इमाम हुसैन (अ) का चेहलुम
इमाम हुसैन (अ) का चेहलुम
सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी
चेहलुम या चालीस एक ऐसी संख्या है जिसका बहुत महत्व है जैसे अधिकतर नबियों को चालीस साल का आयु में नबूवत मिली, हज़रत मूसा और ख़ुदा की मुलाक़ात भी चालीस रातों में हुई, नमाज़े शब में चालीस मोमिनों के लिए दुआ करने का आदेश दिया गया, पड़ोस की सीमा भी चालीस घरों तक रखी गई .....आदि
रिवायतों में है कि पहाड़, ज़मीन कि जहां किसी नबी या वली या किसी मोमिन बंदे ने ख़ुदा की इबादत की है, उनके मरने के बाद चालीस दिन तक उन पर रोती रहती है, या लिखा गया है कि इमाम हुसैन (अ) की शहादत के बाद चालीस दिन तक ज़मीन और आसमान ख़ून के आँसू रोते रहे ....
बहरहाल यहां पर हमारा मक़सद एक ऐसे संजीवनी नुस्ख़े का महत्व बयान करना है जो 40 की संख्या से हमारे समाज में प्रसिद्ध है और वह है इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारते अरबईन।
सैयदुश शोहदा का चेहलुम
आज के दिन इमाम हुसैन की शहादत को चालीस दिन पूरे हुए हैं, आज के दिन 61 हिजरी में जाबिर बिन अबदुल्लाह अंसारी ने इमाम हुसैन की शहादत के बात पहली बार इमाम की क़ब्र की ज़ियारत की है, प्रसिद्ध कथन के अनुसार आज के ही दिन अहलेबैत हरम शाम से कर्बला लौटे हैं, और सैय्यद मुर्तज़ा के कथन अनुसार आज ही के दिन इमाम हुसैन (अ) का पवित्र सर इमाम ज़ैनुलआबदीन (अ) के हाथों कर्बला लाया गया है और आपके पवित्र शरीर के साथ रखा गया है, और आज ही के दिन हज़रत अली (अ) के अहलेबैत और शिया काम धंदा छोड़कर, काले कपड़े पहनकर मातम करते हुए कर्बला के वाक़ए और आशूरा के सम्मान का विशेष सम्मान करते हैं।
ज़ियारते अरबईन का महत्व
इमाम हसन असकरी (अ) ने फ़रमायाः पाँच चीज़ें मोमिन और शियों की निशानी हैं
1. 51 रकअत नमाज़ (रोज़ाना की नमाज़ें, नाफ़ेला और नमाज़े शब)
2. ज़ियारते अरबईन इमाम हुसैन (चेहलुम के दिन की ज़ियारत)
3. हादिने हाथ में अंगूठी पहनना।
4. मिट्टी पर सजदा करना।
5. तेज़ आवाज़ से बिस्मिल्लाह कहना।
ज़ियारते अरबईन का महत्व इस लिए नहीं है कि वह मोमिन की निशानियों में से हैं बल्कि इस रिवायत के अनुसार चूँकि ज़ियारते अरबईन वाजिब और मुस्तहेब नमाज़ें की पंक्ति में आई है, इस आधार पर जिस प्रकार नमाज़ दीन का स्तंभ है, उसी प्रकार ज़ियारते अरबईन और कर्बला की घटना भी दीन का स्तंभ है।
रसूले ख़ुदा के कथन अनुसार दो चीज़ें नबूवत का निचोड़ क़रार पाई हैं एक क़ुरआन और दूसरे इतरत انی تارک فیکم الثقلین کتاب اﷲوعترتی इसका मतलब यह हुआ कि ख़ुदा की किताब का निचोड़ ख़दा का दीन है कि जिसका स्तंभ नमाज़ है और पैग़म्बर की इतरत का निचोड़ ज़ियारते अरबईन है जो कि विलायत का स्तंभ है (लेकिन ज़रूरी यह है कि हम समझें कि नमाज़ और ज़ियारत किस प्रकार इन्सान को धार्मिक बनाती है और दीन से जोड़ती है)
जिस प्रका नमाज़ इन्सान को बुराईयों से रोकती है उसी प्रकार ज़ियारते अरबईन भी अगर इन्सान इमाम हुसैन (अ) की क़ुर्बानियों की सच्ची पहचान के साथ पढ़े तो वह बुराईयों को समाप्त करने और उनका निशान मिटाने में उसकी सहायता ले सकता है क्योंकि इमाम हुसैन (अ) की क्रांति बुराईयों को समाप्त करने के लिए थी जब्कि आपने ख़ुद ही अपनी क्रांति के मक़सद को बयान करते हुए फ़रमायाः (اریدان آمر بالمعروف وانھی عن المنکر) मैं नेका का आदेश और बुराईयों से रोकना चाहता हूँ
अगर हम ग़ौर से ज़ियारते अरबईन की इबारतों को देखें तो मालूम होगा कि ज़ियारते अरबईन में इमाम हुसैन (अ) की क्रांति का मक़सद वही चीज़ें बयान की गई हैं जो कि रसूले इस्लाम (स) की रिसालत का मक़सद थीं
जैसा कि क़ुरआन और नहजुल बलाग़ा के अनुसार दो चीज़ें ख़ुदा के नबियों का मक़सद थीं
1. इल्म और हिकमत की तालीम
2. नफ़्स का तज़किया (आत्मा की पवित्रता)
दूसरे शब्दों में यह कह दिया जाए कि लोगों को ज्ञानी और अक़्लमंद बनाना नबियों का मक़सद है ताकि लोग अच्छाईयों के रास्ते पर चल सकें और गुमराही के रास्ते से दूर हो सकें, जैसा कि हज़रत अली (अ) ने नहजुल बलाग़ा में फ़रमायाः فھداھم بہ من الضلالۃانقذھم بمکانہ من الجھالۃ यानी ख़ुदा ने नबी के हाथों लोगों को आलिम और आक़िल बनाया। इमाम हुसैन ने भी जो कि नबी की सीरत पर चलने वाले और حسین منی وانا من الحسین के मिस्दाक़ हैं लोगों को आलिम और आदिल और आक़िल बनाने में अपनी जान और माल की बाज़ी लगा दी और रिसालत के मक़सद को पूर्ण कर दिया और इसमें कोई कसम नहीं छोड़ी। इसीलिए ज़ियारते अरबईन में लिखा हैः وبذل مھجتہ فیک لیستنقذعبادت من الجہالۃوحیرۃالضلالۃ
यानी अपने ख़ून को ख़ुदा की राह में विछावर कर दिया केवल इसलिए कि ख़ुदा के बंदों को जिलाहत और नादानी की वादी से बाहर निकाल सकें।
ज़ियारत और दुआ की किताबों और तारीख़ एवं रिवायत की किताबों के माध्यम से ज़ियारत और ज़ियारत पढ़ने के अहकाम को मालूम किया जा सकता है।
संक्षिप्त रूप से यह है किः इन्सान ग़ुस्ल करे, और फिर ज़ियारत पढ़ने के बाद दो रकअत नमाज़ पढ़े, अगर कोई व्यक्ति उस दिन कर्बला मे है या अगर कर्बला से दूर है तो ऊचें स्थान या जंगल में जाकर इमाम हुसैन (अ) की क़ब्र की तरफ़ चेहरा कर के आपको सलाम करे।
यह ज़ियारत दो प्रकार से बयान की गई है जो मफ़ातीहुल जनान और दूसरी किताबों में मौजूद है।
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