क़ानून और जीवन में उसका महत्व
क़ानून और जीवन में उसका महत्व
ऐतिहासिक प्रमाण इस बात के साक्षी हैं कि क़ानून और नियम, चाहे वह संस्कार, परंपरा और क़ानूनी रूप में हों, सदैव से ही मनुष्य के जीवन में महत्त्वपूर्ण रहे हैं। धरती पर मनुष्य ने जब से क़दम रखा है तभी से उसके साथ सामाजिक नियम और क़ानून रहे हैं। मनुष्य ने विशेषकर सामाजिक संबंधों के जटिल होने के समय इस बात को स्वीकार किया कि जीवन में क़ानून के पाये जाने की आवश्यकता है।
क़ानून उस वस्तु को कहते हैं जो सामाजिक जीवन में मनुष्य के लिए यह निर्धारत करता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या न करना चाहिए। बिना क़ानून और नियम के जीवन समस्याओं से ग्रस्त और उसमें विघ्न उत्पन्न हो जाता है। जब मनुष्य सामाजिक जीवन व्यतीत करना चाहता है और एक दूसरे से सहयोग करना चाहता है और इस सहयोग के माध्यम से प्राप्त होने वाली उपलब्धियों को आपस में विभाजित करना चाहता है तो उसे दूसरे के हितों और इच्छाओं का सम्मान करना चाहिए। जो भी अधिक से अधिक लाभ उठाना चाहता है या वह अपनी इच्छा के अनुसार यह निर्धारित करता है कि लोगों के साथ किस प्रकार का बर्ताव करना चाहिए, इससे सामाजिक जीवन की नय्या पार नहीं लग सकती और सामाजिक मंच पर उसे गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इस विवाद को रोकने के लिए कुछ कानून और नियम निर्धारित करने होंगे, वरना सामाजिक जीवन डगमगा जाएगा और उसके आधार धराशायी हो जाएंगे। अब प्रश्न यह है कि कब और कहां पर इस प्रकार के साधारण क़ानून बनाए जाएं और पेश किए जाएं?
इतिहास पर दृष्टि डालने से यह बात समझ में आती है कि पहली बार प्राचीनतम और सबसे व्यापक क़ानून बेबीलोनिया की धरती पर हमूराबी के आदेश पर बनाया गया। वह 2013 से 2080 ईसा वर्ष पूर्व वर्तमान इराक़ के बेबीलोनिया पर राज करता था। उसके द्वारा जारी किया गया वैश्विक क़ानून अधिकतर झूठे आरोप, झूठी सौगंध, न्यायाधीश को घूस देने, फ़ैसले में अन्याय करने, राजा और प्रजा के मध्य संबंध, व्यापारिक और पारिवारिक क़ानून जैसे मामलों से संबंधित थे किन्तु ईश्वरीय क़ानून का इतिहास इससे भी प्राचीन है अर्थात ईश्वरीय क़ानून हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के काल से प्रचलित था। हज़रत नूह एक वरिष्ठ ईश्वरीय दूत थे जिन्होंने हज़रत मूसा और ईसा से पहले लोगों के मार्गदर्शन का ईश्वरीय दायित्व संभाला। समाज का विस्तार, भौतिक, जातीय और सांप्रदायिक हितों को लेकर लोगों में मतभेद का बढ़ना, कारण बना कि ईश्वरीय दूत लोगों के मतभेद को दूर करने और उन्हें कल्याण का मार्ग दिखाने के निरंतर रूप से उचित क़ानून लोगों के सामने पेश करें। धर्म की परिधि में यह क़ानून दिन प्रतिदिन परिपूर्ण और व्यापक होते गये, यहां तक कि अंतिम ईश्वरीय दूत हज़रत मूहम्मद सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के काल में यह क़ानून और नियम परिपूर्णता के चरम पर पहुंच गये।
इस्लाम धर्म के क़ानून और नियम आसमानी पुस्तक क़ुरआन के रूप में पैग़म्बरे इस्लाम के माध्यम से मानवता के सामने पेश किये गये। इस आधार पर पवित्र क़ुरआन, इस्लाम धर्म के क़ानून की किताब है जिसमें मनुष्य के मार्गदर्शन के कार्यक्रम, सामाजिक संबंध कैसे होने चाहिए और क़ानूनी और नैतिक नियमों के बारे में विस्तारपूर्वक बयान किया गया है। ईश्वरीय क़ानून की कुछ विशेषताएं हैं जो उसे लोगों द्वारा बनाए गये क़ानूनों से अलग करती हैं।
एक उचित और व्यापक क़ानून को मनुष्य की अध्यात्मिक व भौतिक आवश्यकताओं का उत्तर देने वाला होना चाहिए और इसका लागू होना, इन दोनों क्षेत्रों में समस्त लोगों की प्रगति और परिपूर्णता की भूमिका बने और शांति उत्पन्न होने का कारण बने। पवित्र क़ुरआन की विभिन्न आयतों में चिंतन मनन करके इस वास्तविकता का पता चल जाता है कि इस क़ानून और नियम को बनाने वाला अर्थात तत्वदर्शी और सर्वगुण संपन्न ईश्वर इन समस्त मामलों से भलिभांति अवगत है। लोगों के लिए वांछित क़ानून की कुछ विशेषताएं होती है और क़ानून बनाने वाला जब तक इन विशेषताओं से अवगत नहीं होगा तो इस प्रकार क़ानून बना ही नहीं सकता। अधिकारों का ख़याल रखना या अधिकारों से पूर्ण रूप से अवगत होना इन विशेषताओं में से एक है। अर्थात क़ानून बनाने वाले को समाज के हर व्यक्ति और हर गुट के उच्चाधिकारों और ज़िम्मेदारियों से पूर्ण रूप से अवगत होना चाहिए ना यह कि समाज के लोगों या किसी विशेष वर्ग के के लिए कठिनाइयां उत्पन्न करे और न ही कुछ विशेष लोगों के लिए अतार्किक समस्याएं उत्पन्न करे। क़ानून को समाज के हर वर्ग, वर्ण और गुट के हित में होना चाहिए। हर व्यक्ति या हर गुट के हितों की पूर्ति दूसरों के हितों से समन्वित होनी चाहिए। क़ानून में समाज और लोगों के हितों और हानियों पर दृष्टि रखने, क़ानून को लागू करने की गैरेंटी और मनुष्य की सृष्टि के अंतिम लक्ष्य और उसकी अध्यात्मिक परिपूर्णता पर दृष्टि रखने की अति आवश्यकता है।
प्रश्न यह उठता है कि क़ानून बनाने वाले और नियम निर्धारित करने वाले में जो विशेषताएं पायी जानी चाहिए क्या वह विशेषताएं मनुष्य में पायी जाती हैं। निसंदेह मनुष्य के सीमित ज्ञान और उसकी अज्ञानता के कारण मनुष्य उस आदर्श नगर की स्थापना नहीं कर सकता जो समस्त बुराइयों और कमियों से पवित्र हो। लोगों द्वारा बनाए गये क़ानून की सबसे बड़ी कमी, मनुष्य और उसके विभिन्न आयमों से उसकी अज्ञानता के कारण है। बुद्धि और ज्ञानिंद्रियों से प्राप्त ज्ञान और सामान्य पहचान, जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है किन्तु समस्त सामाजिक व व्यक्तिगत आयामों व लोक परलोक में वास्तविक कल्याण और परिपूर्णता के मार्ग की पहचान पर्याप्त नहीं है और यदि इस कमी की भरपाई के लिए दूसरे मार्ग न होते तो मनुष्य की रचना का ईश्वरीय लक्ष्य व्यवहारिक न होता। वह ईश्वरीय संदेश अर्थात वही का मार्ग है जो ईश्वरीय दूतों पर होती है। मनुष्य के जीवन के समस्त आयामों को शामिल करना और मनुष्य के चलने का मार्ग निर्धारित करना, न केवल यह कि एक या कई लोगों के बस की बात नहीं है बल्कि मानव विज्ञान से जुड़े हज़ारों लोगों का गुट भी इस जटिल फ़ार्मूले की खोज और उसे सूक्षम क़ानूनी रूप में बयान नहीं कर सकता, इस प्रकार से कि मनुष्य के समस्त सामाजिक, भौतिक, अध्यात्मिक और व्यक्तिगत हितों की हो सके। मानव इतिहास में निरंतर क़ानूनों के परिवर्तित होने की प्रक्रिया, इस बात का चिन्ह है कि हज़ारों विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं के अथक प्रयासों के बावजूद अभी तक एक परिपूर्ण और सही क़ानूनी व्यवस्था जिसमें समस्त आयाम मौजूद हों, अस्तित्व में न आ सकी। अलबत्ता इन समस्त क़ानूनों को बनाने में ईश्वरीय क़ानूनों और नियमों से भरपूर लाभ उठाया गया है।
ईश्वरीय क़ानून कई प्रकार के होते हैं जिसकी ओर पवित्र क़ुरआन में संकेत किया गया है। इन्हीं में से एक क़ानूने तकवीनी है अर्थात वह क़ानून जिसके अंतर्गत सृष्टि की व्यवस्था चल रही है। जैसे सूर्य का अपने समय पर निकलना और डूबना, पानी का भाप और भाप का वर्षा में परिवर्तित होना, बीज का एक फलदार वृक्ष में परिवर्तित होना और गर्भ में बच्चे का अपनी परिपूर्णता की मंज़िलें तय करना इत्यादि। इस क़ानून की ओर पवित्र क़ुरआन के सूरए ताहा की पचासवीं आयत संकेत करते हुए कहती है कि वही हमारा ईश्वर है जिसने हर वस्तु को उसी प्रकार पैदा किया जैसा उसका हक़ था और उसके बाद उसका मार्गदर्शन किया।
सृष्टि में मौजूद प्रत्येक वस्तुएं एक विशेष प्रकार से अपनी परिपूर्णता के मार्ग को तय करती हैं और कभी अपने निर्धारित फ़्रेम से नहीं निकलती। अर्थात कभी एसा नहीं होता कि सूर्य अपने निर्धारित समय से एक दो घंटे के बाद निकलने।
दूसरे प्रकार का ईश्वरीय क़ानून, क़ानूने तशरीई है जो लोगों से विशेष है। यह क़ानून सृष्टि और रचयिता और लोगों के आपस में संबंध को न्यायिक रूप से बनाता और व्यवस्थित करता है। ईश्वर ने इस क़ानून को अपने दूतों अर्थात पैग़म्बरों के माध्यम से लोगों के सामने पेश किया जिसे धार्मिक भाषा में हिदायते तशरीई कहते हैं। सूरए बक़रह की आयात क्रमांक 213 में आया है कि मूसा ने कहा कि हमारा ईश्वर वह है जिसने हर वस्तु को उसकी उचित सृष्टि प्रदान की है और उसका मार्गदर्शन भी किया।
इस आयात में इस वास्तविकता की ओर संकेत किया गया है कि ईश्वरीय दूतों के भेजे जाने का एक कारण ईश्वरीय क़ानूनों के माध्यम से लोगों के मध्य पाये जाने वाले मतभेद को दूर करना है। इस प्रकार से ईश्वर ने लोगों को बिना मार्गदर्शन और क़ानून के नहीं छोड़ा। विभिन्न आयतों में ईश्वर इस वास्तविकता की ओर संकेत करते हुए कहता है कि हमने लोगों को मार्गदर्शन की राह दिखायी और अंतिम क़ानूनी पुस्तक व ईश्वरीय संदेश के रूप में पवित्र क़ुरआन, मार्गदर्शन का बेहतरीन और उच्चतम मार्ग है। जैसा कि सूरए असरा की आयत क्रमांक 9 में आया है कि निसंदेह यह क़ुरआन उस मार्ग को दिखाता है जो बिल्कुल सीधा है और उन ईमान वालों को शुभ सूचना देता है जो भले कार्य करते हैं उनके लिए बहुत बड़ा पारितोषिक है।
प्रवृत्ति और कार्यक्षेत्र की दृष्टि से ईश्वरीय क़ानून और लोगों द्वारा बनाए गये क़ानून में बहुत अंतर है। लोगों द्वारा बनाए गये समस्त क़ानूनों का लक्ष्य, भौतिक और सांसरिक चीज़ों से भरपूर लाभ उठाने के लिए लोगों का मार्ग दर्शन करना है जबकि मनुष्य की परिपूर्णता और उसका कल्याण भौतिक चीज़ों तक सीमित नहीं है। मनुष्य के आंतरिक व आत्मिक आयामों की श्रेष्ठता ही सबसे महत्त्वपूर्ण है जिसकी प्राप्ति के लिए लोगों द्वारा बनाए गये क़ानून पूर्ण रूप से अक्षम हैं। यह कहा जा सकता है कि मनुष्य का कल्याण, ईश्वरीय क़ानूनों को समझने और लागू करने में ही है और इसमें किसी भी प्रकार विघ्न उत्पन्न नहीं होता। ईश्वरीय क़ानूनों की महत्त्वपूर्ण विशेषता, उसका नैतिकता और शिष्टाचार से जुड़ा हुआ होना है। सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर जो चीज़ क़ानून को प्रभावित करती है वह नैतिक शक्ति और क़ानून पर अमल करने की सामाजिक व व्यक्तिगत प्रतिबद्धता है। धर्म की नैतिक व शिष्टाचारिक प्रवृत्ति, दिलों की गहराईयों में इसकी शिक्षाओं के उतरने का कारण बनती है और ईमान वालों को क़ानून की प्रतिबद्धता और उस पर चलने पर प्रेरित करती है। ईमान वालों की नज़र में ईश्वरीय शिक्षाएं, नैतिक मूल्यों और वास्तविक हितों पर आधारित होती है। इस आधार पर एक मुसलमान और मोमिन व्यक्ति अपने धार्मिक दायित्वों पर कटिबद्ध रहता है। धार्मिक चीज़ों पर बिना चूं चरा के अमल करना एक प्रकार की उपासना है और इससे बंदा ईश्वरीय सामिप्य प्राप्त करता है।
धार्मिक शिक्षाओं के आधार पर मनुष्य का वास्तविक महत्त्व, ईश्वर के सामिप्य, उससे निकटता और उसकी पहचान के स्तर पर निर्भर होता है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि पवित्र क़ुरआन में बयान होने वाले अधिकतर क़ानून और आदेश, सदैव से एक याद दिलाने वाले या नैतिक परिणाम देने वाले रहे हैं। उदाहरण स्वरूप रोज़े को ईश्वरीय भय, जेहाद को ईश्वर की याद, तलाक को अत्याचार और अतिक्रमण से दूरी और सम्मान व न्याय से ईश्वर व उसके दूतों के अनुसरण को न्याय और अदालत से जोड़ा गया है। इस प्रकार के संबंध कारण बनते हैं कि मनुष्य बड़ी सरलता और बड़े उत्साह के साथ क़ानून का पालन करता है क्योंकि नैतिकता और ईश्वरीय भय के साथ अमल करना, ईश्वरीय सामिप्य का कारण बनता है।
पूरे इतिहास में हम यह देखते हैं कि कुछ लोगों ने समाज में अनुशासन लाने या दूसरे उद्देश्य के लिए क़ानून बनाया और उसे क्रियान्वित किया है किन्तु मानवीय अनुभव यह दर्शाता है कि उसके क़ानून एक ऐसे समाज के गठन में अक्षम रहे जिसमें मनुष्य के बहुआयामी कल्याण सुनिश्चित हों और इन क़ानून को क्रियान्वित कराने वाले भी जिस प्रकार क़ानून पर अमल और उसका सम्मान करना चाहिए था, न कर सके। केवल ऐसे क़ानून स्वस्थ समाज की भूमि समतल कर सकते हैं जिन्हें ईश्वर ने बनाया है और केवल उन लोगों ने ईश्वरीय क़ानून पर अमल किया और उसका सम्मान किया जो उसके दूत और दूतों के वास्तविक उत्तराधिकारी थे। ईश्वरीय क़ानूनों में सबसे संपूर्ण व व्यापक क़ानून इस्लामी क़ानून है जिसे ईश्वर ने अपने अंतिम दूत के द्वारा लोगों तक पहुंचवाया।
क़ानून का पहला परिणाम अनुशासन है इसलिए क़ानून को अनुशासन के समतुल्य कहना ग़लत न होगा। ऐसे क़ानूनों की अवहेलना कि जिन्हें सामाजिक जीवन के आम व्यवहार के निरीक्षण के लिए बनाया गया है, समाज को संकटग्रस्त बनाकर बंद गली में पहुंचा सकती है। जिस समाज में क़ानून का पालन न होगा ऐसे समाज में हर प्रकार के व्यवहार की संभावना मौजूद होती है। व्याकुलता, विद्रोह और दूसरों के अधिकार पर अतिक्रमण क़ानून के अभाव का स्वाभाविक परिणाम है। जिस समय पवित्र क़ुरआन नाज़िल हुआ, लोग अनुशासनहीनता और मनमुटाव के शिकार थे। पवित्र क़ुरआन उस समय के पिछड़े हुए समाज की स्थिति को सूरए आले इमरान की आयत क्रमांक 103 में इस प्रकार बयान करता हैः ईश्वर की अनुकंपाओं को याद करो कि तुम लोग आपस में एक दूसरे के शत्रु थे, उसने तुम्हारे मन में एक दूसरे के प्रति प्रेम पैदा किया और उसकी अनुकंपा से आपस में भाई बन गए और तुम आग के गढ़े की कगार पर थे कि ईश्वर ने तुम्हें उससे मुक्ति दिलाई।
पवित्र क़ुरआन, उस समाज में अनेकेश्वरवाद, प्रलय का इंकार, अंधविश्वास, नैतिक भ्रष्टाचार, अपने से कमज़ोर का शोषण, शैतान, अज्ञानता और पथभ्रष्टता का पालन जैसी विशेषताओं का उल्लेख करता है। ऐसी बुराइयों के दौर में पवित्र क़ुरआन उतरा और उसने उस समाज के भविष्य को अपने व्यापक क़ानून द्वारा बदल दिया। इस प्रकार ईश्वरीय क़ानून परेशानी के स्थान पर शांति, अस्तव्यस्तता के स्थान पर अनुशासन, शत्रुता व रक्तपात के स्थान पर प्रेम व भाईचारे का उपहार लाया। धर्म की यह विशेषता हर काल में प्रासंगिक है यदि उस पर अमल किया जाए। जो समाज भी धर्म के निमयानुसार कल्याण के मार्ग पर चले तो हर समय व स्थान पर यह संभावना मौजूद है।
क़ानून के चलन का एक उद्देश्य न्याय की स्थापना भी है। सब यह चाहते हैं कि क़ानून न्याय स्थापित करे। क़ानून प्रायः उस निष्पक्ष पर्यवेक्षक की भांति होता है जिससे, न्याय के आधार पर लोगों के अधिकार के निर्धारण की अपेक्षा की जाती है और इस संदर्भ में उसे इस प्रकार व्यवहार करना चाहिए कि मनुष्य की बुद्धि व चेतना उसे पूरी तरह स्वीकार कर ले। न्यायपूर्ण क़ानून वह है जो बुद्धि के आधार पर मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुरूप हो न कि व्यक्तिगत इच्छाओं या किसी गुट के हित के आधार पर हों
पवित्र क़ुरआन में ईश्वरीय दूतों और आसमानी किताबें भेजने का उद्देश्य न्याय की स्थापना बताया गया है और इस्लाम में न्याय से संबंधित एक नियम यह है कि क़ानून की दृष्टि में सब बराबर हैं। स्वाभाविक रूप से मनुष्य को एक दूसरे पर कोई वरीयता नहीं है। प्रवृत्ति, रचानाकार, और सृष्टि सबका उद्देश्य एक है। न तो किसी को दासता के लिए पैदा किया गया है और न ही किसी विशेष समूह को शासन करने का अधिकार प्राप्त है। क़ुरआन के क़ानून के आधार पर ईश्वर से भय वरीयता का आधार है और वह भी परलोक में। इस्लाम के न्यायपूर्ण क़ानून जो पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण से निकले हैं, जीवन के सभी आयाम को अपनी परिधि में लिए हुए हैं। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय क़ानूनों के क्रियान्वयन से सभी क्षेत्रों में न्याय स्थापित हो जाएगा जैसे शासन में न्याय, वंचितों के दुख का निवारण, क़ानून बनाने में न्याय, लोगों में समानता, सभी को समान अधिकार की प्राप्ति और आर्थिक तथा सामाजिक न्याय।
मनुष्य का ईश्वर से संबंध, मनुष्य का प्रकृति से, स्वंय से और अन्य लोगों से संबंध, उन क्षेत्रों में शामिल हैं जिनके संबंध में पवित्र क़ुरआन तथा पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के आचरण में सही नियम व क़ानून मिलते हैं कि इन नियमों व क़ानून पर अमल करने से इस प्रकार के संबंध सुव्यवस्थित हो जाएंगे और हर चीज़ अपनी सीमा में रहेगी। पवित्र क़ुरआन ने मनुष्य के पतन के कारणों के निवारण के लिए भी व्यापक एवं अमर क़ानून पेश किए हैं कि जिन पर अमल करके लोग अंधकार से मुक्त होकर वास्तविक परिपूर्णतः तक पहुंच जाएंगे। ईश्वरीय क़ानून के सही क्रियान्वयन से क्षमताएं निखरती हैं, आवश्यक स्वतंत्रता की सीमा निर्धारित होती है, अत्याचार व एकाधिकार का मार्ग बंद हो जाता है और सभी मनुष्य समन्वित रूप से परिपूर्णता की ओर अग्रसर होते हैं।
जैसा कि आप जानते हैं कि क़ानून के क्रियान्वयन के संबंध में महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि उस पर अमल के लिए गैरन्टी, स्वंय मनुष्य के अस्तित्व में निहित है। ईश्वर पर श्रद्धा रखने वाले मोमिन व्यक्ति से धार्मिक आदेशों का पालन करवाने के लिए उसके सिर पर डंडा लेकर खड़े होने की ज़रूरत नहीं पड़ती बल्कि मोमिन व्यक्ति ख़ुद तो भले कर्म करता ही है साथ में दूसरों को भी भले कर्म के लिए प्रेरित करता और बुराई से मना करता है। ईश्वर पर श्रद्धा, मनुष्य की सबसे बड़ी पूंजि है। कठिनाइयों का डट कर मुक़ाबला करना, निर्णय लेने में दूरदृष्टि और सांसारिक व अभौतिक विभूतियां प्राप्त करने की क्षमता पैदा होना, ईश्वर पर आस्था से मिलने वाले अन्य लाभ हैं। मोमिन व्यक्ति ख़ुद से पूरी निष्ठा के साथ ईश्वरीय आदेशों को जानने और उन पर अमल करने का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में ईश्वर के आदेश के सामने नत्मस्तक होता है। मनुष्य में ईश्वरीय आदेशों के पालन की भावना जितनी प्रबल होगी उस पर अलम करने के लिए वह उतना ही तत्पर होगा। ईश्वर पर श्रद्धा और उसके आदेशों का पालन एक ही सिक्के के दो रुख़ हैं और दोनों एक दूसरे पर परस्पर प्रभाव डालते हैं इसलिए धार्मिक आस्था का सुदृढ़ होना क़ानून को फैलाने का सबसे पहला व सबसे प्रभावी मार्ग है। इस प्रकार लोग बिना किसी निरीक्षक के क़ानून का पालन करते हैं। सभी समस्याओं पथभ्रष्टता और क़ानून के उल्लंघन का कारण ईश्वर पर श्रद्धा न होना है। जबकि ईश्वर पर श्रद्धा रखने वाले मोमिन व्यक्ति को यह विश्वास होता है कि ईश्वर उसके निहित व विदित रूप को जानता है। इसी प्रकार मोमिन व्यक्ति को इस बात पर भी विश्वास होता है कि ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन करने पर दो प्रकार के दंड मिलते हैं एक इस संसार में और दूसरा परलोक में और परलोक में मिलने वाला दंड अधिक कठोर है। यदि सांसारिक दंड से बच भी निकले तो परलोक के दंड से बच नहीं सकेगा। जैसाकि धार्मिक शिक्षाओं के पालन से परलोक में बेहतर पारितोषिक मिलेगा। इस विश्वास से लोगों के व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवहार में बहुत बदलाव आता है और उन्हें क़ानून के उल्लंघन और ग़लतियों से बचाता है।
स्वस्थ सामाजिक जीवन उसे कहते हैं जिसमें लोग एक दूसरे के अधिकार का सम्मान करते हैं, न्याय को महत्व देते हैं और एक दूसरे से प्रेम करते हैं। ऐसे समाज में हर व्यक्ति दूसरे के लिए वही पसंद करता है जो वह अपने लिए पसंद करता है और जो अपने लिए पसंद नहीं करता वह दूसरों के लिए भी पसंद नहीं करता और सब एक दूसरे पर विश्वास करते हैं। मनुष्य के मन में नैतिक मूल्यों का बैठ जाना और नैतिक मूल्यों का सम्मान करने से मनुष्य अपने मन को एक प्रकार से वश में कर लेता है और उसे क़ानून के पालन के प्रति समर्पित करता है। नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों का पालन करने वाले व्यक्ति व समाज में क़ानून के पालन का रुझान पाया जाता है जिसे बुद्धि स्वीकार करती है और मूल्यवान उदाहरणों से भी इसकी पुष्टि होती है। इस्लाम के बहुत से नैतिक आदेशों में सामाजिक आयाम भी निहित हैं कि जिनके पालन से, स्वाभाविक रूप से क़ानून भी क्रियान्वित हो जाता है। केवल एक नैतिक मूल्य के पालन का समाज में बहुत अधिक सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यदि सभी क़ानून के समक्ष नत्मस्तक हों तो इसके परिणाम में क़ानून का राज होगा और लोग दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण के बजाए उनकी भलाई में अपने अधिकार को छोड़ देंगे। मनुष्य को यह समझना चाहिए कि यदि अपने बारे में सोच रहा हो तब भी दूसरों के अधिकारों का सम्मान करे।
शिष्टाचार के महत्व के दृष्टिगत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने भी स्वंय के ईश्वरीय दूत बनाकर भेजे जाने का उद्देश्य नैतिक मूल्यों को उसके शिखर पर पहुंचाना बताया। क्योंकि शिष्टाचार द्वारा क़ानून का भी सम्मान होता है और उस पर अमल भी होता है। इस बात में संदेह नहीं कि इस्लामी संस्कृति व सभ्यता के विस्तार में पैग़म्बरे इस्लाम को सफलता दिलाने में सबसे महत्वपूर्ण कारक, स्वंय उनका क़ानून पर अमल करना तथा ईश्वरीय क़ानूनों के प्रति उनका समर्पण था जो उनके आचरण में कूट कूट कर भरा था। क़ानून का सम्मान और उसका उल्लंघन करने वालों को न्याय के साथ दंडित करने तथा सत्य के पालन को इस्लाम में बहुत महत्व दिया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम भी इस संदर्भ में विशेष ध्यान देते थे।
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