रमज़ान और इंसान 5

रमज़ान और इंसान 5

ईश्वरीय धर्म इस्लाम की एक विशेषता यह है कि उसकी शिक्षाएं इंसान की प्रवृत्ति के अनुसार हैं और उसके जो आदेश हैं वे वास्तव में मानवीय प्रवृत्ति की आवश्यकता हैं। इस्लाम में इंसान को जिस चीज़ से मना किया गया है या उन्हें हराम बताया गया है वास्तव में वे इंसान की प्रवृत्ति से मेल नहीं खाती हैं जबकि इस्लाम में इंसान को जिन चीज़ों का आदेश दिया गया है वे बिल्कुल इंसान की प्रवृत्ति के अनुरूप हैं। यही कारण है कि इंसान इस्लाम धर्म की शिक्षाओं को स्वीकार करता है और अपनी जीवन शैली को उसकी शिक्षाओं के अनुरुप बनाता है।

ईश्वरीय धर्म इस्लाम की एक विशेषता यह है कि उसकी शिक्षाएं सरल व सुगम हैं। इस्लाम धर्म की जो शिक्षाएं व आदेश हैं महान ईश्वर ने उसमें लोगों की क्षमताओं को दृष्टि में रखा है। दूसरे शब्दों में महान ईश्वर ने इंसान को पैदा किया है और उसी ने लोक- परलोक में इंसान की भलाई के लिए जो कानून बनाये हैं वे उसकी क्षमता व प्रवृत्ति के अनुरुप हैं। इस्लाम धर्म की जो शिक्षाएं व क़ानून हैं उनका मापदंड इंसान के हित हैं। इसी तरह जो चीज़ इंसान के लिए हानिकारक है उसे इस्लाम की शिक्षाओं में वर्जित किया गया है। स्पष्ट है कि जो क़ानून इंसान की प्रवृत्ति के अनुरूप होगा उसे इंसान स्वीकार करेगा और इंसान की बुद्धि व आत्मा उसे व्यवहारिक बनाना चाहेगी। अगर कुछ लोग अपने व्यक्तिगत हितों या अज्ञानता के कारण इसका विरोध करते हैं और उसे व्यवहारिक नहीं होने देना चाहते हैं तो दूसरे लोग इसका विरोध और उनकी भर्त्सना करते हैं।

ईश्वरीय धर्म इस्लाम की शिक्षाओं में से एक रोज़ा है जो इंसान की प्रवृत्ति के अनुरूप है। जो इंसान रोज़, खाता- पीता है रोज़ा उसके लिए कठिन और एक प्रकार का अभ्यास है। जिस तरह जो इंसान डाइटिंग करता है बहुत सी चीज़ों का खाने- पीने का उसका दिल कहता है परंतु उन चीज़ों का न खाना ही उसके लिए लाभदायक होता है उसी तरह रोज़े में इंसान का मन बहुत सी चीज़ों का खाने- पीने का करता है परंतु उन चीज़ों का न खाना- ही इंसान के हित में होता है। महान ईश्वर इंसान की भलाई चाहता है वह उसे कठिनाई नहीं देना चाहता है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरये बक़रह की १८५वीं आयत में रोज़े का आदेश देने  के साथ कहता है कि जो लोग यात्रा में हों या बीमार हों वे किसी दूसरे समय रोज़ा रखें परंतु जो लोग न यात्रा में हैं और न ही बीमार हैं तो उन्हें समय पर रोज़ा रखना चाहिये। उसके बाद महान ईश्वर कहता है “ईश्वर तुम्हारे लिए आसानी चाहता है"।

रोज़ा पिछली क़ौमों व जातियों में भी मौजूद था। रोमी, हिन्दु, यूनानी और मिस्री वे कौमें थीं जिनके मध्य रोज़ा प्रचलित था। फीसाग़ूर्स और अफलातून जैसे कुछ यूनानी दर्शनशास्त्रियों का भी मानना था कि रोजा से इंसान की आत्मा में आध्यात्मिक स्थिति उत्पन्न होती है और यह हालत आध्यात्मिक प्रेरणा की भूमिका होती है। इसी प्रकार अमेरिका के बहुत से स्थानीय क़बीलों का मानना था कि महान आत्मा से मार्गदर्शन प्राप्त करने में रोज़ा प्रभावी रहा है और वह आत्मा की शुद्धि का कारण है।

यहूदी और ईसाई धर्म के मानने वालों के मध्य भी रोज़ा प्रचलित था। यहूदी धर्म में महान ईश्वर से सामीप्य प्राप्त करने का एक तरीक़ा रोज़ा बताया गया है। रोज़ा रखना यहूदियों की एक उपासना थी और इस बात का उल्लेख कई बार अहदे अतीक़ नामक किताब में किया गया है। हज़रत मूसा ने विशेष ईश्वरीय आदेश प्राप्त करने से पूर्व सीना पहाड़ में चालिस दिन तक रोज़ा रखा और खाने- पीने से परहेज़ किया। आज पूरे विश्व में यहूदियों के मध्य रोज़ा रखना आम बात है और उनके मध्य रोज़ा दो प्रकार का है अनिवार्य और ग़ैर अनिवार्य।

ईसाईयों के कैलैन्डर में भी रोज़े को पंजीकृत किया गया है और उसकी गणना उनकी धार्मिक शिक्षाओं में की जाती है। इंजील में आया है कि हज़रत ईसा मसीह ने अपने अनुयाइयों को रोज़ा रखने का आदेश दिया है इस प्रकार से कि रोज़ा रखना हवारियून यानी हज़रत ईसा मसीह के अनुयाइयों और उनके संदेशकों की विशेषता थी।

महान ईश्वर ने इंसान के अस्तित्व में प्रवृत्ति नाम का मूल्यवान रत्न रखा है। प्रवृत्ति वह चीज़ है जिसके आधार पर महान ईश्वर ने इंसान की रचना की है। वास्तव में महान ईश्वर ने जिस समय इंसान को पैदा किया उसी समय उसने अपना प्रेम भी इंसान के अस्तित्व में रख दिया। इस आधार पर अगर इंसान की वास्तविकता पहचान ली जाये तो उसका और आध्यात्मिक संसार का संबंध ज्ञात हो जायेगा फिर कोई इंसान रमज़ान के पवित्र महीने के रोज़े को वंचितता का कारण नहीं समझेगा बल्कि उसे इंसान की पूरिपूर्णता का कारण समझेगा।

वास्तव में रोज़ा इंसान की इच्छा को नियंत्रण करने और ग़लत आंतरिक इच्छाओं से मुकाबले का एक अभ्यास है ताकि इंसान महत्वपूर्ण उद्देश्य यानी महान ईश्वर से सामीप्य प्राप्त कर सके।

इस्लाम धर्म की शिक्षाओं में एक रोज़ा है जिस पर बहुत बल दिया गया है। महान ईश्वर ने रमज़ान के पवित्र महीने का रोज़ा अनिवार्य करके इंसान को एक मूल्यवान अवसर प्रदान कर दिया है ताकि वह अपने अंदर निहित क्षमताओं का लाभ उठाये और अपना वास्तविक स्थान अर्थात महान ईश्वर के प्रतिनिधि का स्थान प्राप्त करे। यह ईश्वरीय दायित्व कम खाने- पीने और भूख के साथ है। रोज़े के लाभों के बारे में जो चीज़ हदीसों अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम एवं उनके पवित्र परिजनों के कथनों में आयी है वह बहुत आश्चर्यजनक है। पूरिपूर्णता तक पहुंचने की रोज़ा रखने और कम खाने-पीने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम इस बारे में फरमाते हैं” जो इंसान अपने पेट को भूखा रखता है उसके सोचने की शक्ति में वृद्धि होती है और परिणाम स्वरूप ज्ञान प्राप्त करता है।“

इसी प्रकार रवायत में आया है कि महान ईश्वर ने हज़रत दाऊद नाम के अपने एक दूत के पास संदेश भेजा कि हे दाऊद!  मैंने पांच चीज़ों को पांच चीज़ों में रखा है परंतु लोग दूसरी पांच चीज़ों को ढूंढ रहे हैं और उसे नहीं पायेंगे। उनमें से एक ज्ञान है कि मैंने उसे भूख और प्रयास में रखा है जबकि लोग उसे भेट भरे में ढूंढ रहे हैं और उसे नहीं पायेंगे।

रोज़ा और अपने पेट को खाली रखने के बहुत लाभ हैं। उसका एक लाभ ज्ञान व तत्वदर्शिता से लाभान्वित होना है। जब इंसान का अमाशय भरा होता है तो शरीर का सिस्टम आम तौर पर खाना पचाने के प्रयास में लगा होता है और उसके परिणाम में इंसान की सोच और उसका दिमाग़ अच्छी तरह से अपना कार्य नहीं कर सकता। इस आधार पर जब इंसान का अमाशय खाली होता है तो उसके अंदर सीखने एवं याद करने की शक्ति व क्षमता अधिक होती है। एक बार एक व्यक्ति ने एक धर्मगुरू से कहा कि वह उसे उपासना का तरीक़ा सिखाये। तो उस धर्मगुरू ने उस व्यक्ति से पूछा तुम्हारा खाना क्या है? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया मैं पेट भरकर खाता हूं। धर्मगुरू ने यह सुनते ही कहा कि यह तो जानवरों की आदत है तुम पर अनिवार्य है कि पहले अपने खाने का तरीक़ा सही करो उसके बाद उपासना का शिष्टाचार सीखो।“

रमज़ान का पवित्र महीना एक अच्छा अवसर है ताकि इंसान रोज़ा रखकर अपनी आत्मा को शुद्ध बनाये और स्वयं को हर प्रकार की ग़लत इच्छाओं से स्वतंत्र करे। इस पवित्र महीने में ईश्वर की कृपा के द्वार खुल जाते हैं और प्रायश्चित करने वालों के प्रायश्चित स्वीकार किये जाते हैं। वास्तव में रमज़ान के पवित्र महीने में इंसान के पास जो अवसर हैं उससे वह लाभ उठाकर परिपूर्णता की दिशा में क़दम उठा सकता है। ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी महान क्रांतिकारी होने के साथ साथ, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और परिज्ञान आदि विषयों पर गहरी दृष्टि रखते थे। उनकी एक विशेषता यह थी कि वह बहुत मुत्तक़ी थे यानी ईश्वर का भय रखते थे। वे रमज़ान के पवित्र महीने के बारे में कहते थे” यह ईश्वर की ओर से एक मेहमानी है यह भी ईश्वर की अनुकंपा और कृपा है कि वह कमज़ोर प्राणी को देता है ताकि वह स्वयं को ऊंचा कर सके।“

स्वर्गीय इमाम खुमैनी सदैव अपने भाषणों में महान ईश्वर को याद करने और उसकी उपासना करने पर बल देते थे। वे रमज़ान के पवित्र महीने में हर दूसरे समय से अधिक महान ईश्वर की उपासना और उससे प्रार्थना करते थे और रमज़ान के पवित्र महीने से अधिक से अधिक और बेहतर ढंग से लाभ उठाने का प्रयास करते थे और उसे मूल्यवान समझते थे।

जब स्वर्गीय इमाम खुमैनी इराक के पवित्र नगर नजफ में थे तो ५० डिग्री सेन्टीग्रेड की प्रचंड गर्मी में १६-१६ घंटे रोज़ा रखते थे और अनिवार्य नमाज़ों के साथ ग़ैर अनिवार्य नमाज़ों को भी नहीं पढ़ लेते, रोज़ा नहीं खोलते थे। स्वर्गीय इमाम खुमैनी दोपहर की नमाज़े जमाअत अर्थात सामूहिक रूप से पढ़ी जाने वाली नमाज़ में भाग लेने के लिए दिवंगत आयतुल्लाह बुरूजर्दी के मदरसे जाते थे और प्रतिदिन ग़ैर अनिवार्य नमाजों के साथ अनिवार्य नमाज़ भी पढ़ते थे और उसके बाद अपने घर जाते थे। उनका यह कार्य कुछ धार्मिक छात्रों के लिए कठिन प्रतीत होता था अतः धार्मिक छात्रों की प्रशिक्षा में स्वर्गीय इमाम खुमैनी के कर्मों की प्रभावी भूमिका थी और वे धार्मिक छात्रों द्वारा उनके अनुसरण का कारण बनते थे। ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई रमज़ान के पवित्र महीने में स्वर्गीय इमाम खुमैनी की स्थिति के बारे में कहते हैं” इमाम खुमैनी प्रायः रमज़ान महीने में दूसरों से भेंट नहीं करते थे मगर यह कि ज़रूरी हो किन्तु रमज़ान महीने के बाद जब इंसान इमाम को देखता था और वे लोगों से बात करते थे तो इंसान स्पष्ट रूप से समझ जाता था कि एक महीने के अंदर उनका चेहरा अधिक तेजस्वी हो गया है। इंसान इस चीज़ का आभास करता था। लगगभग ९० वर्ष का बूढा इस एक महीने में चलता था आगे बढता था! वह हमेशा चलते थे परंतु रमज़ान महीने में अधिक और गम्भीर! चूंकि रमज़ान का महीना अधिक उचित अवसर है।“

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