शेख़ निम्र को मृत्युदंड दिये जाने के नकारात्मक प्रभाव

शेख़ निम्र को मृत्युदंड दिये जाने के नकारात्मक प्रभाव

वर्ष 2016 के दूसरे दिन ही ऐसी ख़बर सुनने को मिली जिसने मुसलमानों और बहुत से स्वतंत्रता प्रेमी लोगों को दुःखी व प्रभावित कर दिया। सऊदी अरब के गृहमंत्रालय ने एक विज्ञप्ति जारी करके घोषणा की, कि इस देश के स्वतंत्र व वरिष्ठ धर्मगुरू शेख़ निम्र बाक़िर अन्निम्र को वर्षों जेल में रखने और यातना देने के बाद फांसी दे दी गयी। उनके अलावा 46 दूसरे व्यक्तियों को फांसी दी गयी।

सऊदी अरब के इस कृत्य के बाद पूरी दुनिया विशेषकर इस्लामी जगत में इसकी आलोचना व भर्त्सना की जा रही है। ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई और ईरान, इराक तथा लेबनान के बहुत से धर्मगुरूओं और राजनीतिक एवं धार्मिक हस्तियों ने शेख़ निम्र बाक़िर अन्निम्र को फांसी दिये जाने की भर्त्सना की है। वरिष्ठ नेता ने रविवार तीन जनवरी को शेख निम्र बाक़िर अन्निम्र को शहीद किये जाने और निर्दोष के ख़ून बहाये जाने को सऊदी सरकार की राजनीतिक ग़लती बताया और आज़ादी, डेमोक्रेसी और मानवाधिकार का दावा करने वालों की चुप्पी तथा निर्दोष का खून बहाने वाली सऊदी सरकार के समर्थकों की कड़ी निंदा की। वरिष्ठ नेता ने बल देकर कहा कि इस्लामी जगत और पूरी दुनिया को चाहिये कि वह इस संबंध में अपनी ज़िम्मेदारी का आभास करे। वरिष्ठ नेता ने स्पष्ट किया कि इस धर्मगुरू ने न लोगों को सशस्त्र आंदोलन के लिए प्रेरित किया और न गोपनीय ढंग से कोई षडयंत्र किया बल्कि उनका कार्य केवल खुल्लम- खुल्ला टीका -टिप्पणी और अच्छाई का आदेश देना तथा बुराई से रोकना था जिसका स्रोत धार्मिक आस्था थी। ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि जो लोग सच्चाई के साथ मानवता के भविष्य निर्धारण, मानवाधिकार के भविष्य निर्धारण और न्याय में रूचि रखते हैं उन्हें चाहिये कि वह इस मामले पर काम करें और इस स्थिति के प्रति उन्हें लापरवाह नहीं रहना चाहिये।

एक जाने -पहचाने और स्वतंत्रताप्रेमी धर्मगुरू को फांसी देने में आले सऊद का अपराध मध्यपूर्व में सऊद परिवार की नीतियों व कार्यवाहियों का परिणाम है। यह धर्मगुरू केवल आले सऊद की तानाशाही नीतियों पर टीका – टिप्पणी करते थे। एक धर्मगुरू को फांसी राजनीतिक लक्ष्यों से दी गयी जबकि उन्होंने किसी प्रकार की गुप्त यहां तक सऊदी सरकार के विरुद्ध सशस्त्र गतिविधि नहीं की थी, उन्होंने केवल अपने भाषणों में शिया मुसलमानों के प्राथमिक अधिकारों को मान्यता दिये जाने की मांग की थी। शेख निम्र बाक़िर अन्निम्र आले सऊद की सरकार के लिए किसी प्रकार का ख़तरा नहीं थे कि इस संघर्षकर्ता धर्मगुरू को फांसी देना सऊदी सरकार के लिए गर्व की बात हो जाये। सवाल यह उठता है कि सऊदी अरब की सरकार, इस देश और इस्लामी जगत में जाने- पहचाने वरिष्ठ धर्मगुरू को फांसी देने की भारी क़ीमत चुकाने के लिए किस लक्ष्य से तैयार हुई?

वास्तविकता यह है कि सऊदी नरेश मलिक अब्दुल्लाह के मरने और मलिक सलमान के इस देश का राजा शासक बनने से सऊद परिवार के शहज़ादों की टीम सत्ता में पहुंच गयी और वे स्वयं सऊदी अरब और क्षेत्र में अपने लक्ष्यों को पैसा, हथियार और शक्ति के बल पर आगे ले जाना चाहते हैं। वे यह सोचते हैं कि डेमोक्रेसी का दावा करने वाली पश्चिमी सरकारों और तुर्की जैसी क्षेत्र की कुछ सत्तालोलुप सरकारों से निकट का संबंध स्थापित करके अपनी अतिवादी नीतियों को आगे ले जा सकते हैं। इसी कारण वे क्षेत्र में शांति व सुरक्षा स्थापित करने और आतंकवाद से मुकाबले में ईरान की रचनात्मक भूमिका के मुखर विरोधी हैं और उसे अरब देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की संज्ञा देते हैं। इसी दृष्टि से उन्होंने पिछले कई वर्षों से इस्लामी प्रतिरोध के मुकाबले में एक मोर्चा बना लिया है।

जब सऊदी अरब आतंकवादियों और अतिवादियों का समर्थन करने के बावजूद सीरिया, इराक और यमन में अपने लक्ष्यों को नहीं साध सका तो अब वह इस्लामी प्रतिरोध के मुक़ाबले में तुर्की, इस्राईल से मिलकर बने गठजोड़ के खुल जाने में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं ले रहा है। सऊदी अरब और तुर्की सदैव इस्लामी जगत विशेषकर अरब जनमत में यह दिखाने का प्रयास करते रहे हैं कि वे ज़ायोनी शासन के अतिक्रमण के मुकाबले में फिलिस्तीन की अत्याचारग्रस्त जनता के समर्थक हैं परंतु अब वे जायोनी शासन के साथ मिलकर सीरिया और इराक में संकट उत्पन्न कर रहे हैं और इन देशों में सक्रिय आतंकवादियों का व्यापक समर्थन कर रहे हैं। तुर्की के राष्ट्रपति रजब तय्यब अर्दोग़ान की रियाज़ यात्रा के एक दिन बाद सऊदी अरब ने अपने लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए दोनों देशों के स्ट्रैटेजिक गठबंधन और संघर्षकर्ता धर्मगुरू शेख निम्र को फांसी दिये जाने की घोषणा की।

सऊदी अरब ने जाने -पहचाने इस धर्मगुरू को ऐसी स्थिति में फांसी दी है जब सीरिया और इराक में कुछ परिवर्तन होने वाले हैं। तुर्की और सऊदी अरब जिन आतंकवादी गुटों का समर्थन कर रहे हैं वे अपने ठिकानों से पीछे हटते जा रहे हैं। इराक में सेना और स्वयं सेवी बल अलअंबार प्रांत के केन्द्र रोमादी नगर को आतंकवादी गुट दाइश से स्वतंत्र कराने में सफल हो गये। सीरिया में भी सेना और स्वयं सेवी बलों ने भी आतंकवादी गुटों के नियंत्रण वाले बहुत से क्षेत्रों को स्वतंत्र करा लिया है। वे इसी प्रकार सऊदी अरब का समर्थन प्राप्त जैशे इस्लाम नामक आतंकवादी गुट के सरगना ज़हरान अलूश की हत्या करने में सफल हो गये। ये सफलताएं गत पांच वर्षों में सीरिया और इराक में संकट उत्पन्न करने वाले देशों की पराजय की सूचक हैं।

सऊदी अरब की तानाशाही सरकार ने 10 महीनों तक यमन में बमबारी करने के बाद भी अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर सकी। बच्चों, महिलाओं और पुरूषों की हत्या का परिणाम केवल आले सऊद की सरकार और उसके पश्चिमी समर्थकों के अपमान के सिवा कुछ और नहीं रहा है। इस समय यूरोप के राजनीतिक एवं प्रचारिक हल्कों में यह बात कही जा रही है कि सऊदी अरब क्षेत्र में अतिवाद और आतंकवाद का प्रचारक है और अतिवाद से मुकाबले के लिए  पश्चिमी देशों को सऊदी अरब से संबंधों में पुनर्विचार करना चाहिये। यद्यपि डेमोक्रेसी का दावा करने वाली पश्चिमी सरकारें अभी सऊदी अरब को एक ख़ज़ाने के रूप में देख रही हैं और उनके लिए इस बात का कोई महत्व नहीं है कि वहां किस प्रकार की सरकार है और मानवाधिकारों का हनन हो रहा है।

विश्व में सबसे अधिक तेल सऊदी अरब के पास है और वह विश्व में सबसे अधिक तेल का निर्यात करता है। सऊदी अरब का विदेशी मुद्रा भंडार मुख्य रूप पश्चिमी विशेषकर अमेरिकी हथियारों की खरीदारी पर ख़र्च होता है। इन हथियारों का प्रयोग क्षेत्रीय राष्ट्रों के दमन के लिए होता है। इसी कारण पश्चिम में जनमत का दबाव इन सरकारों पर इस सीमा तक नहीं है कि वे सऊदी अरब के साथ अपने संबंधों में पुनरविचार करें। पश्चिमी सरकारें विभिन्न प्रकार की चालों व शैलियों से मध्यपूर्व के संबंध में अपने नीतियों से आम जनमत का ध्यान हटाने का प्रयास करती हैं। उनके लिए क्षेत्र में डेमोक्रेसी और मानवाधिकार का कोई महत्व नहीं है परंतु संचार माध्यमों और सूचनाओं के क्षेत्र में विस्तार ने आम जनमत से खिलवाड़ करने हेतु पश्चिमी सरकारों की पकड़ को सीमित कर दिया है। सऊदी अरब की तानाशाही सरकार इस विषय से बेखबर है वरना वरिष्ठ धर्मगुरू शेख निम्र को फांसी न देती जबकि आम जनमत में सऊदी अरब पर हिंसा और अतिवाद के प्रचारक होने का आरोप है।

पश्चिमी और क्षेत्र की कुछ सरकारें सऊदी अरब की नीतियों का व्यापक समर्थन कर रही हैं फिर भी क्षेत्र में उसे गम्भीर विफलताओं का सामना है। इसी कारण वह कुछ ऐसी कार्यवाहियां कर रहा है जिसे कुछ विश्लेषक एक प्रकार के राजनीतिक आत्मघात का नाम दे रहे हैं। शेख निम्र को फांसी दिये जाने को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिये। आले सऊद शेख निम्र को फांसी देकर मुसलमानों के विभिन्न संप्रदायों के मध्य फूट और मतभेद की आग भड़का कर अपने हितों को साधने की चेष्टा में है। सऊदी अरब ने देश से बाहर हितों को साधने के लिए यह कृत्य अंजाम दिया है पंरतु उसके इस कृत्य के परिणाम अंततः उसे अपनी लपेट में ले लेंगे। आले सऊद के इस कृत्य की तुलना लगभग 40 साल पहले सद्दाम के घिनौने कृत्यों से जा सकती है। सद्दाम ने भी इराक के वरिष्ठ धर्मगुरूओं को वर्षों तक जेल में रखने और विभिन्न प्रकार से उन्हें यातना देने के बाद फांसी दे दी ताकि इस प्रकार से न्याय की मांग करने वालों की आवाज़ को दबा और एक प्रकार से अपनी तानाशाही सरकार को मज़बूत कर सके। सद्दाम को उस समय विश्व की दो महाशक्तियों पूरब और पश्चिम का समर्थन प्राप्त था। इसी प्रकार ईरान की इस्लामी क्रांति के सफल होने के बाद उसे ईरान के अंदर के कुछ तत्वों का समर्थन प्राप्त था। सद्दाम ने इन्हीं समर्थनों पर भरोसा करके और कुछ देशों के उकसावे में आकर इस्लामी गणतंत्र ईरान पर व्यापक हमला कर दिया पर सद्दाम का अंत क्या हुआ, इससे सभी अवगत हैं उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं है।

सद्दाम ने जिस समय वरिष्ठ धर्मगुरूओं उनमें सर्वोपरि बाक़िरूस्सद्र को फांसी  थी विश्व में सूचनाओं के आदान- प्रदान के क्षेत्र में क्रांति नहीं आई थी। सद्दाम के बहुत से अपराधों का पता उसे फांसी दिये जाने के बाद चला परंतु इस समय हम ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसमें सरकारों के क्रिया- कलापों से आम जनमत काफी सीमा तक अवगत है। इसी कारण बहुत सी पश्चिमी सरकारें और राजनेता शेख निम्र की फांसी पर चुप नहीं रह सके परंतु यही सरकारें जब सद्दाम, इराक़ी धर्मगुरूओं को फांसी देता था तो उसकी आलोचना में एक शब्द भी नहीं बोलती थीं और विश्व समुदाय उसका समर्थन करता था।

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