जवानों को इमाम अली (अ) की वसीयतें

जवानों को इमाम अली (अ) की वसीयतें

 

लेखक मुहम्मद सुबहानी

इस लेख की सनद नहजुल बलाग़ा का 31 वा पत्र है। सैयद रज़ी के कथन के अनुसार सिफ़्फ़ीन से वापसी पर हाज़रीन नाम की जगह पर आप ने यह पत्र अपने पुत्र इमाम हसन (अ) को लिखा है। हज़रत अली (अ) ने इस पत्र के ज़रिये से जो ज़ाहिर में तो इमाम हसन (अ) के लिये है, मगर वास्तव में सत्य की तलाश करने वाले सारे जवानों को इसमें संबोधित किया गया है। हम इस लेख में उसके केवल कुछ बुनियादी उसूलों का वर्णन करेगें।
तक़वा और पाक दामनी
इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं

ِ وَ اعْلَمْ يَا بُنَيَّ أَنَّ أَحَبَّ مَا أَنْتَ‏ آخِذٌ بِهِ‏ إِلَيَّ مِنْ وَصِيَّتِي تَقْوَى اللَّه‏

बेटा जान लो कि मेरे नज़दीक सबसे ज़्यादा प्रिय चीज़ इस वसीयत नामे में अल्लाह का तक़वा है तुम उसे अपनाये रहो।
जवानों के लिये तक़वे का महत्व उस समय स्पष्ट होता है कि जब जवानी की तमन्नाओं, अहसासात और चाहतों को केन्द्रित किया जाये। वह जवान जिसे जिन्सी ख़्वाहिशें, ख़्यालात और तेज़ अहसासात के तूफ़ानों का सामना करना पड़ता है ऐसे जवान के लिये तक़वा एक मज़बूत क़िले की तरह है जो दुश्मन के हमलों से उसकी सुरक्षा करता है या तक़वा एक ऐसी ढाल की तरह है जो उसके शरीर को शैतान के ज़हर में बुझे हुए तीरों से सुरक्षित रखता है।
फ़रमाते हैं:

َ اعْلَمُوا عِبَادَ اللَّهِ أَنَّ التَّقْوَى دَارُ حِصْنٍ‏ عَزِيز

ऐ अल्लाह के बंदों जान लो कि तक़वा एक कभी न गिरने वाला क़िला है।

शहीद मुतहहरी फ़रमाते हैं: यह ख़्याल नही करना चाहिये कि तक़वा नमाज़ रोज़े की तरह दीन के मुख़तस्सात में से है बल्कि यह इंसानियत के लिये अनिवार्य है। इंसान अगर चाहता है कि जानवरों और जंगलों की ज़िन्दगी से निजात हासिल करे तो वह मजबूर है कि तक़वा इख़्तियार करे।

जवान हमेशा दो राहे पर होता है दो अलग अलग शक्तियाँ उसे अपनी ओर ख़ैचती हैं एक ओर तो उसका अख़लाक़ी और इलाही ज़मीर होता है जो उसे नेकियों को ओर आकर्षित करता है दूसरी ओर शैतानी ख़्वाहिशें, नफ़्से अम्मारा और शैतानी वसवसे उसे काम वासना की ओर दावत देती हैं। अक़्ल व वासना, नेकी व बुराई, पवित्रता व अपवित्रता इस जंग और कशमकश में वही जवान सफल हो सकता है जो ईमान और तक़वा के हथियार से लैस हो।

यही तक़वा था कि हज़रत युसुफ़ (अ) मज़बूत इरादे के साथ अल्लाह की ओर से होने वाली परिक्षा में सफल हुए और बुलंद मरतबे तक पहुचे। क़ुरआने करीम हज़रत युसुफ़ (अ) की सफ़लता की कुँजी दो चीज़ों को क़रार देता है एक, तक़वा और दूसरे सब्र। सूरए युसुफ़ की 90वीं आयत में इरशाद होता है :

إِنَّهُ مَنْ يَتَّقِ وَ يَصْبِرْ فَإِنَّ اللَّهَ لا يُضِيعُ‏ أَجْرَ الْمُحْسِنِين‏

जो कोई तक़वा इख़्तियार करे और सब्र से काम ले तो अल्लाह तआला नेक कर्म करने वालों के पुन्य को बर्बाद नही करता।
इरादे की दृढ़ता

बहुत से जवान इरादे की कमज़ोरी और फ़ैसला न करने की सलाहियत की शिकायत करते हैं कहते हैं कि हमने बुरी आदत को छोड़ देने का फ़ैसला किया लेकिन उसमें सफल नही हुए इमाम अली (अ) की नज़र में तक़वा इरादे का मज़बूत होना, नफ़्स पर कंटरोल, बुरी आदात और गुनाहों के छोड़े देने का बुनियादी कारण हो सकता है आप फ़रमाते हैं जान लो कि ग़लतियाँ और पाप उस बिगड़े हुए घोड़े की तरह हैं जिसकी लगाम ढीली हो और गुनाह गार (पापी) उस पर सवार हो यह उन्हे नर्क की गहराईयों में गिरा देगा और तक़वा उस आरामदेह सवारी की तरह है जिसका मालिक उस पर सवार है उसकी लगाम उसके हाथ में है और यह सवारी उसको स्वर्ग की ओर ले जायेगी।

ध्यान रहना चाहिये कि यह काम होने वाला है मुम्किन (संभव) है। जो लोग इस वादी में क़दम रखते हैं अल्लाह तआला की इनायतें और कृपा उनके शामिले हाल हो जाती हैं जैसा कि सूरए अनकबूत की 69 वीं आयत में इरशाद है:

وَ الَّذينَ جاهَدُوا فينا لَنَهْدِيَنَّهُمْ سُبُلَنا

और वह लोग जो हमारी राह में कोशिश करते हैं हम यक़ीनन और ज़रूर उनको अपने रास्तों की तरफ़ हिदायत (मार्गदर्शन) करेगें।

2. जवानी की फ़ुरसत

बेशक सफ़लता के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक फ़ुर्सत और अवकाश के क्षणों से सही और उसूली फ़ायदा उठाना है। जवानी का जम़ाना इस फ़ुरसत के ऐतेबार से बहुत महत्व रखता है। मअनवी और जिस्मानी शक्तियाँ वह महान और नायाब तोहफ़े हैं जो अल्लाह तआला ने जवान नस्ल को दिये है। यही कारण है कि धर्म गुरुओं ने हमेशा जवानी को ग़नीमत समझने की ओर ध्यान दिलाया और ताकीद की है। इस बारे में इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं

 

ِ بَادِرِ الْفُرْصَةَ قَبْلَ أَنْ تَكُونَ غُصَّة

इसके पहले कि फ़ुरसत और मौक़ा तुम्हारे हाथ से निकल जाए और ग़म व दुख का कारण बने उसको ग़नीमत जानो।
सूरए क़सस आयत 77 वीं आयत के अनुसार

َ لا تَنْسَ‏ نَصِيبَكَ‏ مِنَ الدُّنْيا

(दुनिया में होने वाले अपने हिस्से को भूल मत जाना) की तफ़सीर में फ़रमाते हैं कि

َ لَا تَنْسَ صِحَّتَكَ‏ وَ قُوَّتَكَ‏ وَ فَرَاغَكَ وَ شَبَابَكَ وَ نَشَاطَكَ أَنْ تَطْلُبَ بِهَا الْآخِرَةَ.

अपनी सेहत, शक्ती, अवकाश, जवानी और निशात को भूल न जाना और उनसे अपनी आख़िरत के लिये फ़ायदा उठाओ। जो लोग अपनी जवानी से सही फ़ायदा नही उठाते। इमाम (अ) उनके बारे में फ़रमाते हैं:

उन्होने बदन की सलामती के दिनों में कोई चीज़ जमा नही की, अपनी ज़िन्दगी के आरम्भिक क्षणों से इबरत हासिल नही किया, क्या जो जवान है उसको बुढ़ापे के अलावा किसी और चीज़ का इंतेजार है?

जवानी के बारे में सवाल

जवानी और निशात अल्लाह की अज़ीम नेमत है जिसके बारे में क़यामत के रोज़ पूछा जायेगा। पैग़म्बरे इस्लाम (स) से एक हदीस है आप फ़रमाते हैं:

क़यामत के दिन कोई शख़्स एक क़दम नही उठायेगा मगर उससे चार सवाल पूछे जायेगें:

1. उसकी उम्र के बारे में कि कैसे और कहाँ गुज़ारी?

2. जवानी के बारे में कि उसका क्या अँजाम किया?

3. माल व दौलत के बारे में कि कहाँ से हासिल की और कहाँ कहाँ ख़र्च किया?

4. अहले बैत (अ) की मुहब्बत और दोस्ती के बारे में सवाल होगा?

यह जो आँ हज़रत (स) ने उम्र के अलावा जवानी का ख़ास तौर पर ज़िक्र फ़रमाया है उससे ज़वानी की क़द्र व क़ीमत मालूम होती है। इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं:

شَيْئَانِ لَا يَعْرِفُ‏ فَضْلَهُمَا إِلَّا مَنْ فَقَدَهُمَا الشَّبَابُ وَ الْعَافِيَة

इंसान दो चीज़ों की क़द्र व मंज़ेलत नही जानता मगर यह कि उनको खो दे, एक जवानी और दूसरे तंदरुस्ती।

3. ख़ुदसाज़ी (स्वयंसुधार)

ख़ुद को सँवारने का बेहतरीन ज़माना जवानी का दौर है। इमाम अली (अ) अपने बेटे इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं:

 

َ إِنَّمَا قَلْبُ‏ الْحَدَثِ‏ كَالْأَرْضِ الْخَالِيَةِ مَا أُلْقِيَ فِيهَا مِنْ شَيْ‏ءٍ قَبِلَتْهُ فَبَادَرْتُكَ بِالْأَدَبِ قَبْلَ أَنْ يَقْسُوَ قَلْبُكَ وَ يَشْتَغِلَ لُبُّك‏

नौजवान का दिल ख़ाली ज़मीन की तरह होता है जो उसमें बोया जाये वह ज़मीन उसे क़बूल कर लेती है इसलिय इसके पहले कि तुम्हारा दिल सख़्त हो जाये और तेरी सोच कहीं बट जाये मैंने तुम्हारी शिक्षा और प्रशिक्षण में जल्दी कर दी है।

नापसंदीदा आदतें जवानी में चूँकि उसकी जड़े मज़बूत नही होतीं इसलिये उनसे लड़ना आसान होता है। इमाम ख़ुमैनी फ़रमाते हैं जिहादे अकबर (बड़ा जिहाद) वह जिहाद है जिसका मुक़ाबला इंसान अपने बिगड़े हुए नफ़्स के साथ करता है। आप जवानों को अभी से जिहाद शुरु कर देना चाहिये कहीँ ऐसा न हो कि जवानी की शक्तियाँ तुम बर्बाद कर बैठो।

जैसे जैसे यह शक्तियाँ बर्बाद होती जायेंगी वैसे वैसे बुरे सदव्यवहार की जड़ें इंसान में मज़बूत और जिहाद मुश्किल होता जाता है। एक जवान इस जिहाद में बहुत जल्द कामयाब हो सकता है जबकि बूढ़े इंसान को इतनी जल्दी कामयाबी नही होती।

ऐसा न होने देना कि अपना सुधार को जवानी की जगह बुढ़ापे में करो।

अमीरुल मोमिनीन (अ) इरशाद फ़रमाते हैं:

 

غَالِبِ‏ الشَّهْوَةَ قَبْلَ قُوَّةِ ضَرَاوَتِهَا فَإِنَّهَا إِنْ قَوِيَتْ [عَلَيْكَ‏] مَلَكَتْكَ وَ اسْتَفَادَتْكَ وَ لَمْ تَقْدِرْ عَلَى مُقَاوَمَتِهَا

 

इससे पहले कि काम वासना और नफ़सानी ख़्वाहिशात जुरात व तंदरुस्ती की आदत अपना लें उनसे मुक़ाबला करो क्योकि अगर ख़्वाहिशात बिगड़ जायें तो तुम पर हुक्मरानी करेगीं फिर जहाँ चाहें तुम्हे ले जायेगीं। यहाँ तक कि तुम में मुक़ाबले की सलाहियत ख़त्म हो जायेगी।

4. सम्मानित व प्रतिष्ठित स्वभाव

अपने ख़त में अमीरुल मोमिनीन (अ) जवानों को एक और वसीयत करते हैं:

َ أَكْرِمْ‏ نَفْسَكَ‏ عَنْ‏ كُلِ‏ دَنِيَّةٍ وَ إِنْ سَاقَتْكَ إِلَى الرَّغَائِبِ فَإِنَّكَ لَنْ تَعْتَاضَ بِمَا تَبْذُلُ مِنْ نَفْسِكَ عِوَضاً وَ لَا تَكُنْ عَبْدَ غَيْرِكَ وَ قَدْ جَعَلَكَ اللَّهُ حُرّا

हर पस्ती से अपने आप को बाला रख। (अपने वक़ार का भरपूर ख़्याल रख) अगरचे यह पस्तियाँ तुझे तेरे मक़सद तक पहुचा दें, अगर तूने इस राह में अपनी इज़्ज़त व प्रतिष्ठा खो दी तो उसका बदला तुझे नही मिल पायेगा और ग़ैर का गुलाम न बन क्योकि अल्लाह तआला ने तुझे आज़ाद पैदा किया है। इज़्ज़ते नफ़्स इंसान की बुनियादी ज़रुरतों में से है।

उसका बीज अल्लाह तआला ने इंसान की फितरत में बोया है, उसकी हिफ़ाज़त, सुरक्षा और उन्नती व प्रगति की आवश्यकता है। फ़िरऔन के बारे में क़ुरआने करीम में इरशाद है:

 

فَاسْتَخَفَّ قَوْمَهُ فَأَطاعُوهُ إِنَّهُمْ كانُوا قَوْماً فاسِقين

 

(सूरए ज़ुख़रुफ़ आयत 54)
फ़िरऔन ने अपनी क़ौम को ज़लील किया इसलिये उन्होने उसकी आज्ञा का पालन किया क्योकि वह लोग फ़ासिक़ थे।

इज़्ज़त और वक़ार के लिये निम्नलिखित कार्य आनिवार्य हैं:

विभिन्न कार्यों में से एक पाप और गुनाह है जो इंसान की इज़्ज़त और प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुचाता है अत पाप और गुनाह से बचना नफ़्स की शराफ़त और वक़ार एँव सम्मान का कारण बनता है इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

 

مَنْ‏ كَرُمَتْ‏ عَلَيْهِ‏ نَفْسُهُ‏ لَمْ يُهِنْهَا بِالْمَعْصِيَة

 

जो अपने लिये सम्मान व प्रतिष्ठा का क़ायल हो ख़ुद को पाप और गुनाह के ज़रिये ज़लील नही करता।

ब. बेनियाज़ी

दूसरों की चीज़ों पर नज़र रखना और मजबूरी के अलावा दूसरों से मदद माँगना इंसान की प्रतिष्ठा और सम्मान को बर्बाद कर देता है। इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं:

الْمَسْأَلَةُ طَوْقُ‏ الْمَذَلَّةِ تَسْلُبُ الْعَزِيزَ عِزَّهُ وَ الْحَسِيبَ حَسَبَهُ.

 

लोगो से माँगना बेइज़्ज़ती का एक ऐसा तौक़ है जो इज़्ज़तदारों की इज़्ज़त और शरीफ़ ख़ानदान और वंश के इंसानों से उनके वंश की शराफ़त को छीन लेता है।

स. सही राय

इज़्ज़त व शराफ़ते नफ़्स का बहुत ज़्यादा ताअल्लुक़ इंसान की अपने बारे में राय से है जो कोई ख़ुद को कमज़ोर ज़ाहिर करता है लोग भी उसे ज़लील व पस्त समझते हैं इसलिये इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

 

الرَّجُلُ‏ حَيْثُ‏ اخْتَارَ لِنَفْسِهِ‏ إِنْ‏ صَانَهَا ارْتَفَعَتْ‏ وَ إِنِ‏ ابْتَذَلَهَا اتَّضَعَت‏

 

हर इंसान की इज़्ज़त उसकी अपने कार्यों पर आधारित है जो उसने इख़्तियार की है अगर अपने आपको पस्ती व ज़िल्लत से बचा के रखे तो बुलंदियाँ तय करता है और ख़ुद को ज़लील करे तो पस्तियों और ज़िल्लतों का शिकार हो जाता है।

द. घटिया बातों और कार्यों से बचने का उपाय

अगर कोई चाहता है कि उसका वक़ार और इज़्ज़ते नफ़्स सुरक्षित रहे तो उसे चाहिये कि हर ऐसी बात और काम से जो कमज़ोरी का कारण बने उस से बचे। इसीलिये इस्लाम ने चापलूसी, ज़माने से शिकायत, अपनी मुश्किलों के लोगों से बयान करने, बड़े बड़े दावे करना, यहाँ तक कि बे मौक़ा आवभगत, सत्कार, तवाज़ो और इंकेसारी ज़ाहिर करने से मना किया है इमाम अली (अ) फ़रमाते है:

كَثْرَةُ الثَّنَاءِ مَلَقٌ‏ يُحْدِثُ الزَّهْوَ وَ يُدْنِي مِنَ الْعِزَّة

 

हद से ज़्यादा प्रशंसा और तारीफ़ चापलूसी है उससे एक तरफ़ तो इंसान में घमंड पैदा हो जाता है जबकि दूसरी तरफ़ इज़्ज़ते नफ़्स से दूर हो जाता है।
इसी तरह से इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

رَضِيَ‏ بِالذُّلِ‏ مَنْ‏ كَشَفَ‏ ضُرَّهُ‏ لِغَيْرِهِ‏.

 

जो शख़्स अपनी ज़िन्दगी की मुश्किलों को दूसरों से बयान करता है वह अस्ल में अपनी बेइज़्ज़ती व अपमान पर राज़ी हो जाता है।

5. ज़मीर की आवाज़

इमाम (अ) अपने बेटे से फ़रमाते हैं:

ِِ ِ يَا بُنَيَّ اجْعَلْ نَفْسَكَ‏ مِيزَاناً فِيمَا بَيْنَكَ وَ بَيْنَ غَيْرِك


बेटा, ख़ुद को अपने और दूसरों के बीच फ़ैसले का मेयार क़रार दो, अगर समाज में सब लोग ज़मीर की पुकार के साथ एक दूसरे से रिश्ता रखें, एक दूसरे के हक़, फ़ायदे और हैसियत का आदर करें तो समाज के संबंधों में दृढ़ता, मज़बूती, शाँति और अम्न पैदा हो जायेगा। एक हदीस में आया है कि एक शख़्स पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पास आया और कहा ऐ अल्लाह के नबी मैं अपनी तमाम शरई ज़िम्मेदारियों को पूरा करता हूँ लेकिन एक गुनाह है जो मुझ से छूट नही पा रहा है वह नाज़ायज़ ताअल्लुक़ है। यह बात सुन कर सारे सहाबी बहुत ग़ुस्से में आ गये लेकिन आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया आप लोग इसको कुछ न कहें मैं ख़ुद इससे बात करता हूँ उसके बाद आपने फ़रमाया:ऐ शख़्स क्या तेरी माँ बहन या कोई इज़्ज़त व सम्मान है या नही? उसने कहा हाँ या रसूलल्लाह, आपने फ़रमाया तू यह चाहता है कि लोग भी तेरे घर की इज़्ज़त से ऐसे ही ताअल्लुक़ रखें? उसने कहा हरगिज़ नही तो आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया तो तू ख़ुद में कैसे हिम्मत पैदा करता है कि इस तरह का पाप करे? उस शख़्स ने सर झुका लिया और कहा ऐ अल्लाह के नबी आज के बाद मैं वादा करता हूँ कि यह पाप नही करूगा।19

इमाम सज्जाद (अ) फ़रमाते हैं लोगों का यह हक़ है कि उनको परेशान करने और तकलीफ़ पहुचाने से बचो और उनके लिये वही पसंद करों जो अपने लिये पसंद करते हो और वही जो अपने लिये नापसंद करते हो उनके लिये भी नापसंद करो। क़ुरआने हकीम में जो नफ़्से लव्वामा की सौगंध ख़ाई गई है यह वही इंसानी ज़मीर की आवाज़ है इरशाद होता है:

 

( لَا أُقْسِمُ بِيَوْمِ الْقِيَامَةِ(1
وَ لَا أُقْسِمُ بِالنَّفْسِ اللَّوَّامَةِ(2)

 

क़सम है क़यामत के दिन की और क़सम है उस नफ़्स की जो इंसान को गुनाह और पाप करने पर सख़्ती से रोकता और बुरा भला कहता है।

4. अनुभव प्राप्त करना

इमाम अली (अ) इसी वसीयत नामे में अपने बेटे इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं:

َ اعْرِضْ‏ عَلَيْهِ‏ أَخْبَارَ الْمَاضِينَ‏ وَ ذَكِّرْهُ بِمَا أَصَابَ مَنْ كَانَ قَبْلَكَ مِنَ الْأَوَّلِينَ وَ سِرْ فِي دِيَارِهِمْ وَ آثَارِهِمْ فَانْظُرْ فِيمَا فَعَلُوا وَ عَمَّا انْتَقَلُوا وَ أَيْنَ حَلُّوا وَ نَزَلُوا

 

अपने दिल के सामने पिछले लोगो की ख़बरें और उनके हालात को रखो जो कुछ उन पर तुम से पहले गुज़र चुका है उसको याद करो उनकी क़ब्रों और वीरानों, खंडरों को देखो कि उन्होने क्या किया। वह लोग कहाँ से आये और कहाँ चले गये और कहाँ हैं।
एक जवान को चाहिये कि वह इतिहास को पढ़े और अपने लिये उनके अनुभवों को जमा करे क्योकि

1. जवान क्योकि कम उम्र होता है उसका ज़हन कच्चा और अनुभव से ख़ाली होता है उसने ज़माने के सर्द व गर्म नही देखे होते और ज़िन्दगी की मुश्किलों का सामना नही किया होता। यही कारण है कि किसी समय एक जवान का दिली सुकून तबाह हो जाता है और वह मायूसी या उसके बर ख़िलाफ़ तबीयत की सख़्ती और तेज़ी की शिकार हो जाता है।

2. ख़्यालात और वहम जवानी के ज़माने की विशेषताएँ हैं जो कभी तो जवान को वास्तविकता से भी दूर कर देते हैं जबकि अनुभव इंसान के वहम के पर्दों का फाड़ वास्तविक ज़िन्दगी में ले आता है। इमाम (अ) फ़रमाते हैं

:
التَّجَارِبُ‏ عِلْمٌ‏ مُسْتَفَاد

 

इँसानी अनुभव एक फ़ायदेमंद ज्ञान होता है।
3. बावजूद इसके कि जवान की इल्मी सलाहियत और क़ाबिलियत इसी तरह विभिन्न फ़न और महारतें सीखने की सलाहियत बहुत ज़्यादा होती है लेकिन ज़िन्दगी का अनुभव न होने के कारण बिना सोचे फ़ैसले करता है और यह चीज़ उसको दूसरों के जाल में फाँस देती है। इमाम फ़रमाते हैं:

 

مَنْ‏ قَلَّتْ‏ تَجْرِبَتُهُ خُدِعَ.

 

जिसके पास अनुभव कम हो वह धोखा खा जाता है। इमाम (अ) फ़रमाते हैं: अनुभवी इंसानों के साथ रहो क्योकि उन्होने अपनी क़ीमती चीज़ अनुभव को अपनी सबसे क़ीमती चीज़ यानी उम्र को दे कर हासिल किया है जबकि तुम इस क़ीमती चीज़ को बहुत कम क़ीमत पर आसानी से हासिल कर सकते हो।22

अनुभव प्राप्त करने का एक बहुत बड़ ज़रिया पिछली क़ौमों के इतिहास का अध्धयन करना है। इतिहास, भूतकाल और वर्तमान काल के बीच में संबंध स्थापित करता है बल्कि भविष्यकाल के लिये रास्ते के दिये की तरह होता है। इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं पिछली सदियों के इतिहास में तुम्हारे लिये बहुत बड़ी बड़ी इबरत पाई जाती है।23

7. समाजी रहन सहन और दोस्ती

इसमें शक नही है कि दोस्ती के बाक़ी रहने के लिये उसकी सीमा और समाजी रहन सहन का ख़्याल रखा जाये। दोस्त बनाना आसान और दोस्ती निभाना मुश्किल है।

अमीरुलमोमिनीन (अ) इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं: सबसे कमज़ोर इंसान वह है जो दोस्त न बना सके और उससे भी कमज़ोर वह है जो दोस्त को खो दे।24

कुछ जवान दोस्ताना संबंधों के बाक़ी न रह पाने या टूट जाने की शिकायत करते हैं। इस सिलसिले में अगर हम इमाम अली (अ) की नसीहतों पर अमल करें तो यह मुश्किल हल हो सकती है।

इमाम (अ) की हदीस में महत्वपूर्ण नुक्ते यह हैं:

अ. दोस्ती में संतुलन आवश्यक है:

जवानी के दिनों में अकसर देखने में आता है कि जवान दोस्ती की सीमा को पार कर जाते हैं और इसकी दलील जवानी के ज़माने के अहसासात हैं। कुछ जवान दोस्ती में हद से ज़्यादा मुहब्बत का इज़हार करते हैं जबकि जुदाई के दिनों में उसके बर ख़िलाफ़ शदीद विरोध और दुश्मनी का मुज़ाहेरा करते हैं यहाँ तक कि कुछ तो ख़तरनाक काम तक कर डालते हैं।

हज़रत फ़रमाते हैं:अपने दोस्त से हद में रहते हुए दोस्ती और मुहब्बत का इज़हार करो हो सकता है वह किसी दिन तुम्हारा दुश्मन बन जाये और इसी तरह से उस पर नफ़रत और ग़ुस्सा करते समय नर्मी और मुहब्बत का मुज़ाहेरा करो चूँकि मुम्किन है कि वह तुम्हारा दोस्त बन जाये।35

इस पत्र में इमाम (अ) फ़रमाते हैं अगर तुम चाहते हो कि अपने भाई से ताअल्लुक़ात ख़त्म कर लो तो कोई एक रास्ता उस के लिये ज़रुर छोड़ दो ताकि अगर किसी दिन वह लौटना चाहे तो लौट सके।

शेख सादी इस बारे में कहते हैं कि अपने हर राज़ को अपने दोस्त के सामने बयान न करों क्या मालूम कि एक दिन वह तुम्हारा दुश्मन बन जाये और तुम्हे वह नुक़सान पहुचाएँ जो दुश्मन भी नही पहुता सकता जबकि यह भी मुम्किन है कि किसी समय दोबारा तुम से फिर से दोस्ती हो जाये।36

ब. जवाब में मुहब्बत का इज़हार

दोस्ती और मुहब्बत की बुनियाद एक दूसरे से मुहब्बत और दोस्ती के इज़हार पर है। अगर दोनों में से एक तो दोस्ती चाहता हो जबकि दूसरा ऐसा न चाहता हो तो उसका नतीजा बेइज़्ज़ती के अलावा कुछ नही हो सकता।

इसी लिये अमीरुल मोमिनीन (अ) अपने इस पत्र में इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं:

 

َ لَا تَرْغَبَنَ‏ فِيمَنْ‏ زَهِدَ عَنْك‏

 

जो तुम से संबंध नही रखना चाहता उससे मुहब्बत का इज़हार न करो।

स. दोस्ताना संबंधों की सुरक्षा

इमाम अली (अ) दोस्ताना संबंधों की रक्षा के बारे ज़ोर देते हैं और उसके कारणों को बयान फ़रमाते हैं जो दोस्ती की मज़बूती प्रदान करते हैं। फ़रमाते हैं अगर तुम्हारा दोस्त तुम से दूरी इख़्तियार करे तो तुम्हे चाहिये कि तुम उसे तोहफ़े दो और जब वह दूर हो तो तुम नज़दीक हो जाओ जब वह सख़्ती करे तो तुम नर्मी से काम लो। जब वह ग़लती या पाप करे और बहाना बनाए तो उसकी बात को मान लो।

कुछ लोग चूँकि बहुत छोटे दिल के होते हैं और अहसान का नतीजे दूसरे को नीचा दिखाना और ख़ुद को अक़्लमंद ख़्याल करते हैं इसलिये आप इसके आगे इरशाद फ़रमाते हैं इन सारे मौक़ों की नज़ाकतों को पहचानो और बहुत अहतियात से काम लो कि जो कुछ कहा गया है उसको केवल उसके सही समय पर अँजाम दो। इसी तरह उस शख़्स के बारे में अँजाम न दो जो अहमियत नही रखता।

इमाम (अ) इसी तरह एक और नसीहत इरशाद फ़रमाते हैं:

अपने दोस्त के साथ ख़ुलूस के साथ भलाई करो चाहे यह बात उसको पसंद आये या न आये।

हवाले:

1. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 156
2. दह गुफ़तार पेज 14
3. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 16
4. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 31
5. बिहारुल अनवार जिल्द 68 पेज 177
6. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 82
7. बिहारुल अनवार जिल्द 74 पेज 160
8. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 183
9. नहजुल बलाग़ा ख़त 31
10. आईने इंक़ेलाबे इस्लामी पेज 203
11. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 392
12. नहजुल बलाग़ा ख़त 31
13. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 5 पेज 357
14.ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 2 पेज 145
15. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 2 पेज 77
16. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 595
17. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 93
18. नहजुल बलाग़ा ख़त 31
19. अख़लाक़ व तालीम व तरबीयत इस्लामी, लेखक ज़ैनुल आबेदीन क़ुरबानी पेज 274
20. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 1 पेज 260
21. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 5 पेज 185
22. शरहे नहजुल बलाग़ा इब्ने अबिल हदीद जिल्द 20 पेज 335
23. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 181
24. बिहारुल अनवार जिल्द 74 पेज 278
25. नहजुल बलाग़ा कलिमाते क़िसार 260
26. गुलिस्ताने सादी 8 वा अध्याय

नई टिप्पणी जोड़ें