सऊदी अरब और अमरीका “दोस्ती” से “दुश्मनी” तक
सीनेट और अमरीकी संसद द्वारा आतंकवाद समर्थकों के विरुद्ध कार्यवाही के क़ानून पर एकमत से वोट दिए जाने ने ओबमा द्वारा किए गए वीटो को निष्प्रभावी कर दिया है और इसी के साथ ही अमरीका का एक सहयोगी देश अब दुश्मन में बदल गया है जिसके बाद अब अमरीका की धमकियों और वसूलियों का नया दौर शुरू हो जाएगा।
अरब के प्रसिद्ध पत्रकार अतवान ने राय अलयौम में संपादकीय में लिखाः अमरीकी संसद और कांग्रेस की तरफ़ से उस कानून के पक्ष में पोट दिए जाने ने जिसके बाद 9/11 में मारे जाने वाले लोगों के परिवार वालों को सऊदी अरब के विरुद्ध मुक़द्दमा करने और उससे जुरमाना वसूलने की छूट देता है, अगरचे ओबामा ने पहले इस क़ानून को वीटो किया था लेकिन अमरीकी संसद ने उसके विरुद्ध वोट करके ओबामा के वीटो को निष्क्रिय कर दिया है। लेकिन जिस चीज़ ने सबको आश्चर्य चकित किया है वह है इस कानूक का इतनी तीव्रता के साथ पास होना और और ओबामा के वीटो के विरुद्ध इनती जल्दी वोटिंग होना और उसको दोबारा पास किया जाना है।
देखने वाली बात यह है कि सीनेट के 97 सदस्यों में से केवल एक ने ही इस क़ानून के विरुद्ध वोट दिया, जो दिखाता है कि पिछले 70 सालों से अमरीका सहयोगी देश रहने वाले सऊदी अरब के प्रति लोगों में कितना क्रोध भरा हुआ है।
इस संपादकीय में वह आगे लिखते हैं कि अमरीका और सऊदी अरब के बीच स्ट्रैटेजिक संबंधों की बुनियाद 1945 में मलिक अब्दुल अज़ीज़ बिन अब्दुर्रहमान और उस समय के अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट डाली गई थी जिसकी आज एक्पाएरी डेट का एलान किया गया है, क्योंकि अब अमरीका अब न तो सऊदी अरब की ज़रूरत नहीं रह गई है और न ही उसके तेल की।
अतवान लिखते हैं कि इन दोनों देशों के बीच का स्ट्रैटेजिक संबंध “सऊदी अरब का तेल और अमरीका का समर्थन” की नीव पर टिका हुआ था लेकिन अमरीका में अब जब कि ख़ुद रोज़ाना 10 मिलयन बैरल तेल निकाला जाने लगा है तो इस देश को सऊदी अरब के तेल की आवश्यकता नहीं रह गई है, और इसी के साथ पुराना “दोस्त” “दुश्मन” में बदल गया है।
आज सऊदी अरब की हालत पतली हो चुकी है क्योंकि इस क़ानून के पास होने के साथ ही सऊदी अरब के साथ वसूली का नया दौर शुरू हो जाएगा और इस समय तेल की गिरती क़ीमतों और लीबिया, सीरिया एवं यमन में सऊदी अरब की तरफ़ से आतंकवादियों को जारी समर्थन ने उसकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ रखी है जिसके बाद से सऊदी अरब ने बजट को कम किया है।
अतवान ने लिखा- अमरीका में इस समय सऊदी अरब ने 750 अरब डॉलर का इनवेस्ट कर रखा है जिसमें से 119 अरब डॉलर विनिमय की सूरत में अमरीकी ख़ज़ाने में है जिसको अमरीकी पीड़ितों की पहली क़िस्त के तौर पर देखा जा रहा है जिसके बारे में कह गया है कि सऊदी अरब को अमरीका के पीड़ितों तो 303 खरब डॉलर अदा करने होंगे, और अगर ऐसा हुआ तो सऊदी अरब को सालों तक अमरीका को मुआवेज़ा देना होगा।
वह लिखते हैं कि इस क़ानून के पास किये जाने के संबंध में अमरीका ने सऊदी अरब के विदेशमंत्री आदिल अलजबीर की धमकियों को पर कोई कान नहीं धरा जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर अमरीका में सऊदी अरब के विरुद्ध क़ानून पास किया गया तो सऊदी अरब अपना पैसा अमरीका से निकाल लेगा, और उसके बाद सऊदी अरब के वली अह्द मोहम्मद बिन सलमान की हथियार ख़रीद की सूरत में अमरीका को पैसा दिए जाने और वहां की अर्थव्यवस्था को शक्ति देने की लालच ने भी कोई असर न किया, क्योंकि अमरीका की सत्ता ने सोंच लिया था कि सऊदी अरब के विरुद्ध दुश्मनी की तलवार खींचनी है और अमरीकी कांग्रेस के पास भी इस क़ानून को पास करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। और ओबामा का वीटो केवल दिखावा मात्र था।
वह लिखते हैं: देशों की प्रतिरक्षा नहीं है, और सहयोग भी सदैव का नहीं है, और “अरबों से दोस्ती” नाम के नारे का वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है जब भी अमरीकी सत्ता किसी व्यवस्था को गिराने को ठान लेती है तो अमरीकी व्यवस्था में बैठे शीर्ष स्तर को लोगों के वजूद की कोई अहमियत नहीं रह जाती है जैसे कि इस मामले में ओबामा के वीटो को अहमियत दिए बिना सऊदी अरब के विरुद्ध क़ानून पास कर दिया गया।
अतवान ने अमरीकियों द्वारा सऊदी अरब के इस्तेमाल का इतिहास बताते हुए लिखाः अमरीका ने पहले इराक़ को बरबाद किया, फिर लीबिया पहुँचा, वहां से सीरिया की रुख़ किया और अरब देशों एक अरब लीग के पैसे को इन बरबाद करने वाली पालीसियों में बरबाद कर दिया और अब सऊदी अरब की बारी है, जिसने बिना किसी सोच के इन तमाम जंगों में अमरीका का साथ दिया था।
अतवान अमरीका की सियासत के मुक़ाबले में सऊदी अरब की सियासत के बारे में लिखते हैं: मुझे नहीं लगता कि इस्राईल की गोद में बैठ जाने के सऊदी अरब को कोई मदद मिलने वाली है जैसे कि कुछ लोग इस्राईल के साथ संबंधों को सामान्य बनाए जाने की वकालत कर रहे हैं, अलग सऊदी अरब को अमरीका से मुक़ाबला करना है तो उसको अपने अंदर बदलाव करना होगा और हमें पता है कि सऊदी अरब केवल अपनी सरहदों और दूसरे देशों में बदलाव का सपना देखता रहता है और वह कभी भी अपनी पालीसियों को नहीं बदलेगा।
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