य रूप से उस समय जब मैंने देखा कि उनकी पत्नी बुढ़ापे के बावजूद भी चाय-नाश्ते की ट्रे को लिये हुए बार-बार ज़ीने से ऊपर नीचे आ-जा रहीं थीं ताकि मेहमान नवाज़ी में कोई कमी न होने पाये। बहर हाल मुझे उन लोगों के साधारण जीवन ने आश्चर्य में डाल दिया।

अल्बत्ता मैंने पहले ही से हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन जनाब सय्यद जवाद ख़ामेनाई की सादी ज़िन्दगी के बारे में सुन रखा था लेकिन जब मुझे ख़ुद अपनी आँखों से यह सब देखने का अवसर मिला कि आप ताक़त के बावुजूद कितनी साधारण ज़िन्दगी गुज़ार रहें हैं तो यह मेरे लिये एक पाठ से कम नहीं था। इस मुलाक़ात में उन्होनें मुझे सलाह दी कि जब भी इमाम रज़ा अ. की ज़ियारत को जाऊँ तो कोशिश करूँ कि ज़ियारते जामेआ पढ़ना न भूलूँ और इस बात पर भी ध्यान रखूँ कि ज़ाएरों (तीर्थयात्री) में से कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है जो इमाम की कृपा से फ़ायदा उठाए बिना रह जाए।

 

यहाँ पर आवश्यक है कि सुप्रीम लीडर की ज़ुबानी उन्ही की एक यादगार को बयान करूँ जो आपने अख़लाक़ (नैतिकता) के क्लास में माँ-बाप के साथ नेकी के सिलसिले में बयान फ़रमायाः मैंने इस दुनिया में जो भी मक़ाम पाया है वह माँ-बाप के साथ नेकी का नतीजा है। मेरे स्वर्गीय अब्बा जी बुढ़ापे में इस दुनिया से कूच करने से लगभग बीस साल पहले जब उनकी आयु सत्तर साल थी, उन्हें मोतिया बिन्द की बीमारी हो गई उस समय मैं क़ुम में था। अब्बा जी के जो ख़त मेरे पास आते थे उनसे मुझे मालूम हुआ कि आपको देखने में परेशानी हो रही है, मैं मशहद आया तो देखा कि आपको इलाज की ज़रूरत है मैंने कुछ दिन तक उनका इलाज करवाया और क़ुम वापस आ गया क्योंकि मैं उस समय क़ुम में पढ़ाई कर रहा था। जब छुट्टियाँ हुईं तो मैं दोबारा मशहद गया और जितना अवसर मिला आपकी सेवा की और क़ुम वापस आ गया लेकिन मेरे अब्बा जी को इलाज से कोई फ़ाएदा नहीं हो रहा था इसलिये सन् 1961 में अब्बा जी को इलाज के लिये तेहरान ले कर आया क्योंकि मशहद में इलाज से कोई फ़ाएदा नहीं हो रहा था। मैं इस उम्मीद में था कि तेहरान के डाक्टर अब्बा को ठीक कर देंगे मैं कई डाक्टरों के पास गया लेकिन मायूसी ही हाथ लगी। डाक्टरों का कहना था कि आपकी दोनों आँखे ख़राब हो गयी हैं और अब इलाज से कोई फ़ाएदा नहीं है अल्बत्ता 2-3 साल बाद आपकी एक आँख इलाज से ठीक हो गयी और आख़िर उम्र तक उसमें रौशनी बाक़ी रही लेकिन उस वक़्त दोनों ही आँखों से आप नहीं देख पाते थे इस लिये मैं उनका हाथ पकड़ कर ले जाता था इस लिये मैं फ़िक्रमंद था कि अगर अब्बा जी को छोड़ कर क़ुम लौट जाऊँ तो आप बिल्कुल ही एकांत का शिकार हो जाएंगे और कोई भी काम नहीं कर पाएंगे यह मामला मेरे लिये बहुत ही सख़्त था क्योंकि मेरे अब्बा जी दूसरे भाइयों के मुक़ाबले मुझसे ज़्यादा क़रीब थे और मेरे ही साथ डाक्टर के पास जाते थे मैं जब भी आपके पास बैठता था तो आपके लिये किताब पढ़ता था और आपके साथ इल्मी बहेस भी करता था यही वजह थी कि वह मुझसे ज़्यादा क़रीब थे जबकि मेरे दूसरे भाई बिज़ी होने की वजह से ऐसा नहीं कर पाते थे।

बहेरहाल मैंने इस बात का आभास किया कि अगर मैं अब्बा जी को तन्हा मशहद में छोड़ कर क़ुम वापस आ जाऊँ तो अब्बा जी अकेले पड़ जाएंगे और कोई काम नहीं कर पाएंगे यह बात अब्बा जी के लिये सख़्त थी और मेरे लिये भी टेंशन की वजह थी दूसरी ओर अगर मैं अब्बा जी के साथ मशहद में रुकता और क़ुम छोड़ देता तो इसे भी में सहन नहीं कर सकता था क्योंकि क़ुम से मुझे बहुत लगाव था और मैंने तय कर लिया था कि आख़िर उम्र तक क़ुम में रुकुँगा और कहीं नहीं जाउँगा।

 

उस समय के कुछ टीचर जिनसे मैं पढ़ रहा था उनका भी यही ख़्याल था वह कहते थे कि अगर तुम क़ुम में रुकोगे तो फ़्युचर के लिये फ़ायदेमंद रहेगा और ख़ुद मैं भी यही चाहता था कि क़ुम में रहूँ। मैं एक दोराहे पर खड़ा था यह उस समय की बात है जब मैं तेहरान में अब्बा जी के इलाज के सिलसिले में था वह दिन मेरे ऊपर बहुत ही सख़्त गुज़र रहे थे। एक दिन मैं बहुत ही टेंशन में था और सोच रहा था कि क्या करूँ अल्बत्ता मेरे ज़्यादा इरादा यही था कि उनको मशहद ले जाऊँ और वहाँ छोड़ कर क़ुम पलट आऊँ लेकिन चूँकि इस काम को मैं सहन नहीं कर पा रहा था, इसी लिये मैं अपने एक दोस्त के घर, जिसका घर तेहरान में था, गया। वह बहुत ही समझदार और अच्छे अख़लाक़ के इन्सान थे मैं उनके घर गया और उनको सारे हालात से अवगत किया और बताया कि मैं बहुत परेशान हूँ कि मैं अपने अब्बा जी को इस हाल में अकेला नहीं छोड़ सकता हूँ और उनके साथ रह भी नहीं सकता हूँ क्योंकि मैं अपनी दुनिया और आख़िरत दोनों को क़ुम में देखता हूँ अगर मैं दुनिया वाला हूँ तो मेरी दुनिया क़ुम में है और अगर आख़िरत वाला हूँ तो मेरी आख़िरत भी क़ुम में है, मैं दुनिया और आख़ेरत दोनों को छोड़ूँ ताकि अब्बा जी के साथ मशहद में रह सकूँ। मेरे दोस्त ने थोड़ा सोचा और कहाः तुम एक काम करो कि ख़ुदा के लिये क़ुम को छोड़ दो और मशहद में रुक जाओ, ख़ुदा तुम्हारी दुनिया और आख़िरत दोनों को क़ुम से मशहद में बदल सकता है। मैंने थोड़ा सोचा और देखा कि वह बात सही कह रहे हैं ख़ुदा से मामला किया जा सकता है। मैं सोचता था कि दुनिया और आख़िरत दोनों ही क़ुम में हैं मैं क़ुम को पसंद भी करता था और क़ुम के हौज़े (मदरसे) से मेरा लगाव भी था और जिस कमरे में मैं रहता था उससे भी मुझे बहुत ही लगाव हो गया था क्योंकि मुझे लगता था कि मेरी दुनिया और आख़िरत दोनों क़ुम में हैं।

मैंने देखा कि मेरे दोस्त की बात सही है ख़ुदा के लिये मैं अपने अब्बा जी को मशहद ले जाऊँ और उनके पास रुक जाऊँ और ख़ुदा वन्दे आलम भी अगर इरादा कर ले तो मेरी दुनिया और आख़िरत दोनों को क़ुम से मशहद ले आए। मैंने तय कर लिया कि यही करुँगा। मेरा दिल ख़ुशी झूम उठा और मैं पूरी तरह से संतुष्ट हो गया इसी ख़ुशहाली की हालत में मैं घर पलट आया। मेरे माँ-बाप जो कुच दिन से मुझे परेशान देख रहे थे मेरी इस ख़ुशी को देख कर आश्चर्य में पड़ गये मैंने उनसे कहा कि मैंने इरादा कर लिया है कि मैं मशहद में आ जाऊँ। उन लोगों को पहले यक़ीन नहीं आया क्योंकि वह समझते थे कि मैं क़ुम नहीं छोड़ सकता हूँ। ख़ुलासा यह कि मैं मशहद आ गया और ख़ुदा वन्दे आलम ने मुझे बहुत ज़्यादा तौफ़ीक़ (अनुकंपा) दी कि मैं अपनी ज़िम्मेदारियों पर अमल कर सकूँ।

मुझे लगता है कि मैंने जो मक़ाम और पद भी इस दुनिया में पाया वह सिर्फ़ अपने माँ-बाप की सेवा का नतीजा है। इस क़िस्से को मैंने इस लिये बयान किया ताकि आप ध्यान दें कि ख़ुदा के निकट यह बात (माँ-बाप के साथ नेकी) कितनी अहमियत रखती है।

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(मासिक पत्रिका बशारत, नं. 4 पेज 8)

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