महिला दिवस पर ख़ास, इमाम ख़ुमैनी का महिलाओं के साथ व्यवहार
इमाम खु़मैनी साहब की बीवी कहती हैं कि, ख़ुमैनी साहब जब भी सलात-उल-लैल(नमाज़े शब) के लिए उठते थे,तो मुझे पता नहीं चलता था क्योंकि मेरे आराम की ख़ातिर वह लाईट नहीं जलाते थे, वज़ू करने जाते थे तो नल के नीचे एक फ़ोंम(स्पंज) रख देते थे, ताकि पानी की आवाज़ से मेरी नींद न ख़राब हो। वह कहती हैं कि आग़ा ने हमेशा हमें कमरे में आराम के लिए बेहतर जगह पेश करी, और जब तक मैं दस्तरख़्वान पर नहीं आ जाती थी वह खाना नहीं शुरू करते थे, और यही तलक़ीन बच्चों को करते थे कि पहले तुम्हारी माँ को आने दिया करो फिर खाना शुरू किया करो। आप बताती हैं कि कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैं कमरे में दाख़िल हुई और आग़ा ने मुझसे दरवाज़ा बन्द करने के लिए कहा हो, बल्कि अगर मैं दरवाज़ा बन्द करना भूल जाती तो मेरे बैठ जाने के बाद वो ख़ुद उठकर दरवाज़ा बन्द करते थे।
इमाम ख़ुमैनी साहब की बेटी सिद्दीक़ा कहती हैं कि, आग़ा जान मेरी वालिदा की ग़ैर-मामूली इज़्ज़त किया करते थे, और सिर्फ़ वालिदा ही नहीं, बल्कि वो बेटियों को भी ग़ैर-मामूली इज़्ज़त दिया करते थे। हत्ता कि बेटियों से भी पानी मांगना मुनासिब नहीं समझते थे, और ख़ुद उठकर पानी पीते थे।
आग़ा जान ज़िन्दगी के आख़री दिनों में जब शदीद अलील (बीमार) थे,उस वक़्त भी माँ का ख़याल अपने आप से ज़ियादा रहता था, आंख खोलते और अगर कुछ बोलने के क़ाबिल होते तो पूछते, "ख़ानम कैसी हैं?"
हम बताते कि वह अच्छी हैं, क्या उनको बुलाएं ? तो मना कर देते थे कि उसे आराम करने दो उसके कमर में तकलीफ़ होगी।
इस्लाम में बीवी का मक़ाम यही है, तालीमाते रसूले ख़ुदा(स) के मुताबिक़ बीवी अपने शौहर की शरीके हयात (पार्टनर) होती है।
नई टिप्पणी जोड़ें