क़ुरआन और महिलाओं का महत्व
क़ुरआन और महिलाओं का महत्व
इस्लाम में औरतों के विषय पर ग़ौर करने से पहले इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि इस्लाम ने सोंच को उस समय बयान किया है कि जब बाप अपनी बेटी को ज़िन्दा दफ़्न कर देता था। और उस जल्लादीयत को अपने लिये सम्मान और शराफ़त समझता था। औरत दुनिया के किसी भी समाज में महत्व नहीं दिया जाता था। औलाद माँ को बाप की मीरास में हासिल किया करती थी। लोग निहायत आज़ादी से औरत का लेन देन किया करते थे।और उसकी राय की कोई क़ीमत नही थी। हद यह है कि यूनान के फ़लासिफ़र इस बात पर बहस कर रहे थे कि उसे इंसानों की एक क़िस्म क़रार दिया जाये या यह एक ऐसी इंसान जैसी चीज़ है जिसे इस शक्ल व सूरत में इंसान की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पैदा किया गया है ताकि उससे हर प्रकार से प्रयोग कर सके वर्ना उसका इंसानीयत से कोई संबंध नही है।
आज के युग में औरत की आज़दी और बराबरी के अधिकारों का नारा लगाने वाले और इस्लाम पर तरह तरह के आरोप लगाने वाले इस हक़ीक़त को भूल जाते हैं कि औरतों के बारे में इल तरह की सम्मान जनक सोंच और उसके लिए अधिकारों का तसव्वुर भी इस्लाम का दिया हुआ है अगर इस्लाम ने औरत को अपमान के गरहाई से निकाल कर सम्मान के शिख़र पर न पहुँचा दिया होता तो आज भी कोई उसके बारे में इस अंदाज़ से सोचने वाला न होता। यहूदीयत और ईसाईयत तो इस्लाम से पहले भी थी, फ़लासिफ़ा व मुफ़क्केरीन तो इस्लामी क़वानीन के आने से पहले भी इन विषयों पर बहस किया करते थे। उन्हे उस वक़्त इस आज़ादी का ख़्याल क्यों नही आया। और उन्होने उस दौर में बराबरी का नारा क्यों नही लगाया। यह आज औरत के सम्मान का ख़्याल कहाँ से आ गया। और उसकी हमदर्दी का इस क़दर जज़्बा कहाँ से पैदा हो गया? वास्तव में यह इस्लाम के बारे में अहसान फ़रामोशी के अलावा कुछ नही है कि जिसने तीर अंदाज़ी सिखाई उसी को निशाना बना दिया, और जिसने आज़ादी और अधिकार का नारा दिया उसी पर आरोप लगा दिए गए।
बात सिर्फ़ यह है जब दुनिया को आज़ादी का ख़्याल पैदा हुआ तो उसने यह ग़ौर करना शुरु किया कि आज़ादी का यह मफ़हूफ़ तो हमारे देरीना मक़ासिद के ख़िलाफ़ है। आज़ादी की यह सोंच तो इस बात की दावत देती है कि हर मसले में उसकी मर्ज़ी का ख़्याल रखा जाये और उस पर किसी तरह का दबाव न डाला जाये और उसके अधिकारों का तक़ाज़ा यह है कि उसे मीरास में हिस्सा दिया जाये। उसे सम्पत्ती और दौलत में बराबर समझा जाए। लिहाज़ा उन्होने इसी आज़ादी और हक़ के शब्द को बाक़ी रखते हुए एक नई राह निकाली और यह ऐलान करना शुरू कर दिया कि औरत की आज़ादी का मतलब यह है कि वह जिसके साथ चाहे चली जाये, और उसके बराबरी के अधिकार का मतलब यह है कि वह जितने लोगों से चाहे सम्बंध स्थापित करें।
इससे ज़्यादा आज के युग के मर्दों को औरतों से कोई दिलचस्पी नही है। यह औरत को कुर्सी पर बैठाते हैं तो उसका कोई न कोई मक़सद होता है। और उसमें किसी न किसी बड़े और शक्ति शाली व्यक्ति का हाथ होता है, और यही वजह है कि वह क़ौमों की लीडर होने के बाद भी किसी न किसी लीडर की हाँ में हाँ मिलाती रहती हैं। और अंदर से किसी न किसी अहसासे कमतरी में मुब्तला रहती है। इस्लाम उसे साहिबे ऐख़्तियार देखना चाहता है लेकिन मगर मर्दो के माध्यम से नहीं। वह उसे चुनाव का हक़ देना चाहता है लेकिन अपनी शख़्सियत, अहमियत, सम्मान और इज़्ज़त का ख़ात्मा करने के बाद नही। उसकी निगाह में इस तरह का ऐख़्तियार मर्दों को हासिल नही है तो औरतों को कहाँ से हासिल हो जायेगा जबकि उसकी ईस्मत व ईफ़्फ़त की क़दर व क़ीमत मर्द से ज़्यादा है, और उसकी इफ़्फ़त जाने के बाद दोबारा वापस नही आती है जबकि मर्द के साथ ऐसी कोई परेशानी नही है।
इस्लाम मर्दों से भी मुतालेबा करता है कि जिन्सी तसकीन के लिये क़ानून का दामन न छोड़ें और कोई क़दम ऐसा न उठायें जो उनकी ईज़्ज़त व शराफ़त के ख़िलाफ़ हो। चुनान्चे उन तमाम औरतों की निशानदही कर दी गयी जिनसे जिन्सी रिश्ता हराम है। उन तमाम हालात की निशानदही कर दी गयी जिनमें जिन्सी तअल्लुक़ात का जवाज़ नही है। उन तमाम सूरतों की तरफ़ इशारा कर दिया गया जिनसे साबेक़ा रिश्ता मजरूह हो जाता है। और उन तमाम तअल्लुक़ात को भी वाज़ेह कर दिया जिनके बाद फिर दूसरा जिन्सी तअल्लुक़ मुमकिन नही रह जाता है। ऐसे मुकम्मल और मुरत्तब निज़ामे ज़िन्दगी के बारे में यह सोचना कि उसने एक तरफ़ा फ़ैसला किया है। और औरतों के हक़ में नाइंसाफ़ी से काम लिया है ख़ुद उसके हक़ में नाइंसाफ़ी बल्कि अहसान फ़रामोशी है। वर्ना इससे पहले इसी के साबिक़ा क़वानीन के अलावा कोई इस सिन्फ़ का पुरसाने हाल नही था। और दुनिया की हर क़ौम में उसे निशाना ए ज़ुल्म व सितम बना लिया गया था।
इस मुख़्तसर तम्हीद के बाद इस्लाम के चंद इम्तेयाज़ी नुकात की तरफ़ इशारा किया जा रहा है जहाँ उसने औरत की मुकम्मल शख़्सियत का तआरूफ़ कराया जा रहा है। और उसे उसका वाक़यी मक़ाम दिलवाया है। औरत की हैसियत:
وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ (22).
(सूरह रूम आयत 21) “उसकी निशानीयों में से एक यह है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम्ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे उससे सुकुने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मुहब्बत व रहमत का जज़्बा भी क़रार दे रहा है”। आयते करीमा की तरफ़ दो बातों का तरफ़ इशारा किया जा रहा है:
1- औरत आलमे इँसानीयत ही का एक हिस्सा है। और उसे मर्द का जोड़ा बनाया गया है। उसकी हैसियत मर्द से कमतर नही है।
2- औरत का मक़सद वुजुदे मर्द की ख़िदमत नही है, मर्द का सुकूने ज़िन्दगी है। और मर्द व औरत के दरमियान तरफ़ैनी मुहब्बत और रहमत ज़रूरी है। यह एक तरफ़ा मामला नही है।
“وَإِنْ عَزَمُواْ الطَّلاَقَ فَإِنَّ اللّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ (228)..
”(सूरह बक़रा आयत 228)
“औरतों के लिये वैसे ही हुक़क़ है जैसे उनके ज़िम्मे फ़राएज़ है। और मर्दों को उनके ऊपर एक दर्जा और हासिल है।” यह दर्जा हाकिमीयते मुतलक़ा का नही है बल्कि ज़िम्मेदारी का है कि मर्दों की साख़्त में यह सलाहीयत रखी गयी है कि वह औरतों की ज़िम्मेदारी संभाल सकें। और इसी बेना पर उन्हे नान व नफ़क़ा और इख़राजात का ज़िम्मेदार बनाया गया है।
“رَبَّنَا وَآتِنَا مَا وَعَدتَّنَا عَلَى رُسُلِكَ وَلاَ تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِنَّكَ لاَ تُخْلِفُ الْمِيعَادَ (195).”
(सूरह आले ईमरान आयत 195) “तो अल्लाह ने उनकी दुआ को क़बूल कर लिया कि हम किसी अमल करने वाले के अमल को ज़ाया नही करते चाहे वह मर्द हो या औरत, तुम में से बअज़ बअज़ से है।” यहाँ पर दोनों के अमल को बराबर की हैसियत दी गयी है। और एक को दूसरे से क़रार दिया गया है।
“.إِن تَجْتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ نُكَفِّرْ عَنكُمْ سَيِّئَاتِكُمْ وَنُدْخِلْكُم مُّدْخَلاً كَرِيمًا (32)
सूरह निसा आयत 32) “और देखो जो ख़ुदा ने बअज़ को बअज़ से ज़्यादा दिया है। उसकी तमन्ना न करो। मर्दों के लिये उसमें से हिस्सा है जो उन्होने हासिल किया है, और औरतों के लिये उसमें से हिस्सा है जो उन्होने हासिल कर लिया है।” यहाँ भी दोनों को एक तरह की हैसियत दी गयी है। और हर एक को दूसरे की फ़ज़ीलत पर नज़र लगाने से रोक दिया गया है।
“.لاَّ تَجْعَل مَعَ اللّهِ إِلَهًا آخَرَ فَتَقْعُدَ مَذْمُومًا مَّخْذُولاً (23).
”(सूरह ईसरा आयत 23) “और यह कहो कि परवरदिगार उन दोनों(वालेदैन) पर उसी तरह रहमत नाज़िल फ़रमा जिस तरह उन्होने मुझे पाला है।” इस आयते करीमा में माँ और बाप को बराबर की हैसियत दी गयी है। और दोनों के साथ अहसान भी लाज़िम क़रार दिया गया है। और दोनों के हक़ में दुआए रहमत की भी ताकीद की गयी है।
“وَلَيْسَتِ التَّوْبَةُ لِلَّذِينَ يَعْمَلُونَ السَّيِّئَاتِ حَتَّى إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ الْمَوْتُ قَالَ إِنِّي تُبْتُ الآنَ وَلاَ الَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمْ كُفَّارٌ أُوْلَـئِكَ أَعْتَدْنَا لَهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا (19).
”(निसा 19) “ईमान वालो, तुम्हारे लिये जाएज़ नही है कि औरतों के ज़बरदस्ती वारिस बन जाओ और न यह हक़ है कि उन्हे अक़्द करने से रोक दो कि इस तरह जो तुम ने उनको रोक दिया है। उसका एक हिस्सा तुम ख़ुद ले लो जब तक वह खुल्लम खुल्ला बदकारी न करें , और उनके साथ मुनासिब बर्ताव करों कि अगर उन्हे नापसंद भी करते हो तो शायद तुम किसी चीज़ को नापसंद भी करो और ख़ुदा उसके अंदर ख़ैरे कसीर क़रार दे दे।
” “فَإِن طَلَّقَهَا فَلاَ تَحِلُّ لَهُ مِن بَعْدُ حَتَّىَ تَنكِحَ زَوْجًا غَيْرَهُ فَإِن طَلَّقَهَا فَلاَ جُنَاحَ عَلَيْهِمَا أَن يَتَرَاجَعَا إِنظَنَّا أَن يُقِيمَا حُدُودَ اللّهِ وَتِلْكَ حُدُودُ اللّهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ (231).
”(बक़रा 231) “और जब औरतों को तलाक़ दो और उनकी मुद्दते इद्दा क़रीब आ जाये तो चाहो तो उन्हे नेकी के साथ रोक लो बर्ना नेकी के साथ आज़ाद कर दो, और ख़बरदार नुक़सान पहुचाने की ग़रज़ से मत रोकना कि इस तरह ज़ुल्म करोगे, और जो ऐसा करेगा वह अपने ही नफ़्स का ज़ालिम होगा।” मज़कूरा दोनो आयात में मुकम्मल आज़ादी का ऐलान कर दिया गया है। जहाँ आज़ादी का मक़सद शरफ़ और शराफ़त का तहफ़्फ़ुज़ है। और जान व माल दोनों के ऐतबार से साहिबे इख़्तेयार होना है, और फिर यह भी वाज़ेह कर दिया गया है कि उन पर ज़ुल्म दर हक़ीक़त उन पर ज़ुल्म नही है बल्कि अपने ही नफ़्स पर ज़ुल्म है कि उनके लिये फ़क़त दुनिया ख़राब होती है। और इंसान उससे अपनी आक़ेबत ख़राब कर लेता है। जो ख़राबीये दुनिया से कहीं ज़्यादा बदतर बर्बादी है।
“وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالأَقْرَبُونَ وَالَّذِينَ عَقَدَتْ أَيْمَانُكُمْ فَآتُوهُمْ نَصِيبَهُمْ إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدًا.
”(निसा 34) “मर्द औरतों के निगराँ हैं उन ख़ुसुसियात की बेना पर जो ख़ुदा ने बअज़ को बअज़ के मुक़ाबले में अता की हैं। और इसलिये कि उन्होने अपने अमवाल को ख़र्च किया है।” आयते करीमा से बिल्कुल साफ़ वाज़ेह हो जाता है कि इस्लाम का मक़सद मर्द को हाकिमे मुतलक़ बना देना नही है। और औरत से उसकी आज़ादी ए हयात को सल्ब कर लेना नही है। बल्कि उसने मर्द को बअज़ ख़ुसुसियात की बेना पर घर का निगराँ और ज़िम्मेदार बना दिया है। और उसे औरत की जान, माल और आबरू का मुहाफ़िज़ क़रार दे दिया है। उसके अलावा इस मुख़्तसर हाकेमीयत या ज़िम्मेदारी को भी मुफ़्त नही क़रार दिया है बल्कि उसके मुक़बले में उसे औरत के तमाम इख़राजात व मख़ारिज का ज़िम्मेदार बना दिया है। और खुली हुई बात है कि जब दफ़्तर का अफ़सर या कारखाने का मालिक सिर्फ़ तनख्वाह देने की बेना पर हाकिमीयत के बेशूमार इख़्तियारात हासिल कर लेता है। और उसे कोई आलमे इंसानीयत की तौहीन नही क़रार देता है।
और दुनिया हर मुल्क इसी पाँलीसी पर अमल करता है तो मर्द ज़िन्दगी की तमाम ज़िम्मेदारीयाँ क़बूल करने के बाद अगर औरत पर यह पाबंदी आएद कर दे कि उसकी इजाज़त के बग़ैर घर से बाहर न जाए। और उसके लिये ऐसे वसाएले सुकून फ़राहम कर दे कि उसे भी बाहर न जाना पड़े । और दूसरे की तरफ़ हवस आमेज़ निगाह से न देखना पड़े तो कौन सी हैरत अंगेज़ बात है। यह तो एक तरह का बिलकुल साफ़ और सादा मामला है जो इज़्देवाज की शक्ल में मन्ज़रे आम पर आता है कि मर्द का कमाया हुआ माल औरत का हो जाता है और औरत की ज़िन्दगी का सरमाया मर्द का हो जाता है। मर्द औरत के ज़रूरीयात को पूरा करने के लिये घंटों मेहनत करता है।
और बाहर से सरमाया फ़राहम करता है और औरत मर्द की तसकीन के लिये कोई ज़हमत नही करती है बल्कि उसका सरमाया ए हयात उसके वुजूद के साथ है। इंसाफ़ किया जाये कि इस क़दर फ़ितरी सरमाये से इस क़दर मेहनती सरमाये का तबादला क्या औरत के हक़ में ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी कहा जा सकता है। जब कि मर्द की तसकीन में भी औरत बराबर की हिस्से दार होती है। और यह जज़्बा एक तरफ़ा नही होता है। और औरत के माल सर्फ़ करने में मर्द को कोई हिस्सा नही मिलता है। मर्द पर ज़िम्मेदारी उसके मर्दाना ख़ुसुसियात और उसकी फ़ितरी सलाहीयत की बेना पर ऱखी गयी है वर्ना यह तबादला मर्दों के हक़ में ज़ुल्म हो जाता और उन्हे शिकायत होती कि औरत ने हमें क्या सुकून दिया है। और उसके मुक़बले में हम पर ज़िम्मेदारीयों का किस क़दर बोझ लाद दिया गया है। यह ख़ुद इस बात की वाज़ेह दलील है कि यह जिन्स और माल का सौदा नही है। बल्कि सलाहीयतों की बुनियाद पर तक़सीमे कार है।
औरत जिस क़दर ख़िदमत मर्द के हक़ में कर सकती है. उसका ज़िम्मेदार औरत को बना दिया गया है। और मर्द जिस क़दर ख़िदमत औरत की कर सकता है। उसका उसे ज़िम्मेदार बना दिया गया है। और यह कोई हाकिमीयत या जल्लादीयत नही है कि इस्लाम पर नाइंसाफ़ी का इल्ज़ाम लगा दिया जाये। और उसे हुक़ुक़े निसवाँ का ज़ाया करने वाला क़रार दे दिया जाये। यह ज़रूर है कि आलमे इस्लाम में ऐसे मर्द बहरहाल पाये जाते हैं जो मिज़ाज़ी तौर पर ज़ालिम, बेरहम और जल्लाद हैं। और उन्हे जल्लादी के लिये कोई मौक़ा नही मिलता है तो उसकी तसकीन का सामान घर के अंदर फ़राहम करते हैं। और अपने ज़ुल्म का निशाना औरत को बनाते हैं कि वह सिन्फ़े नाज़ुक होने की बेना पर मुक़ाबला करने के क़ाबिल नही है।
और उस पर ज़ुल्म करने में उन ख़तरात का अँदेशा नही है जो किसी दूसरे मर्द पर ज़ुल्म करने में पैदा होते हैं। और उसके बाद अपने ज़ुल्म का जवाज़ क़ुरआने मजीद के इस ऐलान में तलाश करते हैं। और उनका ख़्याल यह है कि क़व्वामीयत, निगरानी और ज़िम्मेदारी नही है। बल्कि हाकेमीयत मुतलक़ा और जल्लादीयत है। हाँलाकि क़ुरआने मजीद ने साफ़ साफ़ दो वुजुहात की तरफ़ इशारा कर दिया है। एक मर्द की ज़ाती ख़ुसुसीयत और इम्तेयाज़ी कैफ़ीयत है, और एक उसकी तरफ़ से औरत के इख़राजात की ज़िम्मेदारी है। और खुली हुई बात है कि दोनों असबाब में न किसी तरह की हाकिमीयत पाया जाती है और न जल्लादीयत। बल्कि शायद बात इसके बरअक्स नज़र आये कि मर्द में फ़ितरी इम्तेयाज़ था तो उसे उस इम्तेयाज़ से फ़ायदा उठाने के बाद एक ज़िम्मेदारी का मर्कज़ बना दिया गया और इसी तरह उसने चार पैसे हासिल किये तो उन्हे तन्हा खाने के बजाए उसमें औरत का हिस्सा क़रार दे दिया है।
और अब औरत वह मालेका है जो घर के अंदर चैन से बैठी रहे और मर्द वह ख़ादिमें क़ौम व मिल्लत है जो सुबह से शाम तक अहले ख़ाना के आज़ूक़े की तलाश में हैरान व सरगरदाँ रहे। यह दर हक़ीक़त औरत की निसवानीयत की क़ीमत है जिसके मुक़बले में किसी दौलत, शोहरत, मेहनत और हैसियत की कोई क़दर व क़ीमत नही है। इज़्देवाजी ज़िन्दगी: इंसानी ज़िन्दगी का अहम तरीन मोड़ वह होता है जब दो इंसान मुख़्तलिफ़ुस्सिन्फ़ होने के वाबजूद एक दूसरे की ज़िन्दगी में मुकम्मल तौर से दख़ील हो जाते हैं। और एक दूसरे की ज़िम्मेदारी और उसके जज़्बात का पुरे तौर पर लिहाज़ रखना पड़ता है। इख़्तेलाफ़े सिन्फ़ की बिना पर हालात और फ़ितरत के तक़ाज़े मुख़्तलिफ़ होते हैं। और घरानों के इख़्तेलाफ़ की बुनियाद पर तबायेअ और उनके तक़ाज़े जुदागाना होते हैं। लेकिन हर इंसान को दूसरे के जज़्बात के पेशे नज़र अपने जज़्बात और अहसासात की मुकम्मल क़ुरबानी देनी पड़ती है।
क़ुरआने मजीद ने इंसान को इतमीनान दिलाया है कि यह कोई ख़ारजी राबेता नही है। जिसकी वजह से उसे मसाएल और मुश्किलात का सामना करना पड़े बल्कि यह एक फ़ितरी मामला है जिसका इन्तेज़ाम ख़ालिक़े फ़ितरत फ़ितरत के अंदर वदीअत कर दिया है। और इंसान को उसकी तरफञ मुतवज्जह भी कर दिया है। चुनान्चे इरशाद होता है:
“وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ
”(रूम आयत22) “अल्लाह की निशानीयों में से यह भी है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम्ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे सुकुने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मुहब्बत व रहमत क़रार दी है। इसमें साहिबाने फ़िक्र के लिये बहुत सी निशानीयाँ पायी जाती है।” बेशक इख़्तेलाफ़े सिन्फ़, इख़्तेलाफ़ तरबीयत, इख़्तेलाफ़े हालात के बाद मुहब्बत व रहमत का पैदा हो जाना एक अलामते क़ुदरत व रहमत परवरदिगार है। जिसके बेशूमार शोअबे हैं। और हर शोअबे में मुताअद्दिद निशानीयाँ पायी जाती हैं।
आयते करीमा में यह भई वाज़ेह कर दिया गया है कि जोड़ा अल्लाह ने पैदा किया है। यानी यह मुकम्मल ख़ारजी मसला नही है बल्कि दाख़्ली तौर पर मर्द में औरत के लिये और हर औरत में मर्द के लिये सलाहीयत रख दी गयी है ताकि एक दूसरे को अपना जोड़ा समझ कर बर्दाश्त कर सके और उससे नफ़रत व बेज़ारी का शिकार न हो और उसके बाद रिश्ते के ज़ेरे असर मवद्दत और रहमत का क़ानून भी बना दिया ता कि फ़ितरी जज़्बात और तक़ाज़े पामाल ने होने पायें।
यह क़ुदरत का हकीमान निज़ाम है। जिससे अलाहिदगी इंसान के लिये बेशूमार मुश्किलात पैदा कर सकती है। चाहे इंसान सीयासी ऐतबार से इस अलाहिदगी पर मजबूर हो या जज़्बाती ऐतबार से क़सदन मुख़ालेफ़त करे। अवलिया अल्लाह भी अपने इज़्देवादी रिश्तों से परेशान रहे हैं।तो इसका राज़ यही था कि उन पर सीयासी और तबलीग़ी ऐतबार से यह फ़र्ज़ था कि ऐसी ख़वातीन से अक़्द करें। और उन मुश्किलात का सामना करें ताकि दीने ख़ुदा फ़रोग़ हासिल कर सके। और कारे तबलीग़ अंजाम पा सकें। फ़ितरत अपने काम बहरहाल कर रही थी। यह और बात है कि वह शरअन ऐसे इज़्देवाज पर मजबूर और मामूर थे कि उनका एक मुस्तक़िल एक फ़र्ज़ होता है कि तबलीग़े दीन की राह में ज़हमतें बर्दाश्त करें कि यह रास्ता फूलों की सेज से नही गुज़रता है बल्कि पुर ख़ार वादीयों से होकर जाता है।
इसके बाद क़ुरआने हकीम ने इज़्देवाजी तअलुक़ात को मज़ीद उस्तुवार बनाने के लिये फ़रीक़ैन की नई ज़िम्मादारीयों का ऐलान किया और यह वाज़ेह कर दिया कि सिर्फञ मवद्दत व रहमत से बात तमाम नही हो जाती है बल्कि कुछ उसके ख़ारजी तक़ाज़े भी हैं जिन्हे पूरा करना ज़रूरी है वर्ना क़ल्बी मवद्दत व रहमत बेअसर होकर रह जायेगी। और उसका कोई नतीजा हासिल न होगा। इरशाद होता है:
“هُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَأَنتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ.
”(बक़र: 187) “औरतें तुम्हारे लिये लिबास हैं और तुम उनके लिये लिबास हो।” यानी तुम्हारा ख़ारजी और मुआशेरती फ़र्ज़ यह है कि उनके मुआमलात की पर्दापोशी करो। और उनके हालात को उसी तरह तश्त अज़ बाम न होने दो जिस तरह लिबास इंसान के ओयूब को वाज़ेह नही होने देता है। उसके अलावा तुम्हारा एक फ़र्ज़ यह भी है कि उन्हे सर्द व गर्मे ज़माना से बचाते रहो। और वह तुम्हे ज़माने की सर्द व गर्म हवाओं से महफ़ूज़ रखें कि यह मुख्तलिफ़ हवायें और फ़ज़ायें किसी भी इंसान की ज़िन्दगी को ख़तरा में डाल सकती हैं। और उसके जान व माल और आबरू को तबाह व बर्बाद कर सकती हैं। दूसरी तरफ़ इरशाद होता है:
“نِسَآؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ فَأْتُواْ حَرْثَكُمْ أَنَّىشِئْتُمْ
”(बक़रा23) “ तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतीयाँ हैं लिहाज़ा अपनी खेती में जब और जिस तरह चाहो आ सकते हो।”(शर्त यह है कि खेती बर्बाद न होने पाये।) इस बलीग़ फ़िक़रे से मुख़्तलिफ़ मसाएल का हल तलाश किया गया है। अव्वलन बात को एकतरफ़ा रखा गया है और लिबास की तरह फ़रीक़ैन को ज़िम्मेदार नही बनाया गया है बल्कि मर्द को मुख़ातब किया गया है और औरत को उसकी खेती क़रार दिया है कि इस रुख़ से सारी ज़िम्मेदारी मर्द पर आएद होती है और ख़ेती की बक़ा का मुकम्मल इन्तेज़ाम काश्तकार के ज़िम्मे है, ज़राअत से उसका कोई तअल्लुक़ नही है जबकि पर्दापोशी और सर्द व गर्मे ज़माना से तहफ़्फ़ुज़ दोनों की ज़िम्मेदारीयों में शामिल था।
दूसरी तरफ़ इस नुक्ते की भी वज़ाहत कर दी गयी है कि औरत के राब्ते और तअल्लुक़ में उसकी इस हैसियत का लिहाज़ बहरहाल ज़रूरी है कि वह ज़राअत की हैसियत रखती है और ज़राअत के बारे में काश्तकार को यह इख़्तियार तो दिया जा सकता है कि फ़सल के तक़ाज़ों को देख कर खेत को उफ़तादह छोड़ दे और ज़राअत न करे लेकिन यह इख़्तियार नही दिया जा सकता है कि उसे तबाह व बर्बाद कर दे और क़ब्ल अज़ वक़्त या नावक़्त ज़राअत शुरु कर दे कि उसे ज़राअत नही कहते हैं बल्कि हलाकत कहते हैं और हलाकत किसी क़ीमत पर जाएज़ नही क़रार दी जा सकती है। मुख़्तसर यह है कि इस्लाम ने रिश्ता ए इज़्देवाज़ को पहली मंज़िल पर फ़ितरत का तक़ाज़ा क़रार दिया। फिर दाख़िली तौर पर उसमें मुहब्बत और रहमत का इज़ाफ़ा किया गया और ज़ाहिरी तौर पर हिफ़ाज़त और पर्दापोशी को इसका शरई नतीजा क़रार दिया और आख़िर में इस्तेमाल के तमाम शराएत व क़वीनीन की तरफ़ इशारा कर दिया ताकि किसी की तरह की बदउनवानी, बेरब्ती और बेतकल्लुफ़ी न पैदा होने पाए और ज़िन्दगी ख़ुशगवार अंदाज़ से गुज़र जाये।
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