और दोबार आँखें देखने लगीं....

और दोबार आँखें देखने लगीं....

किताब अलरौज़ा में रिवायत हैं कि 652 हिजरी  में वास्ता में इब्ने सलामा फ़राज़ी था। जिस की दाई आँख की रौशनी चली गई थी। इब्ने सलमा एक आँख से मजबूर होने के कारण कोई कार्य नहीं कर सकता था। और इब्ने हनज़ला का क़र्ज़ दार था। एक दिन इब्ने हनज़ला ने क़र्ज़ के बारे में कहा।

इब्ने सलामा ने हज़रत अली (अ) से फ़रियाद की। ख़्वाब में उस ने अज़ाउद्ददीन तैय्येबी को एक व्यक्ति के साथ देखा। उस ने अज़ाउद्ददीन से पूछा कि यह कौन हैं?

अज़ाउद्ददीन ने बताया कि यह तेरे आक़ा हज़रत अली (अ) हैं।

इब्ने सलामा आप के पैरों में गिरा। और कहा कि मौला आँख भी चाहिए। और अदाएगी क़र्ज़ भी। आप ने फ़रमाया। घबराओ ना दोनों कार्य हो जाएगें। सुबह आँख भी मिल जाएगी। और क़र्ज़ भी अदा हो जाएगा। आप ने दायी आँख पर हाथ फेरा और फ़रमाया:

हे ईश्वर इसे दोबारा सही व सालिम कर दें। जिस प्रकार पहली बार अपना करम किया था।

अबू सलामा कहता हैं। कि मैं सुबह को उठा तो मेरी दायी आँख पहले की तरह रौशन थी। और सरहाने देखा तो क़र्ज़ के पैसे भी रखे थे। उठ कर इब्ने हनज़ला के पास गया। और उसका क़र्ज़ अदा कर दिया। और वास्ता के हर व्यक्ति ने अबू सलमा की सही आँख देखी।

(दमअतुस साकेबा पेज 380)

नई टिप्पणी जोड़ें