लो क़मा और ज़ंजीर के बाद अब गोलियों का मताम आ गया
बुशरा अलवी
अभी तक तो हम इसी बात पर लड़ रहे थे कि क़मा और ज़ंजीर का मामत जाएज़ है या नहीं, और इसी बात पर एक दूसरे को हुसैनी और यज़ीदी शिया क़रार दे रहे थे, कोई क़मा और ज़ंजीर करके अपने आप को सच्चा हुसैनी साबित करने की कोशिश कर रहा हैं तो कोई उसका विरोध करके अपने आप को सच्चा विलाई और मौलाई साबित करने पर तुआ हुआ है कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं है, हर कोई दूसरे को बर्दाश्त करना अपनी तौहीन समझ रहा है।
लेकिन कहते हैं न कि अगर किसी चीज़ को कोई सीमा न हो तो वहां कहां तक जाएगी इसका कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता है, अगर नदी का तट टूट जाए तो उसका पानी बस्तियों में घुस जाता है, बस्ती और बस्ती वालों की भलाई इसी में होती है कि बारिश के मौसम से पहले ही तट को मज़बूत कर दे।
अज़ादारी भी इस दुनिया के उन्ही कार्यों में से है कि अगर उनको अहलेबैत की बताई हुई सीमाओं में रखा गया तो उसका सवाब जन्नत होता है, एक आँसू की क़ीमत यह हो जाती है कि सय्यदए कौनैन उसके अपने रूमाल में जगह देती हैं, लेकिन जब वह अहलेबैत की बताई हुई सीमाओं से आगे निकल जाती है तो कभी हमको हज़रत क़ासिम की शादी दिखाई देती है, को कुछ ज़ाकिर यह पढ़ते हुए दिखाई देते हैं कि हज़रत क़ासिम की शादी का जहेज़ सत्तर ऊँटों पर लादा गया था, वह भूल जाते हैं कि हमने अभी अभी पढ़ा है कि उनकी शादी कर्बला में हुई थी जहां दूसरी सहूलियात तो दूर की बात है पानी तक मयस्सर नहीं था, और दूसरी तरफ़ एक दूसरा जाहिल ज़ारिक एक क़दम और आगे जाते हुए पढ़ता हुआ दिखाई देता है कि जब हज़रत ज़ैनब ने अपने भाई का लाशा देखा तो अपने सर को महमिल से टकरा दिया जिसके बाद उनके सर से खून जारी हो गया और हम यह क़मा का मातम हज़रत ज़ैनब के उसी अमल की याद के तौर पर मनाते हैं, लेकिन यही नाम निहाद ज़ाकिर यह भूल जाता है कि तारीख़ तो दूर की बात हैं शियों का बच्चा बच्चा यह जानता है कि जब उमरे सअद मलऊन अहले हरम को असीर करके ले शाम ले जाता है तो उनको बे कजावा ऊँटों पर सवार किया जाता है, तो जब ऊँटों पर कजावे न थे तो महमिल....... सोंचने का मक़ाम है
देखें और दो शिया काफ़िर हो गए
हां तो मैं बात कर रही थी कि जब किसी चीज़ को कंट्रोल करने के लिए कोई सीमा न हो तो वह किसी भी हद तक जा सकती है, अभी तक तो क़मा और ज़ंजीर के मामत पर ही वावैला था और अब गोलियों का भी मामत आ गया है, कल को तोपों, और मीज़ाइलों का मातम आ जाएगा, उसके बाद....
जब कि हम सभी अगर देखें तो शिया मज़हब जो अब तक तारीख़ में सुलह के मज़हब के तौर पर जाना जाता था को कुछ लोगों ने बदनाम करने और बदनुमा दिखाने के लिए पहले क़मा और ज़ंजीर का सहारा लिया, और इस कार्य से मज़हब को कितना नुक़सान हो रहा है इसका अंदाज़ा आप नेट पर एक छोटे से सर्च के ज़रिये से लगा सकते हैं, और जब मज़हब को बदनाम करने वाली लाबी ने देखा कि क़मा और ज़ंजीर अब पुराना होता जा रहा है अब कुछ नया करना चाहिए तो इस बार गोलियों का मामत सामने लाए हैं।
जबकि क्लिप देख कर ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अगर गोलियां चलाने वाला सच्चा हुसैन का चाहने वाला होता तो कपड़े में छिपा कर गोली नहीं चलाता, और अगर वह सच में हुसैन पर अपनी जान निछावर करना चाहता तो सीरिया या इराक़ गया होता जहां पर आतंकवादी रोज़ ही पाक रौज़ों के लिए ख़तरा बने हुए हैं और जहां इस तरह शहादत का जज़बा रखने वालों की ज़रूरत है।
इतनी सी बात तो कोई बे अक़्ल भी समझ सकता है कि अपने इस घिनौने कार्य की क्लिप बनाकर नेट पर डालने का मक़सद हुसैनियत को बढ़ावा देना तो क़त्ई नहीं है, बल्कि इस तरह से हुसैनियत और हुसैन के सच्चे अज़ादारों को बदनाम करना मक़सद है।
तो खुदारा हम होश में आएँ, हम मलंग नहीं है, हम हुसैन के शिया हैं, हम हिन्दुस्तान के चिलम चरस और गांजे ने नशे में डूबे हुए कोई साधु या बाब नहीं हैं हम उस हुसैन के मानने वाले हैं जिसको अपने आख़िरी सजदे तक पता था कि वह क्या कर रहा है और इस क़ुरबानी का मकसद क्या है।
बहुत हो गया क़मा, ज़ंजीर, और गोलियों का मामत आईए हम सब मिल कर करें हुसैन का मातम
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