“मुसलमान हूँ बच्चों के लिये डर लगता है”

टीवी शिया (भारत) मंदिरों से जब ये एलान होने लगे कि किसने अपने घर में क्या खाया था, तो जरा फिक्र होती ही है। प्रधानमंत्री जब खामोश तमाशाई बने देखते रहें तो जरा डर लगता ही है। लोग जब ये कहें कि दादरी में जो हुआ वह अफसोसजनक था तो यह पूछने का दिल करता है कि क्या वास्तव में आपको भी अफसोस हुआ?

यह सवाल भी दिल में आता ही है कि राजनेता अब भी सबक सिखाने की बात कर रहे हैं, क्या उन्हें लगाम देने की ताकत किसी में नहीं? या कोई देना नहीं चाहता?क्या कोई पैगाम पहुंचाने की कोशिश की जा रही है? मानने में झिझक जरूर होती है लेकिन डर लगता है।

अपने लिए नहीं, तो बच्चों के लिए और जब लोग यह कहते हैं कि ज्यादातर हिन्दू भी अच्छे हैं और मुसलमान भी, तो इससे कोई हौसला नहीं मिलता।

मेरा ज्यादातर से नहीं सिर्फ उन लोगों से सरोकार है जो मेरे चारों ओर रहते हैं और जिनकी निगाह मेरे फ्रिज पर हो सकती है।क्या उन्हें कोई यह पैगाम पहुंचा सकता है कि न मेरे घर में झाकें न मेरे दिल में।

न मैं इस्लामिक स्टेट को जवाबदेह हूं, न आजम खान के बयानों के लिए।न दाऊद इब्राहिम से मेरी कोई हमदर्दी है और न दाऊद को वापस लाना मेरी जिम्मेदारी।

पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलना है तो खेलें नहीं खेलनी, तो कोई मुद्दा नहीं। गुलाम अली का कॉन्सर्ट रद्द करना है, खुशी से कीजिए, राहत फतेह अली खान के कार्यक्रम में भाग लेना है, खुशी से लें। आप वह करें जिसमें आपको खुशी मिलती है, मुझे वो करने दें जिसमें मुझे सुकून मिलता है।

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