इमाम हसन (अ) के कथन भाग 2

Islam1514. کلمات حکیمانه، عارفانه و اخلاقی امام حسن مجتبی علیه السلام: قسمت دوم

इमाम हसन (अ) के कथन भाग 2

अनुवादकः सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

11. قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام لِرَسُولِ الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم) یا اَبَةَ مَاجَزاءُ مَن زارُکُ؟

فَقالَ: مَن زارَنی اَو زارَ اَباکَ اَو زارَکَ اَو زارَ اَخاکَ کانَ حَقّاً عَلَیَّ اَن اَزورَهُ یَومَ القِیمةِ حَتّی اَخلِّصَهُ مِن ذُنُوبِهِ.

इमाम हसन (अ) ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से फ़रमायाः नाना जान जो आपकी ज़ियारत करें उसका सवाब क्या है?

फ़रमायाः जो भी मेरी या तुम्हारे पिता (अली) या तुम्हारी या तुम्हारे भाई (हुसैन) की ज़ियारत करें वह मुझ पर हक़ रखता है कि मैं उसकी क़यामत के दिन ज़ियारत करूँ ताकि उसके उसके गुनाहों से आज़ाद कराऊँ।

(अमाली शेख़ सदूक़, मजलिसे 14 हदीस 4)

12. قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام:

فِی المائِدَةُ اِثنَتَا عَشرَةَ خَصلَةً یَجِبُ عَلی کُلِّ مَسلِمٍ اَن یَعرِفَها، اَربَعٌ مُنها فَرضٌ، وَ ارَبَعٌ مِنها سُنَّةٌ، وَ اَربَعٌ مِنها تَأدیبٌ، فَاَمّا الفَرضُ: فَالمَعرِفَةُ، وَ الرِّضا، اوَ التَّسمِیةُ، وَ الشُکرُ، وَ اَمَّا السُنَّةُ: فَالوُضُوءُ قَبلَ الطَّعامِ، وَ الجُلوُسُ عَلی الجانِبِ الاَیسَرِ، وَ الاَ کلُ بِثلاثُ اَصابِعَ، وَ لَعقُ الاَصابِعِ وَ اَمَّا التَّأدیبُ فَالاَکلُ مِمّا یَلیکَ، وَ تَصغیرُ اللُّقمَةِ، وَ المَضغُ الشَّدیدِ وَ قِلَّةُ النَّظَرُ فی وُجُوهِ النّاسُ.

इमाम हसन (अ) ने फ़रमायाः

ख़ाना खाने और दस्तरख़ान में 12 विशेषताएं है, हर मुसलमान पर वाजिब हैं कि उनको पहचानें, उसकी चार विशेषताएं वाजिब और चार मुस्तहेब और दूसरी चार अदब हैं।

वाजिबः

(नेमत देने वाले) की पहचान,

और अल्लाह की नेमत पर राज़ी रहना,

और अल्लाह के नाम से आरम्भ करना,

और ईश्वर का शुक्र और प्रशंसा करना,

मुस्तहेबः

खाने से पहले हाथ धोना,

और बाएं पैर की तरफ़ बैठना

और तीन उंगलियों से खाना खाना

और उंगलियों को चाटना।

खाना खाने का अदब (आदर्श)

अपने सामने से खाना खाना

और छोटे निवाले खाना

और निवालों को अच्छे से चबाना

और दूसरो की तरफ़ कम देखना

(रौज़तुव वाएज़ीन जिल्द 2 पेज 311)

13. قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام:

اَنَّهُ جاءَهُ رَجُلٌ وَ قالَ اَنَا رَجُلٌ عاصٍ وَ لا صَبرَ لی عَن (عَلَی) المَعصِیَةِ فَعِظنی بِمَوعِظَةٍ

فَقالَ (ع). اِفعَل خَمسَةَ اَشیاءَ وَ اذنِب ماشِئتَ، لاتَأکُل رِزقَ اللهِ وَ اذنِب ما شِئتَ وَ اطلُب مَوضِعاً لایَراکَ اللهُ وَ اذنِب ما شِئتَ، وَ اخرُج مِن وِلایَةِ اللهِ وَ اذنِب ما شِئتَ، وَ اِذاجاءَکَ مَلَکُ الموتِ لِیَقبِضَ روُحَکَ فَادفَعهُ عَن نَفسِکَ وَ اذنِب ما شِئتَ، وَ اِذا اَدخَلَکَ مالِکٌ النّارَ فَلا تَدخُل فِی النّارُ وَاذنِب ماشَئتَ.

एक आदमी इमाम हसन (अ) की ख़िदमत में आया और कहने लगाः मैं पापी हूँ और मुझे पापों से दूर रहने पर कंट्रोल नहीं है (मैं गुनाह छोड़ने की शक्ति नहीं रखता हूँ आप मुझे नसीहत करें ताकि मैं गुनाह छोड़ सकूँ)

तो आपने फ़रमायाः

पाँच कार्य करों उसके बाद जो चाहे गुनाह करोः

1.    ईश्वर की दी हुई रोज़ी को न खाओ उसके बाद जो चाहों पाप करो।

2.    (पाप के समय) एसा स्थान चुनो जहां ईश्वर तुमको न देख सके उसके बाद जो चाहों पाप करो।

3.    ईश्वर की शक्ति और संसार से बाहर चले जाओ उसके बाद जो चाहो पाप करो।

4.    जब यमदूत तुम्हारी आत्मा को ले जाने के लिये आए (न मरने के लिये) उसको अपने से दूर कर दो फिर जो चाहो पाप करो।

5.    जब मालिक (नर्क का दरबान) तुमको नर्क में डाले तो (अगर शक्ति रखते हो तो) नर्क में न जाओ उसके बाद जो चाहो पाप करो

(इसना अशरिया, पेज 112)

14. قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام:

عَنِ المُجتَبی (علیه السلام) اَنَّهُ قالَ لااَدَبَ لِمَن لا عَقلَ لَهُ، وَ لا مُرُوَّةَ لِمَن لا هِمَّةَ لَه، وَ لاحَیاءَ لِمَن لا دینَ لَهُ وَ راسُ العَقلِ مُعاشَرَةُ النّاسُ بِالجَمیلُ، وَ بِالعَقلِ تُدرَکُ الدّارانِ جَمیعاً وَ مَن حَرُم مِنَ العَقلِ حَرُمَهُما جَمعیاً.

इमाम हसन (अ) से रिवायत है कि आपने फ़रमायाः

जिसके पास अक़्ल नहीं है उसके पास अदब नहीं है,

और जिसके पास हिम्मत नहीं है उसके पास मुरव्वत (शिष्टता) नहीं है

और जिसके पास दीन नहीं है उसके पास शर्म और लज्जा नहीं है,

और सबसे पहली अक़्ल लोगों के साथ अच्छे से रहना है

और अक़्ल से ही दुनिया और आख़ेरत मिलती है,

और जो अक़्ल से वंचित हो गया वह दुनिया और आख़ेरत से वंचित है।

(कश्फ़ुल ग़ुम्मा, जिल्द 1, पेज 571)

15. عن الحسن بن علیّ علیهما السلام أنّه دعا بنیه و بنی أخیه فقال:

أنّکم صِغارُ قومٍ و یُوشکَ أن تکُونوا کبارَ قومٍ آخرین فتعلّموا العلمَ فمن (لم) یستطع منکم اَن یحفظهُ ‏فلیکتبه و لیضعه فی بیته.

इमाम हसन (अ) से रिवायत है कि आपने अपने बेटों और भाईयों को अपने पास बुलाया और उनसे फ़रमायाः

तुम क़ौम के छोटे हो और आशा है कि एक दिन क़ौम के सम्मानीय बनोगे, ज्ञान प्राप्त करो और जो उसको याद रखने की शक्ति न रखता हो उसको लिखे और उपने पास रखे।

16. دعوات راوندی: قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام:

عَجَبٌ لِمَنْ یَتَفَکَّرُ فِی مَأْکُولِهِ کَیْفَ لَا یَتَفَکَّرُ فِی مَعْقُولِهِ فَیُجَنِّبُ بَطْنَهُ مَا یُؤْذِیهِ وَ یُودِعُ صَدْرَهُ مَا یُرْدِیه».

इमाम हसन (अ) ने फ़रमायाः

आश्चर्य है उस व्यक्ति पर जो अपने खाने पीने के बारे में सोंचता है, लेकिन कैसे अपनी मानवी चीज़ों के बारे में नहीं सोंचता है, जो चीज़ उसके पेट को तकलीफ़ पहुंचाती है दूर रखता है लेकिन अपसे सीने को बातिल ज्ञान से भरता है।

(बिहारुल अनवार जिल्द 1, पेज 218)

संक्षिप्त विवरण

इस्लाम सारे मुसलमानों को यह सीख देता है कि जिस प्रकार तुम अपने शरीर का ध्यान रखते हो ताकि बीमार न हो उसी प्रकार आपनी आत्मा का भी ध्यान रखो, और कहता है कि अगर तुम्हारी आत्मा पापों के कारण बीमार हो जाए तो तुरन्त तौबा के ज़रिये उसका उपचार करो, और चूंकि प्रकार शरीर में अधिकतर बीमारियां ख़ाने पीने से होती हैं तो शरीर का डाक्टर कहता है कि यह खाओ, यह न खाओ, यह चीज़ इस बीमारी का कारण है, यह खाओगे तो शरीर शक्तिशाली होगा, ध्यान रखो कि कही बीमार न हो जाओ... आदि,

इस्लाम भी यही कहता है, इस्लाम कहता है कि जो चीज़ें तुम्हारे ज़हन में आती हैं वह तुम्हारी आत्मा का खाना है, जो कुछ भी तुम्हारे ज़हन में आता है वह तुम्हारी आत्मा में अपना स्थान बनाता है, इसलिये ध्यान रखो कि क्या तुम्हारे ज़हन में जा रहा है, ध्यान रखों की कही उसके साथ बीमारी भी तुम्हारी आत्मा में न जा रही हो।

इस्लाम ने आत्मा को बीमारी से रोकने का रास्ता भी बताया है और यह भी बताया है कि अगर ईश्वर न करे तुम्हारी आत्मा बीमार हो जाए तो उसका उपचार क्या है।

 17. قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام:

فَضْلُ كَافِلِ يَتِيمِ آلِ مُحَمَّدٍ الْمُنْقَطِعِ عَنْ مَوَالِيهِ النَّاشِبِ فِي تیه الْجَهْلِ يُخْرِجُهُ مِنْ جَهْلِهِ وَ يُوضِحُ لَهُ مَا اشْتَبَهَ عَلَيْهِ، و يُطْعِمُهُ وَ يَسْقِيهِ كَفَضْلِ الشَّمْسِ عَلَى السُّهَا.

इमाम हसन (अ) ने फ़रमायाः

उस व्यक्ति की फ़ज़ीलत जो आले मोहम्मद के किसी यतीम को –जो अपने अभिभावकों से दूर हो गया है और अज्ञानता में भटक रहा है- को आसरा दे और उसको अज्ञानता के अंधेरे से बाहर निकाले और उसकी शंकाओं का निवारण करे और उसको खाना पानी दे, सूर्य की फ़ज़ीलत सोहा (सबसे कम रौशनी देने वाला सितारा) की तरह है।

(बिहारुल अनवार जिल्द 2, पेज 3)

18. قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام:

من بدء بالکلام قبل السلام فلا تجیبوه.

इमाम हसन (अ) ने फ़रमायाः

जो भी सलाम से पहले बात आरम्भ करे उसका उत्तर न दो

(कश्फ़ुल ग़ुम्मा, जिल्द 1, पेज 575)

19. کانَ الحسن بن علیّ علیهماالسلام اذا قامَ الیَ الصلوةِ، لَبِسَ اَجْوَدَ ثِیابَهُ، فقیل له یابن رسول الله لم تلبس أجود ثیابک؟

فقال: ان اللَّه جمیل یحب الجمال، فاتجمل لربی و هو یقول: خُذُوا زِینَتَکُمْ عِنْدَ کُلِّ مَسْجِدٍ. فأحبّ أن ألبس أجود ثیابی.

इमाम हसन (अ) नमाज़ के समय बेहतरीन कपड़ा पहनते थे, तो आपसे प्रश्न किया गया कि आप बेहतरीन कपड़ा क्यों पहनते हैं?

आपने फ़रमायाः ईश्वर सुंदर है और सुंदरता को पसंद करता है और इसी कारण मै अपने परवरदिगार से मिलने के लिये बेहतरीन कपड़ा पहनता हूँ, और उसने आदेश दिया है कि मस्जिद जाते समय शोभा धारण करो।

(बुरहान, जिल्द 2, पेज 10)

 20. قال الامام الحسن بن علیّ علیهما السلام:

علّم الناس، و تعلم علم غیرک، فتکون قد اتقنت علمک، و علمت ما لم تعلم.

इमाम हसन (अ) ने फ़रमायाः

अपने ज्ञान को लोगों को सिखाओ, और दूसरों के ज्ञान से लाभ उठाओ, यह तुम्हारे ज्ञान को गहराई देता है और जिस चीज़ को नहीं जानते हो वह जान जाओगे।

(बिहारुल अनवार, जिल्द 78, पेज 111)

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