ग़दीर क्या है?
ग़दीर वास्तविक ईद
ग़दीर का मतलब है इल्म, सदाचार, परहेज़गारी और अल्लाह के रास्ते में क़ुर्बानी और बलिदान और इस्लाम के मामले में दूसरों से आगे बढ़ना और उन्हीं चीज़ों के आधार पर समाज की सत्ता का निर्माण करना, यह एक मूल्य सम्बंधी मुद्दा है। इन मानों में गदीर केवल शियों के लिए नहीं है बल्कि सारे मुसलमानों के लिए सबक़ है। इस लिए इस दिन का आदर ज़रूरी है। मैं कोई साम्प्रदायिक बात नहीं करना चाहता, करनी भी नहीं चाहिए। ग़दीर सच्चे मानों में लोगों की ईद है। इस लिए कि एक महत्वपूर्ण घटना की याद दिलाती है।
इस समय दुनिया भर में लोगों की मुश्किलों का कारण वही लोग हैं जिनके हाथ में समाज की बागडोर है। यह लोग करेप्ट (भ्रष्ट) हैं और अगर हुकूमत करेप्ट हो तो सारी अच्छाइयों की जड़ें कट जाती हैं। उन्हीं के भ्रष्ट होने के कारण लोग ज़लील होते और उनकी सोच ग़ुलाम हो जाती है, यही भ्रष्टाचार कारण बनता है कि क़ौम पर शैतानी ताक़तें सवार हो जाती हैं, इन्हीं भ्रष्ट और बेलगाम होने के कारण समाज से ईमान चला जाता है। आज पूरा समाज इन मुसीबतों से झूझ रहा है, ईमान का नाम नहीं, किसी विषय, अध्यात्मिक प्वाइंट पर ठहराव नहीं मिल रहा और इधर उधर भटकते जा रहे हैं। और भी कई तरह़ की परेशानियों में फंसे हैं। यह बड़ी ख़तरनाक चीज़ और बहुत बड़ी मुसीबत है। इसी में फंसा समाज भस्म हो जायेगा। ख़ाली देखने में एक लगने वाला समाज एक नहीं होता बल्कि लोगों का एक ईमानी स्तम्भ के गिर्द एकठ्ठा होना ज़रूरी है।
तथा हमें ख़ास कर देश के ज़िम्मेदारों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हम यह जो कहते हैं कि समाज को किसी भी तरफ़ मोड़ने में हुकूमत का बहुत बड़ा रोल है, इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे एक चुनाव से सब कुछ हो जाता है। ऐसा नहीं है कि हम ऐसे इंसान को जिसमें सारी ज़रूरी ख़ूबियाँ पाई जाती हैं अपना लीडर चुन लें उसके बाद ख़ुद ही सब कुछ हो जायेगा। समाज का भाग्य बदलने में चोटी के लीडरों के रोल की अहमियत काफ़ी ह़द तक इसी हिसाब से है कि यह उनके हाथ में है कि वह देश चलाने के लिए साफ़ सुथरे लोगों को चुनें। जब यह साफ़ सुथरे होंगे तभी साफ़ सुथरी हुकूमत बन पायेगी।
जब अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स) ने ह़ुकूमत की बाग डोर संभाली तो आपने हुकूमत की हर साख़ को सुधारना चाहा। अगर ह़ुकुसत का कोई एक कोना भी भ्रष्ट दिखाई पड़ा तो उसे अलग करने के लिए आपने कई महीनों की जंग मोल ली।
इसका मतलब यह हुआ कि पूरी हुकूमत का अलवी होना ज़रूरी है।
अगर ह़ुकूमत विलायत पर आधारित हो तो वली और अवाम में अटूट जोड़ होता है। विलायत यानी सरपरस्ती, जोड़, सम्पर्क, कनेक्शन, दो चीज़ो का एक दूसरी से मिलना और वली और अवाम का आपस में जुड़ा होना। इस्लामी समाज और इस्लामी ह़ुकूमत में विलायत के मानी और शक्ल यही हैं। इसी कारण मुस्लिम समाज में ह़ुकूमत को विलायत कहा जाता है। और वली और अवाम के बीच विलायती सम्पर्क होता है। इनका एक दूसरे अलग होना असम्भव होता है। फ़िर समाज के सभी सदस्य एक दूसरे से जुड़े होते हैं, कोई किसी से अलग नहीं होता। यहाँ बादशाहत या तानाशाही एंव आटो क्रेसी का मामला नहीं होता और न ही कोई तख्ता पलट करके देश की बागडोर हाथ में लेता है।
और कभी समाज में हुकूमत और शासन पूरे का पूरा जनता पर टिका होता है। अवाम ही में से होता है, अवाम के साथ होता है, सच्चे मानों में पब्लिक से जुड़ा होता है, और कभी उनसे अलग नहीं होता। जहाँ हुकूमत जनता की भलाई का न सोच रही हो बल्कि दोनों के रास्ते अलग हों वहाँ इनमें दूरियाँ होती हैं। वहां हुकूमत का फ़ायेदा किसी और चीज़ में होता है और अवाम की भलाई किसी और बात में, अमीर का सामराजी ताक़तों और तेल के लुटेरों से रिलेशन हुकूमत के फ़ायदे में होता है लेकिन अवाम पिसते हैं जैसा कि मनह़ूस पहलवी हुकूमत के दौर में हमारे मुल्क में था और आज भी कई मुल्कों में है। यहाँ जनता की भलाई इसी में होती है कि ऐसी सरकार का तख़ता उलट दे और विदेशी एजेंटों को अपने रास्ते से हटा दे। हुकूमत का इंट्रेस्ट और होता है और अवाम का और। लेकिन इस्लामी हुकूमत में ऐसा नहीं होता, इस्लामी हुकूमत में शासक पब्लिक और अवाम का वली, दोस्त, गार्डियन, भाई और पूरी तरह़ अमाव से जुड़ा होता है।
यह इस्लामी रिपब्लिक का गर्व है कि उसने इस्लामी विलायत पर आधारित शासन स्थापित किया है। अभी हम बहुत से इस्लामी अह़काम लागू नहीं कर पाये हैं। किसी समाज को पूरी तरह़ इस्लामी बनने में बहुत ज़्यादा समय लगता है लेकिन अलह़मदोलिल्लाह हमारे यहाँ इस्लामी हुकूमत बन चुकी है। दुनिया की बड़ी ताक़तों की मुख़ालेफ़त, दुश्मनी और नफ़रत व घृणा के बावजूद हम कामयाब हुए है. इस्लाम के दुश्मनों ने हमारा विरोध किया लेकिन अलह़मदोलिल्लाह हम दिन ब दिन मज़बूत होते रहे हैं, हमारी ताक़त बढ़ती रही है।
हम मुल्क के ज़िम्मेदारों को चाहिए कि ख़ूबसूरत अंदाज़ में अपने समाज में ज़्यादा से ज़्यादा इस्लामी और इलाही विलायत को लागू करें। इस ह़वाले से सबसे पहला क़दम यही होगा कि हम अपने को अवाम से अलग न करें और यह न भूलें कि यही लोग, यही नँगे पैर चलने वाले, यही दबले कुचले ग़रीब जिन्हें मेटेरियालिस्ट सुसाइटियों में कुछ भी नहीं समझा जाता मुल्क के असली मालिक हैं, उन्हीं के बलिदान से इंक़ेलाब कामयाब हुआ। और ईरान को इज़्ज़त मिली, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आम लोग ही थे जिन्होंने इस इस्लामी और इलाही मुल्क के लिए इस्लाम को चाहा और पसंद किया और फ़िर उसे लागू किया। जनता से अलग न हों।
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