ख़वारिज के साथ इमाम अली का बर्ताव
ख़वारिज के साथ इमाम अली का बर्ताव
हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सरकार के अंतिम दिनों में उन्हें खवारिज नामक पथभ्रष्ठ अतिवादी मुसलमानों का सामना था। खवारिज यद्यपि स्वयं को मुसलमान कहते थे परंतु उनके पास समझ और अंतर्रदृष्टि नाम की कोई चीज़ नहीं थी। वे धार्मिक शिक्षाओं और पवित्र कुरआन से जो निष्कर्ष निकालते थे वह बहुत ग़लत होता था। वे स्वयं को मुसलमान और दूसरों को काफिर कहते थे। वे इस्लाम, जेहाद और न्याय के नाम पर अल्लाहो अकबर कहते हुए महिलाओं एवं बच्चों तक कि हत्या करते थे। इस गुट के अंधविश्वास की चरम सीमा यह थी कि इसने वास्तविक न्याय और सच्चाई के प्रतीक हज़रत अली अलैहिस्सलाम को नमाज़ की हालत में मस्जिद में और वह भी पवित्र महिने रमज़ान में शहीद कर दिया। आज के कार्यक्रम में हम संक्षेप में आपको खवारिज नाम के तथाकथित मुसलमानों और उनके साथ हज़रत अली अलैहिस्सलाम के व्यवहार के बारे में चर्चा करेंगे। आशा है हमारा यह प्रयास भी आपको पसंद आयेगा।
एतिहासिक पुस्तकों के अनुसार आरंभिक खवारिज बद्दू अरब थे और पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन के अंतिम वर्षों में मुसलमान हुए। यह लोग स्वयं को मुसलमान कहते थे और विदित में इस्लाम की शिक्षाओं से कटिबद्ध होने का दावा करते थे परंतु वास्तविक इस्लाम और उनमें बहुत दूरी थी और उनके अस्तित्व में लेशमात्र भी ईमान प्रविष्ठ नहीं हुआ था। पवित्र कुरआन के शब्दों में अरब बद्दू कहते हैं कि हम ईमान ले आये हे पैग़म्बर आप उनसे कह दें कि तुम ईमान नहीं लाये बल्कि यह कहो कि हम इस्लाम लाये हैं और अभी तक ईमान तुम्हारे दिलों में प्रविष्ठ नहीं हुआ है”
बनी तमीम क़बीले का हुरक़ूस बिन ज़ुहैर नाम का एक व्यक्ति था। वह देखने में बड़ा उपासक व सदाचारी लगता था। एक दिन वह मस्जिद में गया। उसने मस्जिद में मौजूद लोगों में से न तो किसी को सलाम किया और न ही किसी की कोई परवाह की और बड़े ही अह के साथ पैग़म्बरे इस्लाम और उनके अनुयाइयों के मध्य पहुंच गया। पैग़म्बरे इस्लाम ने उसकी वास्तविकता को स्पष्ट करने के लिए उसे संबोधित करते हुए कहा कि तुम हमारी सभा में यह सोचकर प्रविष्ठ हुए हो कि तुमसे बेहतर कोई नहीं है। हुरक़ूस ने बड़े दुस्साहसी अंदाज़ में कहा हां मैंने एसे ही सोचा। उसके बाद वह नमाज़ पढ़ने लगा। हुनैन नामक युद्ध में जब मुसलमानों के मध्य माले ग़नीमत बांटा जा रहा था तो इसी व्यक्ति ने पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहा था कि हे मोहम्मद न्यायपूर्ण व्यवहार करो” उसने तीन बार यह वाक्य कहा। पहली और दूसरी बार पैग़म्बरे इस्लाम ने उसके इस वाक्य को अनसुना कर दिया परंतु तीसरी बार उन्होंने उससे कहा धिक्कार हो तुझ पर अगर मैं न्याय का ध्यान नहीं रखूंगा तो कौन न्याय का ध्यान रखेगा? उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने अनुयाइयों से कहा इसका अनुसरण ऐसे लोग करेंगे जो वास्तविकता से दूरी करेंगे वे नमाज़ पढ़ने, कुरआन की तिलावत करने, रोज़ा रखने और उपासना करने में तुमसे आगे होंगे और उनकी उपासना के मुकाबले में तुम्हारी उपासना कुछ नहीं होगी।
परन्तु उपासना केवल उनकी ज़बानों से होगी और उनके दिलों में उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। परिणाम स्वरूप जिस तरह वाण धनुष से अलग होता है उसी तरह वे धर्म से अलग हो जायेंगे”
बहर हाल धर्म से ग़लत निष्कर्ष निकालने के कारण वर्ष ३८ हिजरी क़मरी में कुछ गुमराह व धर्मभ्रष्ठ लोगों का गुट बनकर तैयार हो गया जो बाद में खवारिज के नाम से प्रसिद्ध हुआ और यही गुमराह गुट हज़रत अली अलैहिस्सलाम से युद्ध करने के लिए आ गया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम से इस गुमराह गुट ने जो युद्ध किया वह इतिहास में नहरवान नाम के युद्ध से प्रसिद्ध है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने न्याय स्थापित करने और अन्याय को समाप्त करने के लिए सत्ता की बागडोर संभाली ताकि भौतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में लोगों की सफलता का मार्ग प्रशस्त हो। इस मार्ग तक पहुंचने के लिए हज़रत अली अलैहिस्सलाम के रास्ते में बहुत सारी रुकावटें थीं। इनमें से एक रुकावट मोआविया था। वह सदैव इस्लामी जगत पर शासन करने का स्वप्न देखा करता था। मोआविया ने न केवल हज़रत अली अलैहिस्सलाम के समक्ष आत्म समर्पण नहीं किया और उनकी सरकार को स्वीकार नहीं किया बल्कि विस्तृत पैमाने पर उनके विरुद्ध दुष्प्रचार भी आरंभ कर दिया और बहुत से सामान्य लोग उसके बहकावे में आ गये और माआविया ने उन्हें हज़रत अली अलैहिस्सलाम के विरुद्ध भड़काया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम भी धर्मभ्रष्ठ माआविया के विरुद्ध मौन को उचित नहीं समझते थे। इसलिए वह मोआविया का मुकाबला करने के लिए उठ खड़े हुए और परिणाम स्वरूप सिफ्फीन नाम का युद्ध हुआ जिसमें हज़रत अली अलैहिस्सलाम और मोआविया की सेनाएं आमने सामने थीं। इस युद्ध में मोआविया का काम समाप्त होने वाला था परंतु उसने एक पाखंडी और सामान्य लोगों को मूर्ख बनाने की चाल चली।
उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि कुरआन की प्रतियों को भालों पर उठायें। उसके सैनिकों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सैनिकों को संबोधित करके कहा हे मुसलमानों यह ईश्वर की किताब हमारे और तुम्हारे बीच फैसला करने वाली है। इस्लाम की सीमाओं की रक्षा के लिए इस्लामी सीमाओं की रक्षा करने वालों की हत्या न करो। हज़रत अली अलैहिस्सलाम और मालिके अश्तर तथा सईद बिन क़ैस जैसे उनके कुछ अनुयाइयों ने इसे शाम की सेना की चाल बताया और सफलता मिलने तक युद्ध जारी रखने के लिए कहा परंतु अशअस बिन क़ैस जैसे कबीलों के प्रमुखों ने, जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सेना में शामिल थे, युद्ध को तुरंत रोक दिये जाने और कुरआन के फैसले को मान लेने को स्वीकार कर लिया। क्योंकि अशअस बिन क़ैस जैसे बहुत से लोग थे जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सेना में शामिल थे परंतु वे माआविया की धूर्ततापूर्ण चालों को नहीं समझ सकते थे।
इस गुट ने यह नहीं सोचा कि मोआविया को युद्ध के आरंभ में क्यों कुरआन और मुसलमानों का खून याद नहीं आया? अफसोस कि मोआविया की मक्कारी भरी यह चाल काम आ गयी और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सेना का एक भाग मोआविया की चाल में आ गया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जब अपने सैनिकों की स्थिति देखी तो विवश होकर युद्ध को रोक देने का आदेश दिया और तय यह हुआ कि दोनों पक्षों की ओर से एक एक व्यक्ति को फैसला करने वाला या पंच बनाया जायेगा और यह लोग जो फैसला करेंगे उसे दोनों पक्ष स्वीकार करेंगे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी ओर से इब्ने अब्बास को अपना प्रतिनिधि चुना परंतु उनकी सेना में जो विदित को देखने वाले और रूढिवादी थे। उन्होंने इब्ने अब्बास को इमाम के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार नहीं किया गया और उनके स्थान पर अबू मूसा अश्अरी को स्वीकार किया गया। अबू मूसा अश्अरी वैचारिक दृष्टि से दूरदर्शी और दूरगामी सोच रखने वाला नहीं था।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम भलिभांति जानते थे कि इसके बाद क्या होने वाला है इसलिए उन्होंने भाषण दिया और कहा कि शामी लेग बहुत नीच प्रवृत्ति के हैं कि वे इधर उधर से भाग कर शाम आये हैं इसके बिना कि उनकी प्रशिक्षा हुई हो। हे लोगों इस समय तुम्हारा सामना क़ैस के बेटे अब्दुल्लाह से है जो यह कहता था “कि युद्ध बुरा है और धनुष्यों को काट दो और तलवारों को न्याम में रख लो” अगर वह सही कहता था तो उसने किसी मजबूरी के बिना युद्ध में भाग क्यों लिया और अगर वह झूठ बोलता था तो वह आरोपी है। फैसले के लिए अब्दुल्लाह बिन क़ैस को अम्रेआस के सामने करो और समय को हाथ से न जाने दो। इस्लाम की सीमा के रक्षकों को समझो। क्या तुम नहीं देख रहे हो कि दुश्मन तुम्हारे शहरों में युद्ध कर रहे हैं ताकि तुम्हें समाप्त कर दें और तुम्हारी सरकार के केन्द्र को उन्होंने लक्ष्य बनाया है ताकि तुम्हारी शक्ति को तितर- बितर कर दें?
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के भाषण का उन लोगों पर कोई असर नहीं हुआ। यहां तक कि उन लोगों को अबू मूसा अशअरी के समझौते का सामना हुआ जिसके आधार पर मोआविया को इस्लामी जगत के शासक के रूप में चुना गया था। यह सुनकर लोगों में बातें शुरू हो गयीं और आवाज़ें इतना अधिक हो गयीं कि खवारिज यह कहने लगे कि शासक केवल ईश्वर है और उन्होंने पवित्र कुरआन की आयत को अपना नारा बनाया जिसमें ईश्वर कहता है” ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह” यानी ईश्वर के अतिरिक्त किसी का शास और आदर्श नहीं है। उन लोगों ने अपनी अनभिज्ञता के कारण ग़लतियों पर ग़लतियां कीं और हज़रत अली अलैहिस्सलाम तथा उनकी सरकार का इंकार किया।
बाद में उन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से कहा कि हमने ग़लती की और अब हम तौबा करते हैं और हे अली आप ने भी हमारी तरह दोनों पक्षों के फैसले को स्वीकार किया इसलिए आपने भी ग़लती की और हमारी तरह आप भी अपनी ग़लती को लोगों के सामने स्वीकार कीजिये और ईश्वर की बारगाह में तौबा अर्थात प्रायश्चित कीजिये। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने एक भाषण दिया जिसमें उन्होंने खवारिज के दृष्टिकोणों के आधारहीन होने को बयान किया और फरमाया कि यह बात सही है यानी ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह परंतु इसका ग़लत मतलब निकाला गया है। हां कोई आदेश नहीं है मगर ईश्वर का परंतु यह लोग कह रहे हैं कि सत्ता ईश्वर से विशेष है। उसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम समाज में शांति बहाल करने और कानून व्यवस्था स्थापित करने के लिए सरकार और शासक के अस्तित्व की आवश्यकता को बयान करते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं। लोगों के लिए शासक आवश्यक है चाहे वह अच्छा हो या बुरा ताकि मोमिन उसकी सरकार में अपने सत्य के मार्ग को जारी रखे और काफिर अपने जीवन से लाभ उठाये। लोग उसकी सरकार के दौरान अपना जीवन बितायें और उसके माध्यम से बैतुल माल के लिए धन एकत्रित किया जाये, उसकी सहायता से शत्रुओं का मुकाबला किया जाये, रास्ते सुरक्षित हों और कमज़ोरों का अधिकार शक्तिशाली लोगों से लिया जाये”
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