पैग़म्बरे इस्लाम के मार्गदर्शक कथन भाग 3
पैग़म्बरे इस्लाम के मार्गदर्शक कथन भाग 3
अनुवादकः सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी
21. قال رسول الله صلى الله عليه و آله و سلّم لجبرئیلَ:
عِظنی، فَقالَ يا مُحَمَّدُ عِش ما شِئتَ فَإنّكَ مَيِّتٌ وَ أحبِب ما شِئتَ فَإنّكَ مُفارَقَهُ وَ اعمَل ما شِئتَ فَإنّكَ مُلاقیهِ. شَرَفَ المُؤمِنِ صلاتُهُ بِاللَّيلِ وَ عِزَّهُ کَفُّهُ عَن أعراضِ النّاسِ؛
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जिब्रईल से फ़रमायाः हे जिब्रईल मुझे नसीहत (सीख) दो, उन्होंने कहाः
हे मोहम्मद जितना भी जीना चाहो जियों, अंत में तुम मर जाओगे,
जितना भी चाहों मोहब्बत करों क्योंकि उससे जुदा हो जाओगे,
और जितना भी चाहों कोशिश करो, निसंदेह उस तक पहुंच जाओगे।
और जान लो कि मोमिन का सम्मान यह है कि नमाज़े शब पढ़े, और उसका सम्मान इसमें है कि लोगों की इज़्ज़त उछालने से बचे।
(ख़ेसाल, बाबुल वाहिद, हदीस 19)
22. عَن علیٍّ قال، قال رسول الله صلى الله عليه و آله و سلّم:
يَلْزَمُ الْوَالِدَيْنِ مِنَ الْعُقُوقِ لِوَلَدِهِمَا – إِذَا كَانَ الْوَلَدُ صَالِحاً – مَا يَلْزَمُ الْوَلَدَ لَهُمَا.
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः
जिस प्रकार संतान माता पिता से आक़ हो जाता है इसी प्रकार माता पिता भी अच्छी संतान से आक़ हो जाते हैं।
(जामेउल अख़बार, पेज 214)
23. قال رسول الله صلّى الله عليه و آله و سلّم:
کُلُّ عَیْنٍ بَاکِیَةٌ یَوْمَ الْقِیَامَةِ إِلَّا ثَلَاثَ أَعْیُنٍ عَیْنٌ بَکَتْ مِنْ خَشْیَةِ اللَّهِ وَ عَیْنٌ غُضَّتْ عَنْ مَحَارِمِ اللَّهِ وَ عَیْنٌ بَاتَتْ سَاهِرَةً فِی سَبِیلِ اللَّه.
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः
क़यामत के दिन हर आँख रोएगी सिवाय तीन आखों केः
1. वह आँख जो नामहरम को देखने से बंद कर ली जाए।
2. वह आँख जिसने ईश्वर के भय से आंसू बहाया हो।
3. वह आँख जो ईश्वर के लिया रात भर जागी हो।
(ख़ेसाल, बाबुस सलासा, हदीस 46)
24. قال رسول الله صلّى الله عليه و آله و سلّم:
حُفَّتِ الْجَنَّةُ بِالْمَكَارِهِ، وَحُفَّتِ النَّارُ بِالشَّهَوَاتِ.
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः
स्वर्ग कठिनाईयों के साथ मिली हुई है, और नर्क शारीरिक इच्छाओं और दिली तमन्नाओं के साथ गुंधी हुई है।
(नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 176 के कुछ भाग)
25. عن أبی عبدالله علیه السلام قال: قال رسول الله صلّى الله عليه و آله و سلّم:
لا یزالُ الشیطانُ ذُعراً مِنَ المؤمنِ ما حافَظَ عَلَی الصَّلَواتِ الخَمس لِوَقتِهِنَّ؛ فإذا ضَیَّعَهُنَّ تَجَرَّءَ عَلَیه فأدخَلَهُ فی العَظائم.
इमाम सादिक़ (अ) ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से रिवायत की हैः (कि पैग़म्बर ने फ़रमाया) शैतान सदैव उस बाईमान व्यक्ति से उस समय तक डरता है जो अपनी पाँचों वक़्त की नमाज़ को समय पर पढ़ाता है, यहां तक कि वह उसको छोड़ने लगे और उसको महत्व न दे, और जब वह ऐसा करता है तो शैतान उसपर हावी हो जाता है और उसको बड़े गुनाहों में डाल देता है।
(वसाएलुश शिया, जिल्द 3, पेज 18)
26. قال رسول الله صلّى الله عليه و آله و سلّم:
حُبّي و حُبُّ أهلِ بَيتي نافعٌ في سَبعَةِ مَواطِنَ أهوالِهِنَّ عَظيمةٍ: عِندَ الوَفاةِ وَ فِي القَبرِ و عِندَ النُّشُورِ و عِندَ الکِتابِ و عِندَ الحِسابِ و عِندَ الميزانِ و عِندَ الصِّراطِ.
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः
मेरी और मेरे अहलेबैत की मोहब्बत सात स्थानों पर जो कि बहुत ही भयानक हैं लाभदायक हैः
मौत के समय, और क़ब्र के अंदर, और क़ब्र से (हिसाब किताब के लिया) उठते समय, और नाम ए आमाल को दिये जाने के समय और कर्मों की समीक्षा के समय और और मीज़ान पर और पुले सिरात से गुज़रते समय।
(अमाली सदूक़, मजलिस 3, हदीस 3)
27. عن أمیرالمؤمنین علیه السلام قال: جاء رجلٌ إلی النبی صلّى الله عليه و آله و سلّم فقال:
عَلِّمنی عملاً یُحِبُّنیَ الله تعالی و یُحِبُّنی المخلوقون و یَثرِی الله مالی و یَصِحُّ بَدَنی و یُطیلُ عُمری و یَحشُرُنی مَعَک.
قال صلی الله علیه و آله: هذه سِتُّ خِصالٍ تَحتاجُ إلی سِتِّ خِصالٍ؛ إذا أردت أن یُحِبُّکَ الله فَخَفهُ و اتَّقِه؛ و إذا أردتَ أن یُحِبُّکَ المخلوقونَ فأحسِن إلیهِم و ارفِض ما فی أیدیهم؛ و إذا أردت أن یَثرِی الله مالَکَ فَزَکِّهِ؛ و إذا أردت أن یَصِحَّ الله بَدَنَک فأکثِر مِن الصَّدَقَةِ ؛ و إذا أردت أن یُطیلَ الله عُمرَکَ فصِل ذَوِی أرحامِک ؛ و إذا أردتَ أن یَحشُرَکَ الله مَعی فَاَطِلِ السجودَ بَینَ یَدَیِ الله الواحدِ القهّارِ.
अमीरुल मोमिनीन (अ) से रिवायत है कि आपने फ़रमायाः
एक व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पास आया और कहने लगाः मुझे कोई ऐसा कार्य सिखाएं कि ख़ुदा और लोग मुझे पसंद करें और ईश्वर मेरी सम्पत्ति को अधिक और मेरे शरीर के स्वस्थ और मेरी आयु को ज़्यादा और मुझे आपके साथ (क़यामत के दिन) उठाए।
पैग़म्बर ने फ़रमायाः यह छः गुण हैं जो छः गुण चाहते हैं:
जब भी चाहों की ख़ुदा तुमको दोस्त रखे, तो उससे डरो और तक़वा अख़्तियार करो,
और जब भी चाहों की लोग तुमको पसंद करें तो उनकी साथ नेकी करो और जो भी उनके हाथ में है उसकी लालच न करो,
और जब भी चाहों की ईश्वर तुमको सम्पन्न करे तो ज़कात दो,
और जब भी चाहों की ईश्वर तुम्हारे शरीर को स्वस्थ रखे तो, बहुत अधिक सदक़ा दो,
और जब भी चाहो ईश्वर तुम्हारी आयु को लंबा करे तो अपने रिश्तेदारों के साथ संबंध स्थापित करो,
और जब भी चाहो कि ख़ुदा तुमको हमारे साथ उठाए, तो एक और क़ह्हार (शक्तिशाली) ईश्वर के सामने लंबे लंबे सजदे करो।
(अमाली शेख़ तूसी, जिल्द 1, पेज 82)
28. قال رسول الله صلّى الله عليه و آله و سلّم:
الرِّجَالُ أَرْبَعَةٌ سَخِیٌّ وَ كَرِیمٌ وَ بَخِیلٌ وَ لَئِیمٌ فَالسَّخِیُّ الَّذِی یَأْكُلُ وَ یُعْطِی وَ الْكَرِیمُ الَّذِی لَا یَأْكُلُ وَ یُعْطِی وَ الْبَخِیلُ الَّذِی یَأْكُلُ وَ لَا یُعْطِی وَ اللَّئِیمُ الَّذِی لَا یَأْكُلُ وَ لَا یُعْطِی ).
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः
लोग चार गुणों वाले हैं: उदार, करीम (दयावान) कंजूस और तुच्छ
उदार वह है जो स्वंय खाता है और दूसरों को भी देता है।
करीम वह है जो स्वंय नहीं खाता है और दूसरों को देता है।
कंजूस वह है जो स्वंय खाता है दूसरों को नहीं देता है।
तुच्छ वह है कि जो न स्वंय खाता है और न दूसरों को देता है।
(जामेउल अख़बार, पेज 113)
29. عن علیٍّ قال: قال رسول الله صلّى الله عليه و آله و سلّم:
لِلْمُسْلِمِ عَلَى أَخِيهِ ثَلَاثُونَ حَقّاً لَا بَرَاءَةَ لَهُ مِنْهَا إِلَّا بِالْأَدَاءِ أَوِ الْعَفْوِ:
अमीरुल मोमिनीन (अ) फ़रमाते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमायाः हर मुसलमान दूसरे मुसलमान पर 30 हक़ रखता है कि इन अधिकारों से मुंह नहीं मोड़ सकता है मगर यह कि उनको पूरा करे अगर पूरा न करे (यानी अगर पूरा न करे तो) दूसरे मुसलमान का हक़ उसकी गर्दन पर है।
वह अधिकार यह हैं:
1. يَغْفِرُ زَلَّتَهُ: उसकी ग़ल्तियों को क्षमा करें
2. وَ يَرْحَمُ عَبْرَتَهُ: और उसके आंसुओं पर रहम करे,
3. وَ يَسْتُرُ عَوْرَتَهُ: और उसके राज़ों को छिपा कर रखे और रहस्यों पर अमीन रहे,
4. وَ يُقِيلُ عَثْرَتَهُ: और उसकी त्रुटि को सही करे,
5. وَ يَقْبَلُ مَعْذِرَتَهُ: और उसके क्षमा याचना (Excuse) को स्वीकार करे,
6. وَ يَرُدُّ غِيبَتَهُ: और उसकी ग़ीबत को रोके,
7. وَ يُدِيمُ نَصِيحَتَهُ: और सदैव उसके लिये शुभचिंतक रहे,
8. وَ يَحْفَظُ خُلَّتَهُ: और उसकी दोस्ती का सम्मान बनाए रखे,
9. وَ يَرْعَى ذِمَّتَهُ: और अगर उसके लिये किसी प्रकार की ज़मानत की हो तो उसको पूरा करे,
10. وَ يَعُودُ مَرْضَتَهُ: और बीमारी के समय उसकी तीमारदारी करे
11. وَ يَشْهَدُ مَيِّتَهُ: और उसके जनाज़े में शरीक हो
12. وَ يُجِيبُ دَعْوَتَهُ: और उसके निमंत्रण को स्वीकार करे,
13. وَ يَقْبَلُ هَدِيَّتَهُ: और उसके उपहार को स्वीकार करे,
14. وَ يُكَافِئُ صِلَتَهُ: और उसके एहसान का अच्छा बदला दे,
15. وَ يَشْكُرُ نِعْمَتَهُ: और वह नेमत जो उसने उसको दी है उस पर उसका अभिवादन करे,
16. وَ يُحْسِنُ نُصْرَتَهُ: और जितना संभव हो उतनी अच्छाई के साथ उसकी सहायता करे,
17. وَ يَحْفَظُ حَلِيلَتَهُ: और उसकी नामूस (माँ, बहन, बेटी आदि) के लिये ग़ैरत दिखाए (उनको बुरी नज़रों से न देखे)
18. وَ يَقْضِي حَاجَتَهُ: और उसकी आवश्यकता को पूरा करे,
19. وَ يَشْفَعُ مَسْأَلَتَهُ: और उसकी ज़रूरत को पूरा करने के लिये तीव्रता के साथ कोशिश करे,
20. وَ يُسَمِّتُ عَطْسَتَهُ: और छींक के समय उसका नाम ले और कहे कि ईश्वर तुम पर कृपा करे,
21. وَ يُرْشِدُ ضَالَّتَهُ: और उसकी खोई चीज़ को ढूंडने का प्रयत्न करे,
22. وَ يَرُدُّ سَلَامَهُ: और उसका सलाम का उत्तर दे,
23. وَ يُطِيبُ كَلَامَهُ: और नर्मी और अच्छे से उससे बात करे,
24. وَ يَبَرُّ إِنْعَامَهُ: और उसके उपहारों का अच्छा उत्तर दे,
25. وَ يُصَدِّقُ إِقْسَامَهُ: और उसके दोस्त ने क़सम खाई हो तो उसका सत्यापन करे,
26. وَ يُوَالِي وَلِيَّهُ، وَ لَا يُعَادِيهِ: और उसके दोस्त का दोस्त रहे और उससे शत्रुता न करे,
27. وَ يَنْصُرُهُ ظَالِماً وَ مَظْلُوماً، فَأَمَّا نُصْرَتُهُ ظَالِماً فَيَرُدُّهُ عَنْ ظُلْمِهِ، وَ أَمَّا نُصْرَتُهُ مَظْلُوماً فَيُعِينُهُ عَلَى أَخْذِ حَقِّهِ:
और वह चाहे अत्याचारी हो या पीड़ित उसकी सहायता करे, और अत्याचारी होने के समय उसकी सहायता यह है कि उसको ज़ुल्म से रोके और पीड़ित होने के समय उसकी सहायता यह है कि अधिकार पाने के लिये उसकी सहायता करे।
28. وَ لَا يُسْلِمُهُ: और कठिनाईयों के समय उसको अकेला न छोड़ दे,
29. وَ لَا يَخْذُلُهُ: और उसको अपमानित न करे,
30. وَ يُحِبُّ لَهُ مِنَ الْخَيْرِ مَا يُحِبُّ لِنَفْسِهِ وَ يَكْرَهُ لَهُ مِنَ الشَّرِّ مَا يَكْرَهُ لِنَفْسِهِ:
और वह नेकी जो स्वंय के लिये पसंद करता है उसके लिये भी पसंद करे, और वह बुराई जो अपने लिये पसंद नहीं करता है उसके लिये भी पसंद न करे
ثُمَّ قَالَ (عليه السَّلام): سَمِعْتُ رَسُولَ اللَّهِ (صلى الله عليه و آله و سلّم) يَقُولُ: إِنَّ أَحَدَكُمْ لَيَدَعُ مِنْ حُقُوقِ أَخِيهِ شَيْئاً فَيُطَالِبُهُ بِهِ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فَيُقْضِي لَهُ وَ عَلَيْهِ.
फिर इमाम अली (अ) ने फ़रमायाः मैंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सुना कि आपने फ़रमायाः
निसंदेह तुम में से एक अपने दीनी भाई का हक़ न देगी, तो क़यामत के दिन उससे उस (हक़) की मांग की जाएगी और उस (दोस्त) के हक़ में और उसके विरुद्ध फ़ैसला होगा जिसने हक़ नहीं दिया होगा।
(बिहारुल अनवार जिल्द 71, पेज 236)
30. عن أبی عبدالله علیه السلام قال: قال رسول الله صلّى الله عليه و آله و سلّم:
ثَلاثٌ مَن كُنَّ فيهِ كانَ مُنافِقاً وَ اِن صامَ وَ صَلَّي وَ زَعَمَ اَنَّهُ مُسْلِمٌ، مَن اِذَا اُئتُمِنَ خانَ وَ اِذا حَدَثَ كَذِبَ وَ اِذَا وَعَدَ اَخلَفَ.
इमाम सादिक़ (अ) ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से रिवायत की है कि आपने फ़रमायाः
यह दीन विशेषताएं जिसमें भी हों वह मुनाफ़िक़ है, चाहें वह नमाज़ रोज़ा करने वाला हो और स्वंय को मुसलमान समझता होः
1. वह जिसपर जब भरोसा किया जाए तो वह ख़यानत करे (धोखा दे जाए)
2. और जब भी बोले, झूठ हो,
3. और जब भी कोई वादा करे तो उसको पूरा न करे।
(अलकाफ़ी, जिल्द 2, पेज 290)
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