मुन्तज़िरों की ज़िम्मेदारी

मुन्तज़िरों की ज़िम्मेदारी

इंसान को जिस चीज़ का इन्तेज़ार होता है वह ुसी एतेबार से अपने आपको ुसके इस्तक़बाल के लिए तैयार करता है। जो लोग वाक़ि्न हज़रत िमाम महदी अलैहिस्सलाम के मुन्तज़िर हैं और एक आलमी इन्क़ेलाब की उम्मीद लगाये हुए हैं वह सिर्फ़ ज़बानी जमा ख़र्च नही करते बल्कि ुनमें कुछ सिफ़तें पाई जाती हैं जो इस तरह है।
अपनी इस्लाह
इस अज़ीम िन्क़ेलाब के लिए ऐसे लोगों की ज़रूरत है जिनका ज़हन आलमी िस्लाहात को क़बूल करने की सलाहियत रखता हो। ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो इल्म के मैदान में आगे हो। जिनकी फ़िक्र में गहराी पायी जाती हो और दिलस में इतनी वुसअत हो कि दुश्मन को भी जगह दे सकते हों। जिनका ज़मीर ज़िंदा और बेदार हो। जो बा अख़लाक और बा मरव्वत हो। जिनमें तंग नज़री और कज फ़िक्री न पाई जाती हो। जो कीनेः और हसद से दूर हों। क्योंकि अगर कोताह फ़िक्र होंगे और तो आलमी इस्लाहात को क़बूल करने से िंकार कर देंगे। या फिर ुसे एक बहुत मुशकिल काम समझेंगे। अगर दिल में वुस्त और मुहब्बत न होगी तो अपने अलावा दूसरे के फ़ायदे को पसन्द नही करेंगे।
अगर आपस में फूट होगी तो आलमी हुकूमत की मदद नही करेंगे और दुनिया में अफ़रा तफरी फैलायेंगे।
ऐसा भी नही है कि इन्तेज़ार करने वाले की हैसियत सिर्फ एक तमाशा देखने वाले की सी हो और ुसको इन्क़लाब से कोई सरो कार न हो। बल्कि उसके लिए दो हालतों में से एक ज़रूरी हैं, या तो वह इस इन्क़लाब का मुवाफ़िक़ होगा या मुख़ालिफ़। रौशन फ़िक्र इंसान जब िस इन्क़लाब के बारे में फ़िक्र करेगा और उसके नतीजों के बारे में सोचेगा तो वह कभी भी इस िन्क़ेलाब की मुख़ालेफ़त नही करेगा। क्योँकि िस इन्क़ेलाब के ुसूल इंसान के ज़मीर व फ़ितरत से ितने क़रीब है कि हर इंसान उन्हें ज़रूर क़बूल करेगा। इस इन्क़ेलाब की मुख़ालेफ़त सिर्फ़ ज़ालिम और फ़सादी लोग ही करेंगे।
जब इंसान इस आलमी िन्क़ेलाब के तरफ़दारों में होगा तो उसके लिए होगा कि वह अपनी िस्लाह करे और नेक काम अन्जाम देने की आदत डाले। अमल से ज़्यादा नियत पकीज़ा हो, दिल तक़वे और इल्म से माला माल हो।
क्योंकि ्गर हम फ़िक्री या अमली तौर पर नापाक होंगे तो ऐसी इन्क़ेलाब की कभी तमन्ना नही कर सकते जिसकी पहली लपेट में नापाक लोग ही आयेंगे। अगर हम ख़ुद ज़ालिम होंगे तो ऐसे िन्क़ेलाब को कब चाहेंगे जिसमें ज़ालिमों के लिए कोई जगह न होगी। अगर हमारा काम फ़साद फैलाना है तो हम ऐसे इन्क़ेलाब के हामी कभी नही बन सकते जिसमें फ़साद फैलानवे वालों को नाबूद किया जायेगा।
अब आप फैसला कीजिये कि क्या ऐसे िन्क़ेलाब का इन्तेज़ार इंसान को बा अमल व बा किरदार बनाने के लिए काफ़ी नही है ? क्या इन्तेज़ार की मुद्दत इस लिए नही है कि इंसान िन्क़ेलाब आने से पहले अपनी िस्लाह कर के खुद को इन्क़ेलाब के क़ाबिल बना ले। जो लोग अपने आपको इमामे ज़माना ्लैहिस्सलाम का मुन्तज़िर कहते कहते हैं और यह कहते हुए फ़ख़्र करते हैं कि हम एक इमामे ग़ाइब के इन्तेज़ार में ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं, ुनके लिए ज़रूरी है कि वह अपने ापको इस आलमी िन्क़ेलाबह के लिए तैयार करें। ्पनी ज़ात का ख़ुद िम्तेहान लें और ्पने जज़बों को हक़ीक़त की कसौटी पर परखें। क्योंकि जो क़ौम हमेशा अपनी इस्लाह में लगी रहती हो, जौश व वलवले के साथ नेक काम ्ंजाम देती हो और बेहतरीन किरदार रखती हो, वह क़ौम और कितनी सर बलन्द होगी और उस समाज का माहौल कितना पाक व पाकीज़ा होगा जिसमें ऐसी क़ौम जन्म लोगी। वह क़ौम कोई और नही बल्ति हम और आप ही होंगे िस शर्त के साथ कि अगर हम अपनी इस्लाह की तरफ़ मुतवज्जेहल हो जायें।
समाज की इस्लाह
जहाँ हर इन्तेज़ार करने वाले की ज़िम्मेदारी यह है कि वह अपनी इस्लाह करे और अपने किरादार के जौहर दिखाये वहीं ुसकी यह भी ज़िम्मेदारी है कि वह दूसरों की भी इस्लाह करे और समाज में अख़लाक़ी क़दरों को ज़िन्दा रखे।
अगर इन बातो को ज़हन में रख कर रिवायतों को पढ़ा जाये तो मअनी बिल्कुल साफ और रौशन हो जाते हैं कि मुन्तज़िर को मुजाहिद और शहीद का दर्जा क्योँ दिया गया है।
ज़ाहिर है कि अपनी व समाज की इस्लाह बहुत मुश्किल काम है। और इस काम में सिर्फ़ ुन्हीं लोगों के क़दम जम पाते हैं जो अपने अमल व िरादे में पुख़्ता हो और अपनी मिसाल ख़ुद हों।
दुनिया में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो हमेशा इस फ़िक्र में रहते हैं कि इस्लाही बातों से भी फ़साद का पहलू किस तरह निकाला जाये। उनकी कोशिश यह होती है कि हर चीज़ में ुसके मनफ़ी (नकारात्मक) पहलू को उभारा जाये। इस्लाह को बी फ़साद का रंग दे दिया जाये ताकि उनकी दुकान ठप न होने पाये। ऐसे ही लोग कहते हैं कि हज़रत िमाम महदी अलैहिस्सलाम के ज़हूर के लिए एक शर्त यह भी है कि आप ुस वक़्त ज़हूर करेंगे जब दुनिया ज़ुल्म व सितम से भर चुकी होगी और दूर दूर तक कहीँ अच्छाईयों का नाम तक न होगा।
अगर हम इस्लाह के रास्ते पर क़दम ुठायेंगे और ज़ुल्म व सितम को मिटाने की कोशिश करेंगे तो हज़रत के ज़हूर में और देरी होगी। लिहाज़ा हमें मिल कर फ़साद की आग को और भड़काना चाहिए और ज़ुल्म व सितम के शौलों को तेज़ कर देना चाहिए ताकि जो कुछ कसर बाक़ी रह गई है वह पूरी हो जाये और हज़रत का ज़हूर जल्द हो सके।
अगर इस बात को मान भी लिया जाये तो इसका लाज़मा यह होगा कि हम अपनी बुराईयों के ज़रिये हज़रत महदी अलैहिस्सलाम के ज़हूर को जितना क़रीब करेंगे ुतने ही फ़ना और नाबूदी से भी क़रीब होते जायेंगे और अपने ही हाथों अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मार लेंगे।
लिहाज़ा अगर हम बाक़ी रहना चाहते हैं और उस आलमी इन्क़ेलाब से फ़ायदा ुठाना चाहते हैं तो ज़रूरी है कि अपने दामन को बुराईयों से दूर रखें, ज़ुल्म व सितम से दूर का भी रिश्ता न रखें और बुराईयों के दल दल से निकल कर हिदायत के मैदान में क़दम रखें। क्योंकि जो चीज़ हज़रत के ज़हूर को क़रीब कर सकती है वह बुराईयाँ नही बल्कि ुनके ज़हूर के लिए हमारी अपनी तैयारी है।
आख़िर में हम यह कह सकते हैं कि अगर इन्तेज़ार को सही शक्ल में पेश किया जाये तो इन्तेज़ार अख़लाक़ी क़दरों को ज़िन्दा रकने का बेहतरीन ज़रिया है। इन्तेज़ार बे हिस लोगों को ज़िम्मेदार बनाता है, बे िरादा लोगों के इरादे को मज़बूत बनाता है। इन्तेज़ार किसी भी हालत में इंसान को बे अमल और बद किरदार नही बनाता।
इस दावे की ज़िन्दा दलील यह आयत है ीमान लाने वालों और नेक अमल करने वालों से अल्लाह का वादा है कि अल्लाह ुनको ज़मीन पर हुकूमत अता करेगा।
इमाम अलैहिस्सलाम का इरशाद है कि इस आयत से हज़रत महदी अलैहिस्सलाम और ुनके असहाब मुराद है।
एक दूसरी रिवायत में है कि यह आयत हज़रत इमाम महदी अलैह्स्सलाम की शान में नाज़िल हुी है।

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