हुकूमत के बारे में अमीरुल मोमिनीन (अ) के विचार
हुकूमत के बारे में अमीरुल मोमिनीन (अ) के विचार
इस्लाम के उदय के आरंभ के कुछ दशकों और उस काल की उतार-चढ़ाव भरी घटनाओं पर दृष्टि, हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसे महान व्यक्ति की प्रभावी भूमिका स्पष्ट करती है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम बचपन में इस्लाम की प्रकाशमई शिक्षाओं से अवगत हुए और पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल्ल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर ईमान के साथ उन्होंने ईश्वर के ज्ञान की वर्षा से अपने शरीर तथा आत्मा को तृप्त किया।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल्ल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की छत्रछाया में हज़रत अली ने इस प्रकार प्रशिक्षण पाया कि गूढ ईश्वरीय शिक्षाओं के महान भण्डारों के साथ वे सदा ही असत्य के मुक़ाबले में अग्रणी रहे और सच्चे धर्म को प्रचारित करने के मार्ग में वे किसी भी प्रकार के बलिदान से पीछे नहीं हटते थे। वर्षों तक मक्का और मदीना में पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल्ल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के स्वर्गवास तक पैग़म्बर की सेवा में उनकी उपस्थिति, अन्तिम ईश्वरीय दूत के लिए उनके निष्टापूर्ण प्रयासों की परिचायक है।
पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पश्चात हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी प्रतिबद्धताओं के कारण पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं से प्रेरणा लेते हुए सत्य को लागू करने और पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को व्यवहारिक बनाने के अतिरिक्त कोई अन्य विचार अपने मन में आने ही नहीं दिया। इसीलिए सत्य की स्थापना और धार्मिक सरकार का लागू करना उनके कार्यक्रमों में सर्वोपरि था।
यद्यपि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पश्चात की घटनाएं और उनके उत्तराधिकारी के निर्धारण के संबन्ध में जो कुरीतियां सामने आईं उन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को २५ वर्षों तक सत्ता से दूर रखा किंतु चार वर्ष तथा कुछ महीनों के उनके सत्ताकाल के दौरान उनकी ओर से प्रस्तुत किये गए दृष्टिकोणों ने सरकार के संबन्ध में धार्मिक विचारों में नया आदर्श प्रस्तुत किया। इमाम अली के प्रकाशमई विचारों में सरकार के विषय को अति विशेष महत्व प्राप्त है।
जैसाकि आप जानते हैं कि सत्ता तक पहुंचने के मार्गों के संबन्ध में राजनीतिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण पाए जाते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सत्ता की प्राप्ति को हरसंभव मार्ग से वैध समझते हैं चाहे उसके लिए कोई भी मार्ग क्यों न अपनाना पड़ें। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजनीति का नैतिक आधार नहीं है और राजनेता का उद्देश्य, केवल सत्ता तक पहुंच और समाज पर नियंत्रण है।
इसी के मुक़ाबले में मानवीय मूल्यों के आधार पर एक अन्य विचारधारा मौजूद है। इस विचारधारा में राजनेता को इस बात का अधिकार नहीं है कि वह सत्ता तक पहुंचने के लिए हर प्रकार का मार्ग अपनाए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की राजनीतिक विचारधारा इसी बात पर आधारित है। उनके मतानुसार सरकार का उद्देश्य यह है कि मानव समाज को भौतिक परिपूर्णता के साथ ही आध्यात्मिक परिपूर्णता तक पहुंचाकर सामाजिक न्याय को स्थापित किया जाए।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम उस राजनीति के पुनर्जीवित करने वाले थे जिसका आधार पैग़म्बरे इस्लाम सल्ल्ल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने रखा था। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम की सरकार को आगे बढ़ाने के लिए यद्यपि अथक प्रयास किये थे किंतु उनके स्वर्गवास के वर्षों बाद जब उन्होंने सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ली तो उनको यह बात भलिभांति पता थी कि पैग़म्बरे इस्लाम और क़ुरआन की शिक्षाओं की ओर समाज को वापस ले जाने के लिए सतत प्रयासों की आवश्यकता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम नहजुल बलाग़ा के १३१वें ख़ुत्बे या व्याख्यान में सत्ता की बागडोर संभालने के पीछे अपने उद्देश्यों का उल्लेख इन शब्दों में करते हैं कि हे, ईश्वर! तू जानता है कि हमने जो कुछ किया वह न तो इसलिए था कि किसी देश या साम्राज्य को हथियाया जाए न ही इसलिए है कि तुच्छ संसार से लाभ उठाया जाए बल्कि यह इसलिए था कि तेरे धर्म की अदृश्य हो जाने वाली निशानियों को वापस लाया जाए और तेरे राष्ट्र में सुधार को लागू किया जाए ताकि तेरे अत्याचारग्रस्त बंदे सुरक्षित रहें और तेरे नियम जो भुला दिये गए हैं पुनः व्यवहारिक हो सकें।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम, सरकार के लिए न्याय को बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्वांत एक जीवनदायक नियम मानते थे तथा इसपर अपनी कथनी और करनी दोनों में बल देते थे। उनके अनुसार राजनीति का महत्वपूर्ण आधार न्याय है। वास्तव में इमाम अली अलैहिस्सलाम की राजनीतिक विचारधारा को न्याय के बिना समझा ही नहीं जा सकता।
न्याय को लागू करने में वे किसी भी प्रकार की ढ़ील स्वीकार नहीं करते थे। न्याय को इस स्पष्ट ढंग से लागू करना उस समय के कुछ संभ्रांत लोगों एवं गुटों को अच्छा नहीं लगता था और इसी विषय ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए भी बहुत सी समस्याएं उत्पन्न कर दी थीं। उनके अनुसार समाज के संतुलन को सुरक्षित रखने का मूल तत्व न्याय ही है।
न्याय ही समाज रूपी शरीर को सुरक्षा और उसकी आत्मा का शांति प्रदान करता है। न्याय एक ऐसा राजमार्ग है जो सबको स्वयं में स्थान दे सकता है और बिना किसी समस्या के उन्हें गंतव्य तक पहुंचाता है किंतु अन्याय ऐसा दुर्गम मार्ग है जो अत्याचारी को भी उसके गंतव्य तक नहीं पहुंचाता। ऐसा समाज जिसमें न्याय स्पष्ट नहीं होता वह एक ऐसा समाज है जोइस प्रकार के समाज में एकता की भावना समाप्त हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप शत्रु बहुत तेज़ी से इस पर नियंत्रण स्थापित कर लेता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कई बार सत्ता स्वीकार करने का कारण सत्य की स्थापना और असत्य से संघर्ष करना बताया। अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं कि मैने ज़ीक़ार नामक क्षेत्र में, जो बसरा के मार्ग में था, हज़रत अली से भेंट की। मैंने देखा कि वे अपनी जूतियां टांक रहे थे।
इसी बीच उन्होंने मेरी ओर मुख करके कहा कि इस जूती का मूल्य कितना होगा? मैंने कहा कि इसका कोई मूल्य नहीं है। इसपर इमाम अली ने कहा, ईश्वर की सौगंध इस पुरानी जूती का महत्व मेरी दृष्टि में तुम पर शासन करने से अधिक है मगर यह कि सत्य की स्थापना करूं या असत्य को रोकूं।
इसी संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने एक गवर्नर अशअस बिन क़ैस को पत्र के माध्यम से संबोधित करते हुए कहते हैं कि सत्ता कोई स्वादिष्ट कौर नहीं है जो तुम्हारे हाथ लगा है बल्कि यह दायित्वों से भरी अमानत है जो तुमको दी गई है। तुमसे ऊपर वाला शासक इमाम तुमसे जनता के अधिकारों की सुरक्षा चाहता है। तुमको यह अधिकार नहीं है कि लोगों के साथ स्वेच्छा से तानाशाही का व्यवहार करो।
आम जनता तथा शासक के बीच आध्यात्मिक संबन्ध एक लोकतांत्रिक सरकार की आवश्यकताओं में से है। शासक उस समय इस कार्य में सफल हो सकता है जब वह जनता के दुख-दर्द को समझे, उनकी आवश्यकताओं को पहचाने और इन बातों के दृष्टिगत वह उनके हितों की पूर्ति के लिए प्रयास आरंभ करे। इसी प्रकार उसे जनता को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वह उनके हितों का रक्षक है ताकि जनता उसकी सरकार से हृदय से प्रेम करे।
इसी संबन्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम नहजुल बलाग़ा के ५३वें पत्र में मालिके अश्तर को संबोधित करते हुए कहते हैं- लोगों के साथ प्रेम करो, उनके साथ विनम्र रहो, ऐसा न हो कि एक नरभक्षी पशु की भांति लोगों का ख़ून बहाने में जुट जाओ, क्योंकि वे दो गुटों में हैं। या यह कि धर्म की दृष्टि से वे तुम्हारे भाई हैं या मानवता की दृष्टि से तुम्हारे समान हैं।
उनसे भी ग़लती हो सकती है और जाने-अनजाने में वे पाप कर बैठते हैं अतः तुम जैसे चाहते हो कि ईश्वर तुम्हारे पापों के संबन्ध में तुम्हारे साथ करे और उन्हें क्षमा कर दे वैसा ही तुम उनके साथ करो और उनके पापों को क्षमा कर दो।
इमाम अली अलैहिस्सलाम की दृष्टि में राष्ट्र को संगठित करने में सरकार की भूमिका बहुत प्रभावी होती है। नहजुल बलाग़ा के १४६वें व्याख्यान में हज़रत अली अलैहिस्सलाम उस नीति की ओर संकेत करते हुए जिसे शासक को सरकार को सुरक्षित रखने के लिए अपनाना चाहिए, राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रखने के बारे में उसकी भूमिका का उल्लेख इन शब्दों में करते हैं- राष्ट्र के बारे में शासक की भूमिका उस डोर या धागे की भांति है जो माला के दानों को एक साथ संजोए रहता है। यदि यह डोर टूट जाए तो माला के दाने बिखर जाएंगे और सब एकत्रित नहीं हो पाएंगे।
इमाम अली अलैहिस्सलाम इस सादे उदाहरण से यह बताना चाहते हैं कि राष्ट्र की एकता की उच्च आकांक्षा का संबन्ध उस ज़िम्मेदार से है जो दृष्टिकोणों के मतभेद से दूर और मतभेद फैलाने वाले तत्वों से दूर राष्ट्र को एक धुरी पर एकत्रित करके संगठित करे और मतभेदों और फूट से सुरक्षित रखे।
स्वभाविक सी बात है कि यह सफलता प्रत्येक शासक के लिए संभव नहीं है बल्कि इसके लिए उस शालीन शासक की आवश्कयता होती है जो एकता को स्थापित करने मे दृढ़ हो, मतभेदों को समाप्त करने के प्रयास करे और भेदभाव की दीवार को तोड़ते हुए राष्ट्रीय एकता के मार्ग को एकेश्वरवाद की विचारधारा के द्वार प्रशस्त करे।
इमाम अली अलैहिस्सलाम ने नहजुल बलाग़ा के ४०वें व्याख्यान में जिसे उन्होंने सिफ़्फ़ीन युद्ध के पश्चात ख़वारिज नामक उद्दंड समूह को संबोधित करते हुए दिया था सरकार, उसकी आवश्यकता तथा न्याय प्रिय शासक के दायित्वों के संबन्ध में महत्वपूर्ण बातों की ओर संकेत किया है।
इस ख़ुत्बे में हम सरकार के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के दृष्टिकोण को देखते हैं। आप कहते हैं कि निश्चित रूप से लोगों को शासक की आवश्यकता होती है जिसके सत्ताकाल में ईमान वाले अपने आध्यात्मिक मामलों को पूरा कर सकें तथा नास्तिक, भौतिक सुखों से आनंदित हो सकें।
शासक को चाहिए कि वह जनकोष को एकत्रित करे तथा शत्रुओं के साथ संघर्ष करे, मार्गों को सुरक्षित बनाए तथा निर्बलों के अधिकारों को शक्तितशालियों से वापस ले। इस प्रकार अच्छे लोग संपन्नता में रहेंगे और बुरों से सुरक्षित रहेंगे।
इमाम अली अलैहिस्सलाम की दृष्टि में सत्ता का स्वयं में कोई महत्व नहीं है बल्कि यह मानवीय लक्ष्यों तक पहुंचने का मात्र एक साधन है। हज़रत अली का मानना है कि सत्ता कभी भी लक्ष्य नहीं है। यही कारण है कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में कभी भी सत्ता की प्राप्ति के लिए कोई गतिविधि नहीं की।
उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए कभी कुछ नहीं किया बल्कि अपने जीवन में उन्होंने जो कुछ भी किया वह ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किया। इस बारे में वे कहते हैं कि यदि विद्वानों के बारे में ईश्वर का यह वचन न होता कि वे अत्याचार ग्रस्तों की भूख और अत्याचारियों के अत्याचारों पर मौन धारण न करें और हाथ पर हाथ रखकर न बैठे रहें तो ख़िलाफ़त अर्थात इस्लामी नेतृत्व की लगाम मैं यूंही छोड़ देता ताकि वह आगे बढ़ता रहे और मैं पहले दिन की भांति स्वयं को हर मामले से अलग रखता।
ख़िलाफ़त या इस्लामी शासन को स्वीकार करने में इमाम अली अलैहिस्सलाम का लक्ष्य केवल लोगों की भलाई और उनका सुधार था। सत्ता तक पहुंचने के लिए उन्होंने कभी कोई रूचि प्रदर्शित नहीं की और इसकी प्राप्ति के लिए उन्होंने कोई भी अनैतिक मार्ग नहीं अपनाया जबकि यह ऐसी स्थिति में था कि सत्ता उनका अधिकार था। सत्ता तक पहुंचने के लिए उन्होंने कभी भी कार्यक्रम नहीं बनाया और जबतक लोगों ने उनसे साग्रह अनुरोध नहीं किया उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया।
उनके इस कार्य का रहस्य, ईश्वर के संबन्ध में उनकी विचारधारा में छिपा है। उनके लिए सत्ता उसी समय महत्व रखती है जब उससे न्याय लागू किया जाए और लोगों के अधिकारों पर ध्यान दिया जाए।
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