फूंकों से यह चिराग़ बुझाया न जाएगा

फूंकों से यह चिराग़ बुझाया न जाएगा

अनुवादकः सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

इतिहास बताता है कि इस्लामों फ़ोबिया शब्द लगभग तीस साल पुराना है, और 1980 से पहले यह शब्द इन्सानी संस्कृति और समाजिक जीवन में नहीं पाया जाता था। इस्लामो फ़ोबिया एक ऐसा शब्द है जो इस्लाम और मुसलमानों के संबंध में पूर्वाग्रह डर और भेदभाव को बयान करता है।

इग्लैंड का राइमंड ट्रस्ट (Ranymd Trust) जो इस देश में भेदभाव और नफ़रत के बारे में रिसर्च करता है ने 1997 में इस्लामो फ़ोबिया और इस्लाम से नफ़रत और इस आधार पर सारे मुसलमानो से डर और नफ़रत की व्याख्या की और इस शब्द को अस्तित्व दिया, और बताया कि यह शब्द मुसलमानों के साथ मतभेद और आर्थिक एवं समाजिक जीवन और देश के सार्वजनिक कार्यों में मुसलमानो के बाइकाट को भी बताता है। 9/11 के बाद से इस्लामो फ़ोबिया न केवल अमरीका बल्कि पूरे संसार में एक भूत की भाति प्रकट हुआ, और पश्चिम द्वारा इस्लामो फ़ोबिया को बढ़ावा देने के लिये विश्वव्यापी स्तर पर कार्य किया जा रहा है और दुनिया में इस्लामो फ़ोबिया, अरब फ़ोबिय, ईरान फ़ोबिया और पैग़म्बर फ़ोबिया को फैलाया जा रहा है।

शैतानी आयतें

सितम्बर 1988 में सलमान रुश्दी ने शैतानी आयतें (The Satanic Verses) नामक किताब लिखी जिसमें एक उपन्यास के रूप में पैग़म्बरे इस्लाम उनके परिजनों और सहाबियों पर भद्दे क़िस्म के आरोप लगाये गये और उनका अपमान किया गया, और इस्लाम एवं क़ुरआन के लिये भद्दे शब्दों का प्रयोग किया गया। यह पुस्तक लंदन में पेंगोइन सोसाईयी से संबंधित वीकिंग प्रकाशन से प्रकाशित हुई।

सलमान रुश्दी की यह पुस्तक हिन्दुस्तानी मुसलमानों के विरोध के कारण हिन्दुस्तान में न छप सकी, दिसम्बर और जनवरी में इंग्लैंड के रहने वाले मुसलमानों ने इस पुस्तक के प्रकाशन के विरोध में पहले ब्रैडफोर्ड (Bradford) और फिर लंदन में प्रदर्शन किया, और यह विरोध प्रदर्शन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को लोगों तक भी पहुँच गया यहां तक कि 11 फ़रवरी को हज़ारों पाकिस्तानी मुसलमान इस्लामाबाद में अमरीकी दूतावास के बाहर प्रदर्शन करने के लिये एकत्र हुए, इस प्रदर्शन में 6 प्रदर्शनकारी मारे गए और दसियों घायल हुए, और इसके दूसरे ही दिन हिन्दुस्तान में होने वाले प्रदर्शन में भी एक व्यक्ति की मौत हुई।

 

सहयूनी लॉबी के लुभावने प्रचार के साथ अपमान जनक पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही दुनिया के कोने कोने से मुसलमानों के विरोध स्वर उठने लगे, एक तरफ़ तो प्रकाशन कम्पनी को धमकियां दी गईं और दूसरी तरफ़ इस पुस्तक के प्रकाशन की सीमित करने और सलमान रुश्दी की निंदा की गई और इस पुस्तक पर आलोचनात्मक टिप्पणियां भी लिखी गईं, लेकिन इस फ़ितने की रूपरेखा बनाने वालों और समर्थकों ने न केवल यह कि इन चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि प्रचार प्रसार और तेज़ कर दिया यहां तक कि इस पुस्तक को यूरोप में महत्वपूर्ण साहित्यिक पुरस्कार दिये जाने की भूमिका भी तैयार की गई।

पश्चिमी दुनिया द्वारा सलीबी जंगों की भाति एक युद्ध की भूमिका तैयार करने और मुसलमानों की बौद्धिक और सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने की साजिश के स्पष्ट होते ही, 13 फ़रवरी 1989, को अपना ऐतिहासिक फ़तवा दिया जिसमें इस पुस्तक के लेखक को मुरतद एलान किया।

इमाम ख़ुमैनी के इस फ़तवे का इस्लामी दुनिया बहुत जोश के साथ स्वागत किया गया और इसने सारे मुसलमानों को अपने सम्मान और धार्मिक पहचान को बचाए रखने के लिये एक कर दिया। दुनिया के अलग अलग क्षेत्रों में मुसलमानों के विभिन्न गुट उठ खड़े हुए और साम्राजी शक्तियों की इस साज़िश के विरुद्ध अपनी नफ़रत और नाराज़गी का प्रदर्शन करते हुए रुश्दी के विरुद्ध मुक़द्दमा चलाए जाने की मांग की, और इस किताब के वापस लिये जाने और प्रकाशन का विरोध किया।

पश्चिमी दुनिया ने अमरीका और इंग्लैंड का अनुसरण करते हुए पहले मुसलमानों के विरुद्ध राजनीतिक और प्रचारिक प्रोपगंडे किये लेकिन अपने कार्यों के बढ़ते हुए ख़र्च और इस्लामी दुनिया में अपने हितों को ख़तरे में देखते हुए, विवश होकर धीरे धीरे पीछे हट गये यहां तक कि शैतानी आयतों का प्रोजेक्ट एक भूली बिसरी याद में बदल गया।

कार्टून

बास उस समय से आरम्भ होती है कि जब डेनमार्क के समाचार पत्र यूलेंड पोस्टन (Pvstn Jutland, Denmark) के संपादक ने चालीस कार्टूनिस्टों से कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कार्टून बनाएं, यूरोप में अभिवक्ति की आज़ादी के बहाने इस समाचार पत्र ने अपने पहले संकरण में बाहर कार्टूनों को प्रकाशित किया।

बारह इस्लामी देशों को विदेश मंत्रियों ने इस अपमान का उत्तर देने के लिये, डेनमार्क सरकार से इसके विरुद्ध कार्यवाही करने की मांग की और सरकार की तरफ़ से इसकी तरफ़ ध्यान न दिये जाने के कारण विरोध स्वरूप अपने दूतावास इस देश में बंद कर दिये। डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने इस घृणित कार्य के औचित्य को दर्शाते हुए कहा थाः “सरकार, चैनलों और समाचार पत्रों पर कंट्रोल नहीं करती है क्योंकि एसी अवस्था में अभिवक्ति की आज़ादी प्रभावित होगी”

लेकिन डेनमार्क में मुसलमान धर्मगुरू चुप नहीं रहे और उन्होंने सरकार से माफ़ी मांगने की बात कही, बहुत से इस्लामी देशों में डेनमार्क की चीज़ों का बाइकॉट कर दिया गया, उसी समय 17 इस्लामी देशों को विदेश मंत्रालयों ने अपमान करने वालों को सज़ा दिये जाने और दोबारा इन कार्टूनों के न छापे जाने बार रखी, अरब लीग और इस्लामी सहयोग संगठन (Organisation of Islamic Cooperation) ने संयुक्त राष्ट्र से मांग की के इस प्रक्रण में डेनमार्क की सरकार पर दबाव डाले। पूरी दुनिया में इन अपमान जनक कार्टूनों के विरोध में प्रदर्शन किये गये।

यूलेंड पोस्ट ने पूरी दुनिया में विरोध और क्रोध को देखते हुए अपनी वेबसाइट पर दो पत्र जारी किया, दूसरा पत्र जो कि 30 जनवरी 2006 में जारी हुआ उसमें लिखाः “यह कार्टून अपमान करने के लिये नहीं बनाए गये थे और डेनमार्क के क़ानून के विरुद्ध भी नहीं थे, लेकिन इन कार्टून के प्रकाशन ने बहुत से मुसलमानों को क्रोधित कर दिया है और इसलिये हम क्षमा मांगते हैं।”

लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो गई कुछ सालों के बाद डेनमार्क से नहीं ख़बर आई जलांदज़ बोस्टन (Jylandz Boston) समाचार पत्र के लेखन बोर्ड के सदस्य और सांस्कृतिक पृष्ठों के लेखक “फ़्लेमिंग रोज़” जिसने 2005 में पैग़म्बरे इस्लाम के अपमान जनक कार्टून प्रकाशित किये थे

अखबारों की सांस्कृतिक पृष्ठों के लिए बोर्ड के सदस्य और योगदानकर्ता मुसलमानों की भावनाओं के विरुद्ध यह तै किया कि इन कार्टूनों को एक किताब की सूरत में प्रकाशित किया जाए।

इसी प्रकार 2012 में फ़्रांस की पत्रिका चार्ली हेब्दो (Charlie Hebdo) ने अपने स्पेशल एडीशन “मोहम्मद का जीवन” में विभिन्न प्रकार के कार्टून जारी कर के एक बार भिर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का अपमान किया। यह स्पेशल एडीशन जो 63 पेज पर आधारित है में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जीवन के विभिन्न प्रकार के कार्टूनों के माध्यम से दिखाया गया है। अगरचे इस स्पेशल एडीशन में भद्दे शब्दों और वाक्यों का प्रयोग नहीं किया गया है, लेकिन तस्वीरें और कार्टून अपमान की कहानी कहते हैं। अगरचे फ़्रांस के मुसलमानों के इसपर कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई लेकिन इस देश की इस्लामी अंजुमनों ने एलान किया यह कार्य फ़्रांस की राजनीतिक संस्कृति से संबंधित है जो सारे धर्मों के सम्मान का दिखावा दो करता है लेकिन व्यवहार में दूसरी चीज़ होती है।

इसी प्रकार 2013 में स्वीडन के कार्टूनिस्ट लार्स विल्क्स (Lars Wilks) जिसने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अपमानजनक कार्टून प्रकाशित किये थे ने एलान किया कि वह स्वीडन के शहर माल्मो (Malmo) में एक प्रदर्शनी रखेगा जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम (स) की नई तस्वीरें जारी की जाएंगी। इसी प्रकार उन्होंने कहाः “महत्वपूर्ण यह है कि आगे कार्य करूँ क्योंकि अगर धमकियों के मुक़ाबले में पीछे हट जाओगे तो डेमोक्रेसी से पीछे हट गये हो”

अगरचे उसके बाद डेनमार्क के कार्टूनिस्ट के घर के पास उसके जले हुए शरीर के पाये जाने की अफ़वाह उड़ी लेकिन इन अफ़वाहों का कभी सत्यापन नहीं हो सका।

पैग़म्बर फ़ोबिया और हॉलीवुड

1980 के दशक के आरम्भ से ही दुनिया के पैग़म्बर फ़ोबिया का प्रोजेक्ट आरम्भ हुआ, आरम्भ से ही दुनिया की बड़ी फ़िल्म इन्डस्ट्रियां जैसे हॉलीवुड ने यहूदी पूंजीवादी दिग्गजों की वित्तीय सहायता से इस्लाम के दयालु छवि को धूमिल करने का कार्य आरम्भ किया। फ़िल्म इन्डस्ट्री में इस्लामो फ़ोबिया से संबंधित जो कार्य किये जाते हैं उनको दो भागों अरब फ़ोबिया और पैग़म्बर फ़ोबिया में बांटा जा सकता है, अधिकतर कार्य पहले भाग के लिये किये गये हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि मध्य पूर्व में पश्चिम विशेषकर अमरीका की लोकप्रियता को जारी रखने और अमरीका के लिये पैदा होने वाली नफ़रत को रोकने के लिये इन फ़िल्म इन्डस्ट्रियों ने सीधें पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर कम धावा बोला है बल्कि अधिकतर प्रयत्न किया है कि मोहम्मद के धर्म के अनुयायियों को कट्टरपंथी भयानक ख़ूंख़ार दिखाया जाये।

इन सबके बावजूद अब भी इतिहास ने यहूदी पैसे के बल पर कुछ शत्रुओं की तरफ़ से बनाई जाने वाली अपमानजनक फ़िल्मों और डाक्यूमेंट्री को भुलाया नहीं है, इन्हीं में से एक फ़िल्म जो डाक्यूमेंट्री के रूप में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के विरुद्ध बनाई गई और जिसने बहुत से दर्शकों को अपनी तरफ़ खींचा वह डच अभिनेता आर्नोड फ़ान्डोर (Arnaud Fandvr) की फ़िल्म “फ़ितना” थी। इस फ़िल्म में तकफ़ीरियों की बर्बरता और कट्टरपंथी मुसलमानों के वहशीपन को दिखाया गया है और उनके इन कार्यों के तर्क के तौर पर क़ुरआन की बराअत की आयतों और अज़ाब की आयतों को दर्शाया गया है, यह फ़िल्म देखने वालों को यह बताना चाहती है कि कट्टपंथी मुसलमानों के यह बर्बर कार्य उनके धर्म की शिक्षा के अनुसार हैं। जैसे की सोचा जा रहा था इस फ़िल्म की रिलीज़ के साथ ही पूरी इस्लामी दुनिया और मुसलमानों के बीच गम और क्रोध की लहर दौड़ गई। लेकिन आर्नोड फ़ान्डोर की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती है, इस डाक्यूमेंट्री फ़िल्म की रिलीज़ के कुछ सप्ताह के बाद ही दुनिया की मीडिया ने इस इस्लाम विरोधी इस अभिनेता के मुसलमान होने की ख़बर दी, और नीदरलैंड की मीडिया और स्रोतो ने इसको सही बताया, वह मुसलमान होने के तुरन्त बाद मदीने गये और मस्जिदुन्नबी की ज़ियारत की, ओकाज़ समाचार पत्र के अनुसार यह डच अभिनेता पैग़म्बर की क़ब्र की ज़ियारत के समय लगाता रो रहा था।

ओकाज़ समाचार पत्र इस अभिनेता की तरफ़ से लिखता हैः “इस्लाम विरोधी फ़िल्म में अभिनय करने और दुनिया के मुसलमानों के विरोध के बाद मैने तै किया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में अध्ययन करूँ और कुछ समय के बाद मुझे समझ में आया कि नीदरलैंड की इस्लाम विरोधी दाहिनी पार्टी ने इस देश के जवानों को धोखा दिया है और उनके कोई भी इस्लाम विरोधी विश्वास वास्तविक्ता नहीं रखते हैं।” वह मुसलमान होने के बाद नीदरलैंड की पार्लिमेंट पार्टी जो नीदरलैंड में इस्लाम की सबसे कट्टर विरोधी पार्टी है से अलग हो गये। यह पार्टी इस्लाम के विरुद्ध फ़िल्म और अपमानजनक चीज़ें तैयार करने में समिलित होने के तौर पर पहचानी जाती है।

पूरी दुनिया ने इस्लाम के विरुद्ध जो कुछ करना था कर लिया और जो कुछ हो सकता है वह अब भी कर रहे हैं लेकिन हर उगते सूरज ने इस्लाम की गरिमा को बढ़ाया ही है, क्योंकि न तो कोई आसमान पर थूक सकता है और न ही इस्लाम का यह चिराग़ फूंकों से बुझाया जा सकता है।

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