आसमाने इमामत के दसवें चांद, इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम

आसमाने इमामत के दसवें चांद, इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम

इमाम अली नक़ी अलैहिस्सलाम की उपाधि हादी है, इमाम हादी , पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों में हैं जिन्हें पैग़म्बरे इस्लाम ने मुक्ति नौका की संज्ञा देते हुए फ़रमाया है:

मेरे परिजन, नूह की नौका की भॉंति हैं। जो उस पर सवार हुआ, सुरक्षित हो गया अर्थात उसे मुक्ति मिल गई। इस बात में तनिक भी संदेह नहीं है कि जो भी क़ुरआन की शिक्षाओं और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों के कथनों एवं आचरण को अपने जीवन का आदर्श बनाएगा उसे मोक्ष प्राप्त होगा। इमाम हादी अलैहिस्सलाम की इमामत अर्थात ईश्वरीय आदेश्यनुसार जनता के मार्गदर्शन के ३३वर्षीय कार्यकाल के लगभग १३ वर्ष मदीना में बीते। इस दौरान इमाम हादी अलेहिस्सलाम ने इस्लामी शिक्षाओं एवं संस्कृति के विस्तार तथा मुसल्मानों का मार्गदर्शन किया। चूंकि इमाम हादी अलैहिस्सलाम का संबंध, विश्वस्नीय मार्गदर्शन के स्रोत से था इसलिए सत्य के इच्छुक उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। इमाम की इमामत का सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ वह ज्ञान है जिससे मानवता पथभ्रष्टता के अधंकार से मुक्ति पाती है।

इमाम हादी अलैहिस्सलाम बचपन से ही विद्वान व बुद्धिमान थे। एक दिन अब्बासी शासक मोतसिम ने एक ऐसे शिक्षक को इमाम को शिक्षित करने के लिए भेजा, जो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि व सल्लम के परिजनों के विरूद्ध झुकाव रखता था। उस शिक्षक का नाम जुनैदी था और उसे अरबी साहित्य में दक्षता प्राप्त थी। मोतसिम ने जुनैदी को इमाम हादी अलैहिस्सलाम के पास इसलिए भेजा था ताकि वह इमाम को अब्बासी मतानुसार शिक्षित करे।

एक दिन मोतसिम के समर्थकों ने जुनैदी से इमाम हादी अलैहिस्सलाम की पढ़ाई के बारे में पूछा। उस सम्य इमाम की आयु बहुत कम थी। जुनैदी ने, जो इमाम हादी अलैहिस्सलाम के ज्ञान की अथाह गहारई से अवगत हो चुका था, आश्चर्यचकित स्वर में पूछा: कौन बच्चा? ईश्वर की सौगन्ध मैंने इस नगर में उनसे अधिक ज्ञानी व बुर्दिमान नहीं पाया। जब भी मैं अपने ज्ञान के किसी बिन्दु की ओर यह सोच कर कि इससे केवल मै ही अवगत हूं, संकेत करता हूं वह उसी बिन्दु के संदर्भ में ज्ञान के बहुत से द्वार मेरे सामने खोल देते हैं। जब मैं उनसे क़ुरआन के किसी सूरे की तिलावत के लिए कहता हूँ तो वह ऐसे सम्मोहित करने वाले स्वर में तिलावत करते हैं कि मैं आश्चर्य में पड़ जाता हूं। सारी प्रशंसा का पात्र ईश्वर ही है: उन्हें यह ज्ञान कहॉं से प्राप्त हुआ है?

इमाम हादी अलैहिस्सलाम वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महानता के उस शिखर पर थे कि ज्ञान के इच्छुक दूर दूर से उनकी सेवा में पहुंच कर अपने ज्ञान की प्यास बुझाते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों के श्रृद्धालु, जिनकी संखया उस समय अधिक हो गई थी, विभिन्न श्रेत्रों विशेष रूप से ईरान, इराक़ और मिस्र से उनकी सेवा में स्वंय पहुंचते या फिर पत्राचार द्वारा उनसे अपनी समस्याओं का उल्लेख कर उनका समाधान पूछते थे। इस प्रकार के व्यापक संपर्क के कारण अब्बासी शासक मुतवक्किल चिन्तित हो गया और उसने इमाम हादी अलैहिस्सलाम को मदीना से इराक़ के सामर्रा नगर आने पर विवश किया। यह नगर उस समय अब्बासी शासन की राजधानी था। इतिहास में है कि अब्बासी शासक के दरबार में ईसाई चिकित्सक यज़दाद का कथन हैं : मैंने जो सुना है वह यह कि मुतवक्किल ने इसलिए इमाम हादी अलैहिस्सलाम को सामर्रा तलब किया है कि कहीं ऐसा न हो कि महत्वपूर्ण हस्तियां और बुद्धिजीवी, इमाम के प्रभाव में आ जाएं और सत्ता बनी अब्बास के हाथ से निकल जाए।

इमाम हादी अलैहिस्सलाम सपरिवार सामर्रा की और रवाना हुए। मुतविक्किल के विशेषदूत यहया बिन हरसमा को, इमाम हादी अलैहिस्सलाम को सामर्रा लाने के किए नियुक्त किया गया था।

वह इमाम के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ। इमाम हादी अलैहिस्सलाम नैतिकता, शिष्टाचार, और उपासना के प्रतीक थे। वे मानवीय गुण व सदाचारिता के उस शिखर पर थे कि बहुत से बुद्धिजीवियों, राजनेताओं और जीवनी लेखकों ने उनकी प्रशंसा की है। उन्हीं बुद्धिजीवियों में से एक इब्ने शहर आशोब हैं जिन्हों ने अपनी विखयात पुस्तक मनाक़िब में इमाम हादी अलैहिस्सलाम के व्यक्तित्व का इन शब्दों में चित्रण किया है:हज़रत हादी एक परिपूर्ण मनुष्य थे। जब वे मौन धारण करते तो उनका रोब छा जाता था जब वे बोलते तो उनके महान व्यक्तित्व का पता चलता था।

उस समय के अब्बासी शासक जनता पर अत्याचार की सीमा को पार कर चुके थे और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वस्ल्लम के परिजनों पर भी बहुत अधिक दबाव था और उन्हें धमकी दी जाती थी। इस संकटमयी स्थिति के कारण पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वस्ल्लम के परिजनों ने अपने अनुयाइयों के साथ संपर्क की नई शैली अपनाई। यह शैली, वस्तुतः एक गुप्त संपर्क नेटवर्क की स्थापना थी। विभिन्न क्षेत्रों में इमामे हादी अलैहिस्सलाम ने अपने प्रतिनिधियों का एक व्यापक नेटवर्क बना रखा था। यह नेटवर्क जनता द्वारा निकाले जाने वाले कर तथा उसकी ओर से इमाम को दिए गए उपहार को उनकी सेवा में पहुंचाता और इसी प्रकार इमाम द्वारा लोगों के प्रश्नों के दिए गए उत्तरों को उन तक पहुंचाता था। इमाम हादी अलैहिस्सलाम ने इस कार्यक्रम को जिसकी स्थापना उनके पिता इमाम जवाद अलैहिस्सलाम ने की, जारी रखा और बहुत से प्रतिनिधियों और कार्यकर्ताओं को विभिन्न नगरों एवं क्षेत्रों में भेजा। इस प्रकार एक सुव्यवस्थित संगठन का संचालन हुआ। इमाम हादी अलैहिस्सलाम योग्य लोगों को ढूंढ कर उनके हृदय में ज्ञान का दीप जलाते। यद्यपि तत्कालीन शासक की ओर से दबाव के कारण ज्ञान के प्यासे लोग, इस सोते से अपनी प्यास पूर्ण रूप से नहीं बुझा पाते थे किन्तु फिर भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान के इच्छुक लोग हर संभव रूप में इमाम की सेवा में पहुंचते और अपनी क्षमता भर इस अथाह सागर से लाभान्वित होते। इमाम हादी अलैहिस्सलाम के शिष्यों की संख्या 185 बताई गई है जिनमें से हर एक अपने समय का बड़ा विद्वान था।

 

इमाम हादी अलैहिस्सलाम से बड़े बड़े विद्वान एवं धर्म गुरु संपर्क में रहते थे। शुद्ध इस्लामी ज्ञान एवं संस्कृति की रक्षा और विरोधियों द्वारा उत्पन्न की गई शंकाओं को दूर करना, इमाम हादी अलैहिस्सलाम के मूल्यवान कार्यों में से एक है। अलबत्ता इस कार्य के लिए योग्य लोगों का प्रशिक्षण करना आवश्यक था। इसलिए इस दिशा में इमाम हादी अलैहिस्सलाम ने बहुत महान क़दम उठाया और अब्दुल अज़ीम हसनी तथा इब्ने सिक्कीत अजैसी विख्यात हस्तियां इमाम के स्कूल से प्रशिक्षित होकर निकलीं। इमाम हादी अलैहिस्सलाम के काल में दिगभ्रमित लोगों का एक गुट था जिसे जबरिया कहा जाता था। इस गुट के लोगों का यह मानना था कि मनुष्य अपने कर्म में स्वतंत्र नहीं है और जो कुछ वह करता है उसे करने पर वह विवश है। इमाम हादी अलैहिस्सलाम इस निराधार विचार के विरुद्ध उठ खड़े और अपने ठोस तर्कों से इस निष्प्रभावी बना दिया। इमाम हादी अलैहिस्सलाम कहा करते थेः जो भी यह मानता है कि मनुष्य अपने कर्मों में मजबूर है इसका अर्थ यह निकलेगा कि ईश्वर मनुष्य को पाप के लिए विवश करता है और फिर उन्हें पापों के कारण दण्डित भी करेगा। ऐसा व्यक्ति वास्तव में ईश्वर को अत्याचारी समझता है और उसने ईश्वर का इंकार किया है। इमाम हादी अलैहिस्सलाम नैतिकता एवं धर्मपरायणता की चरम सीमा पर थे। यद्यपि जनता के साथ उनका संपर्क बहुत सीमित स्तर का था किन्तु बहुत से बुद्धिजीवियों एवं जीवनी लेखकों ने इमाम हादी अलैहिस्सलाम के व्यक्तित्व की प्रशंसा की है। उन्हीं में सुन्नी समुदाय के विद्वान इब्ने सब्बाग़ मालेकी भी शामिल हैं। अबुल हसन हादी के चरित्र की चारो ओर धूम मची है। कोई ऐसा सदकर्म नहीं जिसे उन्होंने अंजाम न दिया हो और कोई ऐस सदगुण नहीं हैं जिनसे उनका व्यक्तित्व सुसज्जित न हो। वह विनम्र स्वभाव, न्यायपूर्ण व्यवहार तथा मित्रों के शुभचिन्तक हैं। उनके व्यक्तित्व में ठहराव, रोब, शिष्टाचार और वीरता जैसी विशेषताएं मौजूद हैं जिससे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के व्यतित्व की याद ताज़ा हो जाती थी।

 

जब तक किसी व्यक्ति के मन में लोगों के प्रति प्रेम होता है लोग भी उसकी ओर खिंचे चले आते हैं किन्तु जिस समय वह अपने मन को आत्ममुग्धता से दूषित कर लेता है लोग उससे उसी प्रकार दूर भागते हैं जैसे किसी ठहरे हुए बदबूदार दलदल के पास से लोग भागते हैं। जो भी अपने मन में आत्ममुग्धता को स्थान देता है वस्तुतः उसने अपनी अकेलेपन को बढ़ावा दिया है। यदि यह बुराई किसी व्यक्ति में समा जाएतो वह उसे दूसरों से दूर कर देती है। इसलिए इमाम हादी कहा करते थेः जो भी आत्ममुग्ध होगा, उससे दूर भागने वालों की संख्या अधिक होगी।

 

इस बात के बावजूद कि इमाम हादी अलैहिस्सलाम पर सामर्रा में कड़ी दृष्टि रखी जाती थी और उन्हें बहुत से दुखों का सामना करना पड़ा किन्तु वे फिर भी अत्याचारियों के सामने नहीं झुके। उनका यह प्रतिरोध अत्याचारी अब्बासी शासकों के लिए चिंताजनक और असहनीय था। इसलिए उन्होंने सत्य की इस शमा को सदैव के लिए बुझाने की ठान ली। इस प्रकार इमाम हादी अलैहिस्सलाम को मोतज़ के काल में विष दे दिया गया और वर्ष 254 हिजरी कम़री में इमाम हादी अलैहिस्सलाम 41 वर्ष की आयु में शहीद हो गए। इमाम हादी अलैहिस्सलाम को सामर्रा में दफ़्न किया गया।

इमाम हादी अलैहिस्सलाम के कुछ स्वर्ण कथन:  इमाम फ़रमाते हैं जो भी सत्य पर हो किन्तु उसका व्यवहार मूर्खतापूर्ण हो तो इस बात की संभावना है कि उस व्यक्ति की सत्यता उसके मूर्खतापूर्ण व्यवहार के कारण छिप जाए। एक अन्य स्थान पर इमाम फ़रमाते हैः बहस और कहासुनी से मित्रता समाप्त हो जाती है।

एक अन्य कथन हैः ईश्वर से पापों के लिए अत्यधिक प्रायश्चित कर और उसकी कृपाओं का अत्यधिक आभार व्यक्त करो कि इससे तुम्हें लोक परलोक का कल्याण प्राप्त होगा।

आपको अब्बासी शासक मोतज़ ने शहीद कराया।

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