म्यांमार में मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार

म्यांमार में मुसलमानों पर होने वाले अत्याचार

म्यांमार के अल्पसंख्यक मुसलमानों के विरुद्ध जातीय भेदभाव, हिंसा और हत्या सहित नाना प्रकार के अपराध महीनों से जारी हैं। डाक्टर्स विदाउट बाडर्स ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में म्यांमार में अल्पसंख्यक मुसलमानों के विरुद्ध होने वाली हिंसा एवं नरसंहार को सुनियोजित व संगठित बताया है। म्यांमार की सरकार इस देश के अल्पसंख्यक मुसलमानों के विरुद्ध होने वाले अपराधों पर पर्दा डालने के प्रयास में है। इसी कारण उसने म्यांमार के अल्पसंख्यक मुसलमानों के विरुद्ध होने वाले अपराधों के संबंध में मानवाधिकार संगठनों यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ की भी रिपोर्ट को रद्द कर दिया है और इस संबंध में वह हर प्रकार की जांच की मुखर विरोधी है। म्यांमार में अल्पसंख्यक मुसलमानों के अधिकारों के संबंध में संयुक्त राष्ट्रसंघ के विशेष दूत थामस ओजे गोयन्ताना ने म्यांमार की अपनी १० दिवसीय यात्रा की समाप्ति पर पत्रकारों से वार्ता में कहा कि बौद्धधर्म के अतिवादी तत्वों ने मेरी गाड़ी पर उस समय हमला कर दिया जब मैं रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध होने वाले अपराधों की जांच के लिए मिकेला नगर पहुंचा। संयुक्त राष्ट्र संघ के विशेष दूत ने कहा कि इस घटना के दौरान मुझे जिस भय का आभास हुआ उससे मुझे अंदाज़ा हो गया कि पिछले मार्च महीने में बौद्ध धर्म के अतिवादी तत्वों ने इस देश के अल्पसंख्यक मुसलमानों पर किस प्रकार आक्रमण किया होगा?

बौद्धधर्म के अतिवादी तत्वों ने पिछले महीने भी रोहिंग्या मुसलमानों पर आक्रमण करके दसियों की हत्या कर दी थी। इस आक्रमण में म्यांमार के हज़ारों रोहिंग्या मुसलमान बेघर हो गये थे। महीनों का समय बीत रहा है जब से बौद्ध धर्म के अतिवादी तत्वों ने रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध हिंसा आरंभ कर रखी है और अब तक वे उनके धार्मिक स्थानों एवं घरों पर आक्रमण करते हैं और म्यांमार के राखीन प्रांत में मुसलमानों के कई गांवों में आग लगा दी। कई अवसरों पर एसा भी हुआ है कि म्यांमार की सेना ने बौद्धधर्म के अतिवादी तत्वों को पेट्रोल दे दिया जिससे उन्होंने मुसलमानों के कई गावों में आग लगा दी और वहां रहने वाले मुसलमान अपना घर बार छोड़कर भागने के लिए बाध्य हो गये। म्यांमार के अधिकांश मुसलमान इस देश के राखीन प्रांत में रहते हैं। म्यांमार की सरकार इन मुसलमानों को मान्यता नहीं देती है और उन्हें वह ग़ैर क़ानूनी पलायनकर्ता कहती है। यह एसी स्थिति में है जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने म्यांमार के मुसलमानों को एक बहुत बड़ा अल्पसंख्यक बताया है और कहा है कि इन मुसलमानों को अभूतपूर्व अत्याचार का सामना है। म्यांमार का एक १९ वर्षीय पलायनकर्ता युवा अपने जीवन की विषम परिस्थिति का उल्लेख इस प्रकार करता है” मेरा जन्म म्यांमार में हुआ परंतु म्यांमार की सरकार ने कहा कि मेरा संबंध इस देश से नहीं है।

 

मैं बांग्लादेश में बड़ा हुआ परंतु बांग्लादेश की सरकार का कहना है कि मैं वहां नहीं रह सकता। मैं एक रोहिंग्या मुसलमान के रूप में सोचता हूं कि मैं गोह और सांप के मुंह के बीच में फंस गया हूं” म्यांमार में मुसलमानों के विरुद्ध होने वाली हिंसा के संबंध में जो तस्वीरें और फिल्में प्रकाशित हुई हैं वह इस बात की सूचक हैं कि २१वीं शताब्दी में मुसलमानों के विरुद्ध अकल्पनीय अत्याचार जारी हैं। म्यांमार में बौद्धधर्म के मानने वाले पांच करोड़ लोग इस देश के तीस लाख अल्प संख्यक मुसलमानों को समाप्त करने के लिए इस देश की सेना के साथ मिलकर काम रहे हैं।

म्यांमार के मुसलमानों को बहुत ही दयनीय स्थिति का सामना है। उन्हें म्यांमार से निकाला व भगाया जा रहा है परंतु म्यांमार का कोई भी पड़ोसी देश उन्हें स्वीकार नहीं कर रहा है। बांग्लादेश की सरकार के कथनानुसार इस समय तीन लाख से अधिक रोहिंग्या मुसलमान इस देश के दक्षिणपूर्वी तट पर शरणार्थी शिविरों में रह हैं। इन शरणार्थियों की स्थिति उन मुसलमानों से कोई विशेष भिन्न व अच्छी नहीं है जो म्यांमार में अपने मित्रों और परिजनों के साथ हैं क्योंकि इन शरणार्थी मुसलमानों को उन्हीं समस्याओं का सामना है जो उनके परिजनों को म्यांमार में सामना है। इन शिविरों में अधिकांश महिलाएं, बच्चे, बूढ़े, बीमार और अपंग लोग रहते हैं।

 

इन शिविरों में रहने वालों के मध्य एक नेवाला भोजन प्राप्त करने के लिए अधिकांश समय लड़ाई झगड़ा होता रहता है। बांग्लादेशियों के अनुसार यह शरणार्थी समाज के सबसे निम्न वर्ग के लोग हैं और वे किसी विशेष सम्मान के पात्र नहीं हैं। इन शिविरों में अंतर्राष्ट्रीय सहायताओं की भी कोई सूचना नहीं है। इन शिविरों में रहने वाले कठिन से कठिन काम करते हैं और उसके बदल में उन्हें थोड़ी मात्रा में एक समय का भोजन ही मिल पाता है। एसा लगता है कि बेघर होने वाले म्यांमार के शरणार्थियों के लिए संकट की कोई सीमा ही नहीं है। इन शरणार्थियों के लिए न म्यांमार, न बांग्लादेश, न थाईलैंड और न किसी दूसरे देश में संकट का किनारा नहीं मिल रहा है। मानवाधिकार के मामलों में संयुक्त राष्ट्र संघ के एक वरिष्ठ अधिकारी वालर आमूस पिछले पतझड़ ऋतु में म्यांमार की अपनी यात्रा के संबंध में कहते हैं कि मैं रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति देखकर भयभीत हो गया।

 

आमूस ने शरणार्थी शिविरों में रहने वाले एक लाख से अधिक रोहिंग्या मुसलमानों की बहुत ही दयनीय दशा की ओर संकेत करते हुए बल देकर कहा था कि हिंसा का शिकार और बेघर होने वाले राखीन प्रांत के मुसलमान सहायता लेने से भी वंचित हैं। म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति के बारे में इन सब समाचारों और रिपोर्टों के प्रकाशित होने के बावजूद न संयुक्त राष्ट्र संघ और न ही मानवाधिकारों की रक्षा का दम भरने वाली पश्चिमी सरकारें उनकी सहायता कर रही हैं। यही नहीं ये सरकारें बौद्धधर्म के अतिवादी तत्वों के हाथों मुसलमानों की हत्या की भर्त्सना भी नहीं कर रही हैं। इसके विपरीत अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा और कुछ युरोपीय देशों के अधिकारियों एवं राजनेताओं ने राजनीतिक गतिविधियों के लिए वातावरण उत्पन्न करने के कारण म्यांमार की सरकार की प्रशंसा की और इस देश की यात्रा की। यही नहीं इन देशों ने म्यांमार की सरकार के विरुद्ध प्रतिबंधों को भी निरस्त कर दिया और म्यांमार की सरकार के ६ अरब डालर के ऋण को भी माफ कर दिया। म्यांमार की सरकार और इस देश के अतिवादी बौध रोहिंग्या मुसलमानों को दूसरे देश का नागरिक समझते हैं। म्यांमार की सरकार रोहिंग्या मुसलमानों को एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा की अनुमति नहीं देती है। यदि वे एक गांव से दूसरे गांव जाना चाहें तो इसके लिए उन्हें सरकार को कुछ कर अदा करना पड़ता है।

 

अगर म्यांमार में कोई मुसलमान एक दुकान खोलना चाहता है तो उसे चाहिये कि वह एक बौध को भागीदार बनाये और इस भागीदारी में बौध को कुछ भी नहीं देना पड़ता है परंतु दुकान में जो भी फायदा होगा उसका आधा भाग बौध को मिलेगा। इस प्रकार म्यांमार में जातीय भेदभाव अपने सबसे बुरे रूप में जारी है। म्यांमार सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस देश में मुसलमानों के नर संहार और उनके प्राथमिक अधिकारों के उल्लंघन के बारे में न्यूयार्क टाइम्स के पत्रकार के उत्तर में कहा” मानवाधिकार का संबंध मुसलमानों से नहीं है” प्रश्न यह उठता है कि यदि म्यांमार में मुसलमानों के बजाये अल्प संख्यक ईसाईयों के साथ यही व्यवहार किया जाता क्या तब भी पश्चिमी सरकारें मौन धारण करतीं? यदि पश्चिमी सरकारों के हित ख़तरे में पड़ते तो क्या पश्चिमी सरकारें म्यांमार में हस्तक्षेप और प्रतिबंध के लिए इन्हीं हत्याओं को बहाना न बनाती हैं? जैसाकि इस समय वे सीरिया में सैनिक हस्तक्षेप के लिए रासायनिक हथियारों के प्रयोग को बहाना बना रही हैं? क्या मानवाधिकारों की राग अलापने वाली पश्चिमी सरकारें अकारण ही म्यांमार के मुसलमानों की हत्या के मुकाबले में मौन धारण किये हुए हैं? शोचनीय बिन्दु यह है कि आंग सान सूची को म्यांमार में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाली महिला के रूप में जाना व पहचाना जाता है और उन्होंने भी मुसलमानों की हत्या और उन पर किये जाने वाले अत्याचारों के संबंध में मौन धारण कर रखा है।

 

यही नहीं वह कहती हैं कि मैं किसी पक्ष के हित या अहित में दृष्टिकोण नहीं अपना सकतीं। पश्चिम की लिबरल व्यवस्था में मानवाधिकार राजनीतिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने का मात्र एक साधन है। इस आधार पर पश्चिमी सरकारें एक समय म्यांमार की सैनिक सरकार पर दबाव डालने के लिए मानवाधिकार का प्रयोग करती हैं और आंग सान सूची को स्वतंत्रता व आज़ादी का प्रतीक बताती हैं जबकि दूसरे समय में यही आंग सान सूची अपनी राजनीतिक स्थिति की सुरक्षा के लिए अपने ही देश के हज़ारों मुसलमानों की हत्या की अनदेखी कर देती हैं।

पूर्वी एशिया में जातीय भेदभाव केवल म्यांमार के मुसलमानों तक सीमित नहीं है। यद्यपि म्यांमार के अल्पसंख्यक मुसलमानों को पूर्वी एशिया के दूसरे मुसलमानों की अपेक्षा अधिक अत्याचार, हिंसा और जातीय भेदभाव का सामना है। बौद्धधर्म की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा यह है कि सबके साथ न्यायपूर्ण एवं समानता का व्यवहार किया जाये परंतु बौध धर्म के मानने वाले कुछ अतिवादी तत्वों ने हालिया वर्षों में मुसलमानों की हत्या और उनके विरुद्ध अपराध में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं लिया है।

 

अतिवादी बौधों ने जातीय सफाये के लिए केवल म्यांमार के मुसलमानों को ही लक्ष्य नहीं बनाया बल्कि अतिवादी बौधों ने श्रीलंका में भी हालिया महीनों के दौरान मुसलमानों को लक्ष्य बनाया और उनके पवित्र धार्मिक स्थलों पर आक्रमण किया। फिलिप्पीन और थाईलैंड में भी अतिवादी बौधों ने मुसलमानों को अपने हमलों का लक्ष्य बनाया। यही नहीं बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे कुछ इस्लामी देशों में भी शीया मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। जिस तरह से मध्यपूर्व में पश्चिमी सरकारों के समर्थन से रूढ़िवादी और तकफीरी गुट मुसलमानों के मध्य फूट डालने के लिए प्रयासरत हैं और वे दूसरों को शीया मुसलमानों से डरा और उनके विरुद्ध नाना प्रकार की कार्यवाहियां कर रहे हैं।

 

इंडोनेशिया और मलेशिया में अल्प संख्यक शीया मुसलमानों को नाना प्रकार की समस्याओं का सामना है और शीया मुसलमानों की गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखी जाती है और उनमें से कई को मुक़द्दमा चलाने बिना जेलों में डाल दिया गया है।

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