आज का जवान और आईडियल
आज का जवान और आईडियल
सैयद ज़ीशान हैदर रिज़वी
आज के विकसित युग में हर नौ जवान को अपने आईडियल की तलाश है। कोई किसी कलाकार में अपना आईडियल तलाश करता है तो कोई निर्देशक में अपना आईडियल तलाश करने की कोशिश करता है और फिर उसी के अनुसार पर अपनी ज़िन्दगी गुज़ारने की कोशिश करता है और यह कोशिश करता है कि हम उसी की तरह बोलें, उसी की तरह उठें बैठें, उसी की तरह चलें, कपड़े पहने तो उसी की तरह। संक्षेप में यह कह दिया जाए कि वह अपने आईडियल की हर हरकत और शैली को अपनाने की कोशिश करता है लेकिन जब यही व्यक्ति उस से भी बेहतर और श्रेष्ठ किसी इन्सान को देखता है और उस के व्यवहार और शैली का अध्ययन करता है तो कहता है कि मैं ने जिस को आईडियल बनाया था उस में हज़ारों कमियाँ और ऍब है। उस से बेहतर तो यह व्यक्ति है क्यों न उस को ही आईडियल बना लिया जाये।
अल ग़रज़ जब उस की जिज्ञासु प्रवर्ति और फ़ितरत पर मअनवीयत का कंट्रोल होने लगता है तो फिर किसी इंसाने कामिल (पूर्ण इन्सान) की तलाश में थक कर बैठ जाया करता है कि इस दुनिया में कोई आईडियल नही है और जहाँ ज़ेहन में ख़्याल पैदा हुआ कि कोई आईडियल नही है तो उस की आत्मा पेरशान हो जाती है अब यही नौजवान दुनिया की उलझनों में पड़कर कभी रात को देर से घर आता है तो कभी बात बात पर उलझ पड़ता है, माँ बाप से ला परवाह हो जाता है अपने दिल के सुकून के लिये बे चैन रहता है कि शायद कहीं तो उस की बेचैन रूह को सुकून मिल जाये लेकिन उस के बाद भी उसे सुकून नही मिलता बल्कि उसकी परेशानी में इज़ाफ़ा होता है शायद इसी तरह यह नौजवान भटकता रह जाता और कभी सुकून व आराम न पाता अगर ख़ुदा ने इन्सानी मार्गदर्शन के लिये इंतेज़ामात न किये होते।
इसी हाल में उस जिज्ञासु नौ जवान की मुलाक़ात अपने ही जैसे एक नौ जवान दोस्त से हो जाती है और उस का नौ जवान दोस्त कहता है कि तुम को एक कामिल (पूर्ण) और वास्तविक आईडियल की तलाश है जैसी कि मुझे भी थी पस तुम को चाहिये कि हज़रत अली (अ) को अपनी आईडियल बनाओ।
तो यह नौ जवान कहने लगा कि यह कैसे संभव है इस लिये मैं एक नौजवान हूँ और नौजवानी के कुछ तक़ाज़े होते हैं इस उम्र में खेलें कूदें हँसी मज़ाक़ तफरीह करें।
दोस्त कहता है कि मेरे दोस्त तुम्हारा कहना सही है लेकिन इन सब के बावजूद तुम्हारे लिये सबसे अच्छा आईडियल मौला ए मुत्तक़ियान हैं विशेषकर आप की जवानी के दिन।
देखो खु़द मौला अली (अ) ने भी अपना आईडियल रसूले ख़ुदा (स) को माना था और मौला अली (अ) तो बचपन से रसूले ख़ुदा (स) के साथ रहे थे और अपनी ज़िन्दगी की सारी आवश्यकताओं में रसूले ख़ुदा का अनुसरण करते थे। यहाँ तक कि रोज़ मर्रा के छोटे छोटे मसायल में भी हालाँ कि आप ख़ुद एक पूर्ण इन्सान थे फिर भी आप ने अपना आईडियल रसूले ख़ुदा (स) को ही माना था।
भाई वह कैसे?
मेरे भाई इस तरह कि पैग़म्बर इस्लाम (स) और मौला अली (अ) हमेशा साथ साथ रहते थे वह ग़ारे हिरा ही क्यों न हो जिस को रसूले ख़ुदा ने अपनी इबादत के लिये तंहाई के तौर पर चुना था या ज़िन्दगी के दूसरे मराहिल जैसे रिश्तेदारों को दावत देने का पल हो या आम लोगों को ख़ान ए ख़ुदा में दावत देने का पल यहाँ तक कि अपने तबलीग़ी सफ़र में भी रसूले ख़ुदा के साथ साथ रहते थे और जब आप सो कर उठते थे तो सब से पहले पैग़म्बरे अकरम (स) के रुख़े अनवर के दीदार को जाते थे और जब रसूले ख़ुदा (स) की निगाहें मौला अली (अ) से चार होती थीं तो आपको गले से लगा लेते थे औ फिर दोनो एक दूसरे का हालचाल पूछा करते थे। आप का ज़्यादा तर समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथ ही ग़ुज़रता था कभी आप रसूले ख़ुदा (स) की पसीना पोछते थे कभी रसूले ख़ुदा आप का शुक्रिया अदा करते थे यहां तक कि ख़ुद मौला अली (अ) फरमाते हैं कि रसूले ख़ुदा ने मेरी परवरिश की है और मैं उन की आग़ोश में परवान चढ़ा हूँ और मैं रसूले ख़ुदा के साथ इस तरह रहता था जिस तरह ऊटनी का बच्चा अपनी माँ से चिपटा रहता है। आँ जनाब (स) मुझे हर रोज़ नई बातें बताते और अख़लाक़ की तालीम देते और नसीहत फ़रमाते और फ़रमाया करते थे कि या अली, तुम ही ने तो बस मेरा अनुसरण किया है। आँ हज़रत (स) जब कोहे हिरा जाते तो मेरे अलावा आप को कोई नही देख सकता था और न आप की ख़ुशबू सूँध सकता था।
जिज्ञासु जवान कहने लगा कि बहुत अच्छा आप का कहना दुरुस्त कि मौला अली (अ) को अपना आईडियल बनाऊँ लेकिन मेरे भाई मौला अली (अ) ने ख़ुद रसूले ख़ुदा (स) को देखा आप की आग़ोंश में तरबियत पाई इस लिये आप को अपना आईडियल बनाया मैं ने तो मौला अली (अ) को देखा नही तो किस तरह से उन को अपना आईडियल बनाऊँ?
मेरे शुभचिंतक दोस्त ने जवाब दिया सही है कि तुमने मौला को नही देखा और वह तुम्हारे सामने नही हैं लेकिन इतिहास ने आप को देखा है और आप के तमाम व्यवहार और शैली को अपने दामन में जगह दी है तुम इतिहास को देखो या उन लोगों से सवाल करो जो इतिहास के जानकार हैं।
क्या तुम ने नही कहा कि तुम्हे कामिल आईडियल चाहिये जो तुम्हारी ज़िन्दगी की सारी मुश्किलात और सवालात से निजात दिलाये, वह सवालात जो जवानी और नौजवानी की मांगों के अनुरूप हो। क्या तुम ने मौला अली (अ) के अतिरिक्त किसी और के बारे में इतिहास में देखा है कि ख़ुद अपनी जान को ख़तरे में डाल कर सरवरे कायनात (स) की सुरक्षा की हो, क्या तुम ने इतिहास में नही देखा कि अभी मौला अली (अ) के नौजवानी के दिन हैं और रसूले ख़ुदा (स) कुफ़्फ़ारे कुरैश के बीच तबलीग़ कर रहे हैं और कुफ़्फ़ार रसूले ख़ुदा के इस कार्य को रोकने के लिये बच्चों का इस्तेमाल करते हैं हत्ता कि रसूले ख़ुदा को दीवाना कहा जाता है और उन पर पत्थर बरसाये जा रहे हैं तो उस वक़्त मौला अली (अ) ही तो थे जिन्होने कुफ़्फ़ारे कुरैश के बच्चों की बद तमीज़ियों का जवाब दिया बल्कि आप तो हमेशा रिसालत के इस गिर्द फिरा करते थे कभी अगर आप ने रसूले ख़ुदा (स) की जान को ख़तरे में देखा तो ख़ुद आप के बिस्तर पर सो गये और आप की जान की सुरक्षा की और ऐसी सुकून की नींद सोए कि आप ख़ुद फ़रमाते हैं कि मैं जिस तरह शबे हिजरत बिस्तरे रिसालत पर सोया उस तरह से कभी नही सोया था। आया तुम ने जंगे बद्र की तारीख़ नही पढ़ी या सुनी कि जिस वक़्त आप की उम्र सिर्फ़ 25 साल की थी इतिहास गवाह है कि जितने लोग जंगे बद्र मे मारे गये हैं उस में आधे लोग मौला अली (अ) के हाथों मारे गये हैं।
क्या तुम जानते जिस वक़्त जंगे ओहद हुई मौला की उम्र 26 साल थी और आप ने पैग़म्बरे अकरम (स) की जान को ख़तरे में देखा तो परवाना की तरह रसूले ख़ुदा के इर्द गिर्द धूम कर आपकी रक्षा कर रहे थे उस वक़्त आसमान से यह आवाज़ आई थी ला फ़ता इल्ला अली ला सैफ़ा इल्ला ज़ुलफ़िक़ार। (मौला अली तमाम जवानों बेहतर हैं और आप की ज़ुलफ़िक़ार की तरह कोई तलवार नही)
क्या तुम जंगे ख़ंदक के बारे में नही सुना? आप की वीरता के बारे में जिस समय अम्र बिन अब्दवद घमंड में चूर में धूम रहा था कि मैं अरब का सब से वीर इंसान हूँ कौन है जो मेरे मुक़ाबले में आये जब कि उस समय आप की उम्र सिर्फ़ 28 साल थी आप उस के मुक़ाबले में आये और उसको अपनी तलवार का ऐसा निशाना बनाया कि लिसाने पैग़म्बरे इस्लाम (स) जुँबिश में आई और आप का क़सीदा इस तरह से पढ़ा कि ज़रबतों अलीयिन यौमा ख़ंदक़ अफ़ज़लों मिन इबादतिस सक़लैन (यअनी ख़दक़ के दिन की अली की एक ज़रबत दोनो जहाँ की इबादत से श्रेष्ठ है) यह सुन कर नौजवान की ज़बान से निकला कि मैं आप की तमाम बातो को क़बूल करता हूँ मगर जंग, वीरता, फ़तह यह इंसानी ज़िन्दगी का एक पहलू है मगर उन की ज़िन्दगी के और बहुत से पहलू और गोशे हैं जिन पर चलने के लिये कामिल आईडियल की ज़रुरत है क्या ऐसा नही है?
नही मेरे दोस्त यक़ीनन ऐसा ही है लेकिन अभी तुम ने मौला के बारे में सब कहाँ सुना और पढ़ा है ग़ौर करोगे तो मिलेगा कि मौला अली (अ) ज़िन्दगी के तमाम पड़ाव पर एक मुकम्मल आईडियल हैं चाहे जिस रुख़ से देखो। क्या तुम केवल यह समझते हो कि मौला अली (स) की सारी ज़िन्दगी जंग और उन की वीरता में ही है, हरगिज़ नही। क्या तुम नहीं जानते कि आप हमेशा खु़श रहते थे और आप के होठों पर हमेशा मुस्कान रहती थी। आप हमेशा मोमिन को ख़ुश रखना और उन के होठों पर मुस्कान चाहा करते थे, आप मज़ाक़ भी करते थे और तफ़रीह भी करते हैं लेकिन हमारी तरह की तफ़रीह नही कि हम तफ़रीह तफ़रीह में लोगों का दुखा देते हैं हैं और अपने समय को बेकार के कार्यों में लगाते हैं और समय की क़द्र नही करते बल्कि आप अमल और अख़लाक़े अमल को तफ़रीह समझते थे। आप कहीं सफ़र पर भी जाया करते थे तो चाहते थे कि किसी की मदद करें या किसी को पढ़ना लिखना सिखायें, लोगों को क़ुरआन की तालीम दें, दीन समझाएं।
आप लोगों को कसरत की तरफ़ भी बुलाया करते थे और कहते थे कि इंसान को तलवार चलाने के साथ साथ, घुड़ सवारी, वेट लिफ़्टिंग वग़ैरह में भी महारत रखनी चाहिये। यह सारी चीज़ें आप की तफ़रीह के सामान थे। कितना दिलचस्ब होगा अगर आप की मुकम्मल ज़िन्दगी का एक सरसरी जायज़ा लिया जाये। आप की ज़िन्दगी हमेशा सक्रिय थी कहीं भी हमें आप की ज़िन्दगी में ठहराव नही मिलेगा। जैसा कि आप ने फ़रमाया जिस का कल और आज एक जैसा हो (उस में तरक़्क़ी न हो) गोया उसने हानि की है।
आप मिज़ाह भी फ़रमाते थे और क्यों न हो कि गुफ़तगू में मिज़ाह इस तरह है जैसे खाने में नमक। लेकिन इस बात की तरफ़ भी ध्यान रखना चाहिये कि ज़्यादा मज़ाक़ इंसान को बे वक़अत बना देता है वह हमारी तरह बे अदबाना और फूहड़ मिज़ाह नही करते थे बल्कि आप का मिज़ाह अदब के दायरे में होता था और आप के मिज़ाह में भी एक पैग़ाम और तालीम छिपी रहती थी।
आप किसी भी मोमिन या जानने वाले को या दोस्त को ग़मगीन देखते तो उस को हँसाना चाहते थे कि उस से ग़म में कुछ कम हो जाता है बल्कि आप का मिज़ाह भी इस तरह का होता था कि काफ़िर भी मुसलमान हो जाये जैसा कि इतिहास गवाह है।
आप जंग में हमेशा शूरवीर रहे, फ़की़रों की मदद करते रहे, दुखे दिल को हमेशा ख़ुश करते रहे और लोगों की मुश्किलात को दूर किया करते थे। बच्चों और यतीमों के साथ उन की ख्वाहिश के मुताबिक़ पेश आते थे और उन की छोटी छोटी ख़्वाहिश को पूरा किया करते थे हत्ता कि अगर बच्चा ज़िद करे तो उस के लिये सवारी भी बन जाया करते थे और इन सब से अहम बात यह है कि आप मिज़ाह में भी आयु और शरअ का ख़्याल रखते थे और मिज़ाह में भी आप को झूट पसंद नही था। (जैसा कि हदीस में हैं कि झूट मज़ाक़ में भी जायज़ नही है।) आप किसी मोंमिन का दिल तोड़ना पसंद नही करते थे और न ही किसी ना महरम से मिज़ाह पसंद करते थे।
लेकिन अगर हम आज के समाज का जायज़ा लें तो उल्लेखित तमाम बातों को हम बाला ए ताक़ रख देते हैं और उन का ख़्याल नही रखते हैं, मिज़ाह में झूट बोलने को हम झूट नही समझते और न ही हम मिज़ाह में आयु का लिहाज़ रखते हैं और न शरअ का और ना महरम से मिज़ाह को हम गुनाह समझते हैं और न उन से बे हूदा बातों को हम गुनाह समझते हैं यहां तक कि उन से गले लगने को भी हम गुनाह नही समझते हैं लेकिन मौला अली (अ) की ज़िन्दगी पर हम नज़र डालें तो हमे मिलेगा कि आप जवानी के दिनों में इतने सावधान रहते थे कि सिर्फ़ बूढ़ी औरतों को सलाम करते थे और सिर्फ़ उन का हालचाल पूछा करते थे बल्कि लड़कियों और जवान औरतों को न ही सलाम करते थे और न ही हालचाल पूछते थे ता कि समाज सबक़ ले सके और मौज़ ए तोहमत से दामन महफ़ूज़ रह सके।
इस के उलट रसूले ख़ुदा (स) जवान लड़कियों और औरतों को भी सलाम किया करते थे और उन का हालचाल भी पूछा करते थे और वह इस लिये कि मौला अभी जवानी की उमर में दाख़िल हुए थे और रसूले ख़ुदा (स) पचास साल गुज़ार चुके थे और पचास साल गुज़ारने के बाद समाज की निगाह में बुराई की संभावनाएं नही रह जाते ब निस्बत जवानी के दिनो के।
अगर चे आप ऐसी आग़ोश में पले थे जहाँ गुनाह का ज़र्रा बराबर भी शायबा नही मिलता और आप की ज़िन्दगी उन तमाम बातों से दूर थी मगर फिर भी आप समाज का ख़्याल रखा करते थे।
मेरे दोस्त यक़ीनन अगर हम मौला ए कायनात (स) की सीरत को अपना लें तो उस से बढ़ कर हमें कोई आईडियल नही मिल सकता क्यों कि आप ज़िन्दगी के तमाम मसायल में यहाँ तक कि छोटे से छोटे समअले में भी आज के नौजवानों और जवानों के लिये आईडियल हैं।
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