क़ुरआन और तहरीफ़ का मुद्दा

क़ुरआन और तहरीफ़ का मुद्दा

पवित्र क़ुरआन ऐसी आसमानी किताब है जिसमें थोड़ा सा भी फेर-बदल नहीं हुआ है।

इस्लाम, एक वैश्विक एवं अमर संविधान के रूप में है जिसमें आस्था, नैतिकता, विज्ञान और विभिन्न विषयों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है। इस पवित्र पुस्तक में बताई गई बातों को व्यवहारिक बनाने में लोक परलोक का कल्याण सुनिश्चित है। इस्लाम के निमयों के प्रति कटिबद्धता, हर व्यक्ति और समाज को परिपूर्णता तक पहुंचा सकता है। इसका मूल कारण यह है कि इसकी शिक्षाएं मानव प्रवृत्ति के अनुरूप हैं।  इसमें मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखा गया है। ईश्वर ने सभी बातों को क़ुरआन में बहुत ही आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया है।

यह पवित्र पुस्तक शताब्दियों से बिना किसी फेरबदल के लोगों के हाथों में मौजूद है। समस्त मुसलमान इस बात पर एकमत हैं कि वह क़ुरआन जो इस समय हमारे पास हैं वह निश्चित रूप में वही है जो पैग़म्बरे इस्लाम पर जिबरईल के माध्यम से उतरा था। इस क़ुरआन में न तो एक अक्षर बढाया गया है और न ही घटाया गया है। ईश्वरीय दूत के रूप में पैग़म्बरे इस्लाम ही ने पवित्र क़ुरआन को हमतक पहुंचाया। वे अपने अनुयाइयों को सदैव ही इसे हिफ़्ज़ करने या कंठस्त याद करने के लिए प्रेरित करते रहते थे। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास से पहले ही क़ुरआन के हाफ़िज़ों की संख्या बहुत अधिक हो चुकी थी। चौथी हिजरी क़मरी में होने वाले बेअरे मऊना नामक युद्ध में लगभग 70 हाफ़िज़, शहीद हो गए थे। यह स्थान मदीने के निकट स्थित था। इस घटना से ज्ञात होता है कि उस काल में हाफ़िज़ों की संख्या कितनी अधिक थी। पवित्र क़ुरआन में जीवन व्यतीत करने के नियमों के माध्यम से मनुष्य लोक-परलोक में एक सफल जीवन व्यतीत कर सकता है।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) पवित्र क़ुरआन की आयतों को लोगों को सुनाया करते थे। जब भी उनपर कोई आयत उतरती तो वे उसे मुसलमानों को सुनाते थे। उसके बाद वे आयत लिखने वालों को बुलाते थे कि वे उसको लिखें। किस आयत को किस स्थान पर रखा जाए यह पैग़म्बरे इस्लाम ही निर्धारित किया करते थे। छठी हिजरी क़मरी के पवित्र कुरआन के प्रसिद्ध व्याख्याकार ज़मख़शरी, कश्शशाफ़ नामक तफ़सीर के सूरे तौबा की व्याख्या के आरंभ में लिखते हैं कि यदि यह पूछा जाए कि सूरए तौबा का आरंभ पवित्र क़ुरआन के अन्य सूरों की भांति बिस्मिल्लाह से क्यों नहीं हुआ है तो इसके बारे में कहा जाएगा कि पैग़म्बरे इस्लाम की शैली यह था कि जब भी कोई आयत उनपर उतरती थी तो वे क़ुरआन की आयतें लिखने वालों से कहते थे कि इस आयत को अमुक स्थान पर लिखो। उन्होंने ही हमसे यह कहा था कि इस सूरे के आरंभ में बिस्मिल्लाह न लिखी जाए।

पवित्र क़ुरआन में फेरबदल न होने पर आधारित महापुरूषों के बहुत से वक्तव्य मौजूद हैं। इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि पवित्र क़ुरआन ईश्वर के कथनों का संग्रह है जिसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। एक अन्य कथन में वे कहते हैं कि पवित्र क़ुरआन आरंभ से लेकर अंत तक सच्चाई है।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) के स्वर्गवास के बाद उनके साथियों ने इस पवित्र आसमानी पुस्तक को सुरक्षित रखने के लिए इसके लिखने में बहुत ही सावधानी से काम लिया। वे लोग अरबी भाषा के अलग-अलग लहजों के बावजूद इस बात का प्रयास किया करते थे कि वे पवित्र कुरआन को इस प्रकार से पढ़ें जिस प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम पढ़ा करते थे। यही कारण था कि वे बहुत ही ध्यानपूर्वक एवं स्पष्ट उच्चारण से क़ुरआन का पाठ करते थे। इन सब बातों से ज्ञात होता है कि पवित्र क़ुरआन को सुरक्षित रखने के लिए आरंभ से ही कितना अधिक प्रयास किया गया है।

पवित्र क़ुरआन ने अपनी सत्यता को परोक्ष और अपरोक्ष रूप में सिद्ध किया है। ईश्वर ने क़ुरआन में परोक्ष और अपरोक्ष ढंग से तहद्दी की है। तहद्दी, पवित्र क़ुरआन की एक ऐतिहासिक वास्तविकता है। तहद्दी के अन्तर्गत ईश्वर, पवित्र क़ुरआन के विरोधियों को चैलेंज करते हुए कहता है कि वे इस जैसी कोई चीज़ ले आएं। सूरए हूद की आयत संख्या 13 में ईश्वर उनसे कहता है कि वे क़ुरआन जैसे 10 सूरे ले आएं। सूरए यूनुस की 38वीं आयत में वह कहता है कि चलो एक सूरा ही क़ुरआन जैसा ले आओ। बाद में फिर सूरए तूर की आयत संख्या 33 और 34 में कहता है कि यदि वे सच्चे हैं तो इस जैसा कथन ले आएं। हालांकि उस काल के अरबों को अरबी भाषा पर पूरा अधिकार था और वे इस भाषा में बहुत दक्ष थे किंतु क़ुरआन के उत्तर में वे कुछ भी नहीं कर सके। बाद में उन्होंने स्वयं ही यह स्वीकार किया कि पवित्र क़ुरआन जैसी किताब को उत्तर लाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है क्योंकि उसमें पाया जाने वाला शब्दालंकार और उसकी वाकपटुता का कोई जवाब नहीं है।

पवित्र क़ुरआन के महत्व का आभास इस घटना से भी लगाया जा सकता है कि एक बार पैग़म्बरे इस्लाम, पवित्र काबा का तवाफ़ करने के बाद क़ुरआन पढ़ रहे थे। इसी दौरान उनके पास से वलीद बिन मुग़ैरा गुज़रा जो अपने काल में अरबी व्याकरण में निपुर्ण था और अरबी साहित्य की दृष्टि से उसे विशेष स्थान प्राप्त था। जब वह वहां से गुज़र रहा था तो क़ुरआन के आकर्षण के कारण कुछ समय के लिए क़ुरआन सुनने के लिए रुका किंतु अपनी हठधर्मी के कारण वह वहां पर रुका नहीं और आगे बढ़ गया। यह वलीद बिन मुग़ैरा अपने साथियों के पास पहुंचा तो उसने उनसे कहा कि क़ुरआन में विशेष प्रकार का आकर्षण पाया जाता है और उसमें विचित्र प्रकार की मिठास है। यह ऐसा कथन है जो समस्त कथनों से ऊपर है और संसार का कोई भी कथन उसके बराबर नहीं है।

पवित्र क़ुरआन के भीतर हेरफेर न होने के बारे में सबसे बड़ा प्रमाण ईश्वर का वह कथन है जिसमें वह कहता है कि निःसन्देह, हमने ही इस क़ुरआन को भेजा है और निश्चित रूप से हम ही उसके रक्षक हैं। सूरए हुर्ज की आयत संख्या 9 में ईश्वर पवित्र क़ुरआन की सुरक्षा की गारेंटी लेता है। इससे तात्पर्य यह है कि ईश्वर यह नहीं चाहता है कि क़ुरआन में न तो कुछ घटाया जा सकता है और न ही बढाया जा सकता है। हालांकि वर्तमान समय में मुसलमानों के कई पंथ और गुट पाए जाते हैं किंतु इसके बावजूद पवित्र क़ुरआन में मतभेद के विरोधी हैं। इस्लाम के सभी पंथों का यह कहना है कि वह क़ुरआन जो पैग़म्बरे इस्लाम पर उतरा था उसमें किसी भी प्रकार का दिशाभेद नहीं हुआ है। इस बारे में मुसलमानों के बड़े-बड़े धर्मगुरूओं ने इस बारे में तर्क के साथ पुस्तकें लिखी हैं कि पवित्र क़ुरआन में कभी भी कोई फेरबदल नहीं हुआ है। इस्लाम धर्म के समस्त धर्मगुरू चाहे उनका संबन्ध सुन्नी समुदाय से हो या शिया समुदाय से सबके सब इस बात पर एकमत हैं कि क़ुरआने करीम में कोई तहरीफ़ नही हुई है।

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