लो आ गया आसुओं का महीना

लो आ गया आसुओं का महीना

आज मोहर्रम की पहली तारीख़ है। चारों ओर शोक का वातावरण है। दुनिया भर के मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नाती हज़रत इमाम हुसैन (अ) और उनके निष्ठावान साथियों के शोक में डूबे हुए हैं। चारों ओर इमाम बाड़े सज रहे हैं और शोक सभाओं के आयोजन की तैयारियां हो रही हैं।

दुनिया का हर मुसलमान आंखें बिछाए अपने घर में आयोजित शोक सभाओं में हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के आने और उनको उनके जिगर के टुकड़े का पुरसा देने के लिए बैठे हैं। दुनिया का हर मुसलमान आने वाले मेहमानों के लिए अपने अपने घरों और दिलों को स्वच्छ रखे हुए है। मुहर्रम का महीना पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके अनुयाइयों के लिए शोक और दुख का महीना है।

हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के हवाले से बयान किया गया है कि जब मोहर्रम का महीना आता था तो कोई व्यक्ति इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को मुसकुराते हुए नहीं पाता, आप दुखी और शोक में ग्रस्त रहते थे और जब मोहर्रम की दस तारीख़ आती तो ऊंची आवाज़ में रोते और कहते थे कि हाय आज वह दिन है जिस दिन मेरे दादा इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को कर्बला के मैदान में तीन दिनों का भूखा प्यासा शहीद कर दिया गया था।

मोहर्रम का महीना मुसलमानों को अत्याचार के विरुद्ध इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन की याद दिलाता है। आशूर के दिन हज़रत इमाम हुसैन और उनके निष्ठावान साथियों ने तीन दिनों की भूख और प्यास के बावजूद करबला की जलती रेत पर मानवता के इतिहास में ऐसा स्वर्णिम अध्याय जोड़ दिया जो प्रलय तक के लिए समस्त स्वतंत्रता प्रेमियों के लिए आदर्श बन गया। करबला की घटना हमको अत्याचार और अन्याय के सामने डट जाना सिखाती है।

करबला की घटना सत्य और असत्य के बीच टकराव का नाम है, करबला मानवता का पाठ पढ़ाती है, करबला, स्वयं प्यासे रहते हुए शत्रुओं और उनके जानवरों को पानी पिलाना सिखाती है। करबला धर्म की रक्षा के लिए अपनी गोदों के पालों और कलेजे के टुकड़ों को न्योछावर करना सिखाती है। करबला यह सिखाती है कि रणक्षेत्र में हौसले लड़ते हैं, संख्या का कोई महत्त्व नहीं होता। यही वजह है कि करबला के मैदान में सत्य पर रहने वाले 72 सदा के लिए अमर हो गये और असत्य पर रहने वाले यज़ीद के लाखों सैनिकों का कोई नाम लेवा नहीं।

पहले क़मरी महीने का नाम इसलिए मोहर्रम रखा गया कि अज्ञानता के काल में इस महीने में युद्ध वर्जित था। इस महीने में लोग दूसरों पर युद्ध नहीं थोपते थे और पहले से जारी युद्ध मोहर्रम के आते ही रुक जाया करता और लोग इस महीने सुरक्षित रहते थे। पवित्र क़ुरआन के कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से ही चार महीनों पर युद्ध करना वर्जित था और समय बीतने के साथ साथ अज्ञानता के काल में भी यह क़ानून जारी रहा और इस्लाम ने भी इस क़ानून की पुष्टि कर दी थी।

युद्ध को वर्जित करने का मुख्य लक्ष्य, लंबे समय से चले आ रहे युद्ध को समाप्त करना और शांति व सुलह का मार्ग प्रशस्त करना था किन्तु खेद की बात यह है कि इसी पवित्र महीने में बनी उम्मइया के अत्याचारी शासक यज़ीद के आदेश पर पैग़म्बरे इस्लाम और उनके निष्ठावान साथियों को तीन दिन का भूखा प्यासा शहीद कर दिया गया। हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम मोहर्रम के महीने के बारे में कहते है कि अज्ञानता के काल में इस महीने का विशेष सम्मान किया जाता था और इस महीने युद्ध नहीं किया जाता था किन्तु सन एकसठ हिजरी क़मरी के मोहर्रम महीने में हमारे ख़ून बहाए गये और सम्मान को तार तार कर दिया, हमारे पुत्रों और महिलाओं को बंदी बना लिया गया और तंबूओं को आग लगा दिया, हमारे सामानों को लूट लिया और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के सम्मान का ख़्याल नहीं रखा।

पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के पचास वर्ष बाद सन एकसठ हिजरी क़मरी में अत्याचारी शासकों और उनके क्रियाकलापों के कारण पूर्ण रूप से इस्लाम और क़ुरआन को भुला दिया गया। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने धार्मिक दायित्व का निर्वाह करते हुए आंदोलन कर दिया। हज़रत फ़ातेमा और हज़रत अली के पुत्र और पैग़म्बरे इस्लाम के नाती हज़रत इमाम हुसैन ने कि जिन्हें पैग़्मबरे इस्लाम ने भरी सभा में कई बार लोगों से पहचनवाया और कहा कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूं, अपने आंदोलन से पूरी मानव जाति को स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा का पाठ सिखाया और अपने ख़ून से इस्लाम धर्म के वृक्ष को सींचा और सोई हुई अंतर्रात्मा को झिंझोड़ दिया।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छह वर्ष तक पैग़म्बरे इस्लाम के साथ रहे और उसके बाद तीस वर्ष का लंबा समय अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ बिताया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद लगभग दस वर्ष तक राजनैतिक व सामाजिक मैदान में अपने बड़े भाई इमाम हसन अलैहिस्सलाम के साथ व्यतीत किये। पहले अमवी ख़लीफ़ मुआविया के मरने के बाद उसके शराबी, विलासी और भ्रष्ट पुत्र ने राजगद्दी संभालते ही इमाम हुसैन के पास पत्र लिखा और उनसे अपनी आज्ञापालन की मांग की। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम यज़ीद के बारे में सब कुछ जानते थे। उन्होंने उसकी मांग ठुकरा दी और यज़ीद के वर्चस्व से इस्लाम धर्म को मुक्ति दिलाने के लिए उठ खड़े हुए।

इमाम हुसैन ने मदीना नगर छोड़ दिया और मक्के की ओर रवाना हो गये। इमाम हुसैन के अलैहिस्सलाम के पास कूफ़ा वासियों का निरंतर पत्र आ रहा था कि हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता है, यदि आप नहीं आ सकते तो अपने किसी साथी को हमारे मार्गदर्शन के लिए भेजें। मक्के में हज के दौरान उन्हें पता चला कि हाजियों के वेश में यज़ीद के जासूस उन्हें काबे की परिक्रमा के दौरान ही मार देना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि मैं अपने ख़ून से काबे के सम्मान को बर्बाद नहीं होने दूंगा। उन्होंने मक्के को छोड़ा और इराक़ की ओर रवाना हो गये। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सपरिवार इराक़ के कूफ़ा नगर जा रहे कि यज़ीदी सेना के सेनापति हुर्रे रेयाही ने उनका रास्ता रोक लिया।

संक्षेप में कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम  अपने छोटे छोटे बच्चों और महिलाओं के साथ करबला के मैदान में पहुंच गये। अभी इमाम हुसैन ने करबला के मैदान में अपने तंबू लगाने के आदेश दिए ही थे कि यज़ीदी सेना आना आरंभ हो गयी। यज़ीदी सेना ने चारों ओर से इमाम हुसैन और उनके परिवार को घेर लिया किन्तु इमाम हुसैन यज़ीदी सेना के समक्ष नहीं झुके और आशूर के दिन अपने बेटों, भाईयों और साथियों की क़ुरबानी देकर सदैव के लिए इस्लाम को अमर बना दिया।

इमाम हुसैन के आंदोलन के दौरान यद्यपि उनके सारे साथी शहीद कर दिए गये, महिलाओं और बच्चों को बंदी बना लिया गया और विदित रूप ऐसा आभास हो रहा है था कि उनका आंदोलन विफल हो गया किन्तु यदि आज मीनारों से अल्लाहो अकबर की आवाज़ आती है और लोग नमाज़ व ईश्वरीय उपासना में व्यस्त हैं तो इसका अर्थ यह है कि जीत यज़ीद की नहीं हुसैन की हुई है। हुसैनी आंदोलन का मुख्य लक्ष्य, लोगों को अज्ञानता और पथभ्रष्टता के अंधकार से निकालना है।

उन्होंने अपने चेतनापूर्ण आंदोलन से सत्य और असत्य को जो अत्याचारी शासकों के क्रियाकलापों के कारण प्रभावहीन व समाप्त हो गया था, ऐसा स्पष्ट कर दिया जो प्रलय तक के लिए आदर्श बन गया। आशूर की घटना न केवल यह कि मुसलमानों की जागरूकता का कारण बनी बल्कि इसने बहुत से ग़ैर मुसलमानों के हृदयों को भी प्रकाशमान कर दिया। करबला की हृदय विदारक घटना ने जहां ग़ैर इस्लामी देशों में लोगों को प्रभावित किया वहीं इसने बहुत से ईसाई धर्मगुरूओं को निश्चेतना की निंद्रा से जगाया और वास्तविकता की ओर उनका मार्गदर्शन किया।

सौभाग्य की बात यह है कि चेतना का यह दीपक यथावत दूसरों को प्रकाशित कर रहा है और विश्व के स्वतंत्रता प्रेमियों का सत्य के मार्ग की ओर मार्गदर्शन कर रहा है। वर्तमान समय में इमाम हुसैन और उनके निष्ठावान साथियों की शहादत ही उनकी सत्यता और सच्चाई की सबसे बड़ी गवाही है।

हुसैनी आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए विश्व में अत्याचार के विरुद्ध कई आंदोलन अस्तित्व में आये जिसमें महत्त्वपूर्ण मदीना नगर की जनता का आंदोलन, प्रायश्चित करने वालों का आंदोलन और मुख़्तार का आंदोलन। इसी प्रकार उसके बाद के कालों में भी अत्याचारों के मुक़ाबले कई इस्लामी व ग़ैर इस्लामी आंदोलन भी अस्तित्व में आये क्योंकि आशूरा की घटना मानवीय सिद्धांत और लक्ष्यों के आधार पर विश्व के समस्त लोगों को अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़ा होने का अह्वान करती है। जिस वस्तु ने आशूरा आंदोलन को अनुदाहरणीय बना दिया और विश्व जनमत पर ज़बरदस्त प्रभाव डाला है वह केवल ईश्वर के लिए कर्म करना और केवल उसी को दृष्टिगत रखना और उसके अतिरिक्त किसी और से आशा न रखना है।

हज़रत इमाम हुसैन ने ईश्वर के मार्ग में अपनी समस्त मूल्यवान चीज़ों को न्योछावर कर दिया और यहां ताकि अपने आंदोलन में विजय तक को दृष्टिगत नहीं रखा। यही कारण है कि उन्होंने आशूर की रात अपने निष्ठावान साथियों के मध्य कहा कि यह लोग केवल मेरी जान के दुश्मन हैं, आप लोग रात के अंधेरे में कहीं निकल जाएं, आप लोगों को यह जान लेना चाहिए कि जो भी कल हमारे साथ रहेगा वह मारा जाएगा।

उन्होंने करबला में सबसे कठिन चरण में जब उनके हाथों पर छह महीने के अली असग़र शत्रुओं की तीर से शहीद हो गये तो कहा कि मेरे लिए इस चीज़ को सहन करना सरल है क्योंकि मैं ईश्वर की नज़रों के सामने हूं।

आशूर की घटना के अन्य प्रभावों में से एक एक व्यक्ति में प्रतिरोध और धैर्य की भावना को बढ़ाना है। दुनिया का हर मुसलमान और हर स्वतंत्रता प्रेमी जब वह आशूरा की विभूतिपूर्ण घटना को ध्यान पूर्वक सुनता है तो वह अपनी क्षमता के अनुसार लाभान्वित होता है और अपनी योग्यता और क्षमता के अनूरूप अपने अस्तित्व में कुछ समय तक इसके प्रभाव का आभास करता है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्ललाहो अलैह व आलेही व सल्लम के परिजनों के अनुयायी और हर व्यक्ति जो करबला की घटना पर ध्यान देता है, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रतिरोध और धैर्य से इतना प्रभावित होता है कि जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों से चिंतित नहीं होता और अपने मार्गदर्शक की कठिनाइयों को याद करके इन परिस्थितियों को सरलता से गुज़ार देता है। इस प्रकार से वह स्वयं को दिलासा देते हैं और उनसे यह सीखते हैं किस प्रकार कठिनाइयों का मुक़ाबला करना चाहिए।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम करबला की तपती हुई धरती पर तीन दिनों तक भूखे प्यासे रहे। इतिहास में मिलता है कि 57 वर्ष के इमाम हुसैन इतने प्यासे थे कि अंतिम समय में उन्हें केवल चारो ओर धुंआ ही धुंआ नज़र आ रहा था। इमाम हुसैन की नज़रों के सामने उनके छह महीने के बच्चे को शहीद कर दिया गया, उन्होंने अपने जवान बेटे के कलेजे से जो चाल ढाल में पैग़म्बरे इस्लाम की भांति था, टूटा हुआ भाला निकाला, अपने भतीजे का टुकड़े टुकड़े हो चुके शरीर को चादर में लपेटा, अपनी नज़रों के सामने अपने सेना पति के हाथों को कटता हुआ देखा किन्तु ईश्वर के आभार के अतिरिक्त उनकी ज़बान से कोई और शब्द नहीं निकला। हर अवसर पर यही कहते थे कि हे पालनहार मैं तेरी मर्ज़ी के आगे नतमस्त हूं।

करबला की घटना की अन्य उपलब्धियों में से एक स्वतंत्रता है। डेढ़ शताब्दी बीतने के बाद भी अब भी दुनिया में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की यह आवाज़ गूंज रही है। यदि धर्म से कोई लेना देना नहीं है तो कम से कम अपनी दुनिया में तो स्वतंत्र रहो। यही वह आवाज़ है जो आज विश्ववासियों को अपनी ओर आमंत्रित कर रही है। इमाम हुसैन का संदेश अब भी जारी है और आज भी स्वयं से और अपने अनुयायियों से हर प्रकार के अपमान, अनादर और अत्याचारों के अनुसरण से दूर करते हैं। दूसरों की दासता से स्वतंत्रता और सत्य के सामने नतमस्तक होना, हुसैनी आंदोलन का एक अन्य संदेश है जो वर्तमान समय में मानवता की रक्षा और शुद्ध इस्लाम धर्म की पहचान का मापदंड है। यही वह चीज़ है जो इमाम हुसैन के चाहने वालों को चाहे वह किसी धर्म या जाति के हों, ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की दासता के बंधन से मुक्ति दिलाती है।

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