इमाम रज़ा (अ) के शुभ जन्मदिवस के अवसर पर विशेष

इमाम रज़ा (अ) के शुभ जन्मदिवस के अवसर पर विशेष

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की माता नजमा ख़ातून का कहना है कि जब मैं गर्भवती थी और मेरी कोख में मेरा यह पुत्र था तो मैं भारीपन का आभास नहीं करती थी। वे कहती हैं कि जब मैं सोती थी तो ईश्वर की प्रशंसा और उसके गुणगान की आवाज़ें सुनती थी। यह सुनकर एकदम से मैं जाग उठती लेकिन जब मेरी आंख खुलती तो वह आवाज़ें सुनाई नहीं देती थीं। वे कहती हैं कि जब मेरे सुपुत्र का जन्म हुआ तो उसने अपने हाथ ज़मीन पर रखे, अपना सिर ऊपर की ओर उठाया और अपने होठ हिलाए लेकिन मैं यह नहीं समझ सकी कि उसने क्या किया। इसके बाद मैं अपने पति इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम के पास गई तो उन्होंने मुझको संबोधित करते हुए कहा कि हे नजमा! तुमको ईश्वर की अनुकंपा पर बधाई हो। उसके बाद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अपने सुपुत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के कानों में अज़ान और अक़ामत कही। फिर उन्होंने नवजात शिशु को मेरी गोद में देते हुए कहा कि लो इस बच्चे को पकड़ो जो धरती पर ईश्वर की अनुकंपा है और मेरे बाद धरती पर ईश्वर की निशानी है।

आज ही के दिन अर्थात 11 ज़ीक़ादा सन 148 हिजरी क़मरी को पवित्र नगर मदीना में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का जन्म हुआ था।  इस शुभ अवसर पर हम आपकी सेवा में बधाई प्रस्तुत करते हैं।

इस्लाम की दृष्टि में जिस चीज़ को महत्व प्राप्त है वह लोगों के कर्म हैं। मौखिक बातों की तुलना में इस्लाम में व्यवहार को अधिक महत्व प्राप्त है। इस्लामी दृष्टिकोण से प्रत्येक मनुष्य का महत्व उसके कर्मों के हिसाब से है। किसी भी स्थिति में पारिवारिक पृष्ठभूमि, रंग, जाति, क़बीला, सामाजिक संबन्ध या इस प्रकार की अन्य बातें कभी भी मनुष्य की श्रेष्ठा का कारण नहीं बन सकतीं। कोई भी व्यक्ति केवल इसलिए सम्मानीय नहीं हो सकता क्योंकि वह उच्च कुल से है या वह एतिहासिक पृष्ठभूमि वाले परिवार का स्वामी है। इस्लाम के हिसाब से इनमे से कोई भी बात दूसरों पर श्रेष्ठता का कारण नहीं बन सकती बल्कि श्रेष्ठता केवल ईश्वरीय भय या तक़वे से ही प्राप्त की जा सकती है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम कभी किसी को उसकी जाति, रंग या किसी अन्य कारक के कारण वरिष्ठता नहीं दिया करते थे बल्कि उनके निकट मानदंड केवल ईश्वरीय भय था।

हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का ज्ञान, धैर्य वीरता, उपासना, सदाचारिता एवं ईश्वरीय भय और इसी प्रकार की नैतिक विशेषताएं इस सीमा तक थीं कि आपके काल में किसी को भी इमाम रज़ा के ज्ञान एवं आध्यात्मिक श्रेष्ठता में कोई संदेह नहीं था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी पवित्र आयु के दौरान धार्मिक शिक्षाओं के विस्तार हेतु बहुत प्रयास किये। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम अपने समय में "आलिमे आले मोहम्मद" अर्थात हज़रत मोहम्मद के परिवार के ज्ञानी के नाम से प्रसिद्ध थे। उनके ज्ञान के साथ ही उनके व्यवहार का चर्चा भी चारों ओर था।

बलख़ के रहने वाले अब्दुल्लाह बिन सल्त कहते हैं कि ख़ुरासान की यात्रा में मैं इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के साथ मौजूद था। उनके दस्तरख़ान पर समाज के हर वर्ग के लोग उपस्थित होते थे। उन्होंने कहा कि एक बार मैंने इमाम रज़ा से कहा कि क्या यह उचित नहीं होगा कि आप इन लोगों के लिए अलग द्स्तरख़ान बिछाएं? इसपर इमाम ने कहा कि सबका ईश्वर एक ही है अतः लोगों के बीच किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को उसके किये का बदला दिया जाएगा। इसी संदर्भ में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के एक सेवक यासिर कहते हैं कि वह दिन जिस दिन इमाम रज़ा को मामून ने ज़हर दिया और जिसके कारण वे शहीद हुए उसी दिन नमाज़े ज़ोहर के बाद इमाम ने मुझसे कहा कि हे यासिर! क्या घर वालों ने कुछ खाया? मैंने उत्तर में कहा कि एसी स्थिति में कि जब आपकी यह हालत है तो फिर कौन खाना खाएगा? यह सुनकर इमाम उठे और उन्होंने कहा कि दस्तरख़ान बिछाओ। उसके बाद इमाम ने सबको दस्तरख़ान पर बुलाया।  उन्होंने सबसे प्रेम दर्शाया। जब सबने खाना खा लिया उसके बाद इमाम बेहोश हो गए।

ईश्वरीय दूतों ने सदैव ही लोगों को एकता का पाठ दिया। वे अपने परिवार के सदस्यों का भी प्रशिक्षण करते थे और समाज के सदस्यों का भी। वे सिखाते थे कि केवल पारिवारिक श्रेष्ठताओं पर गर्व न किया जाए बल्कि अच्छे व्यवहार को अपनाया जाए। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम अपने मित्रों और परिचितों से कहा करते थे कि ईश्वर का अनुसरण केवल उसकी उपासना से प्राप्त होगा और उपासना के लिए कर्म करना होगा। पैग़म्बरे इस्लाम लोगों से कहा करते थे कि तुम मेरे पास अपने कार्य या कर्म लाओ न कि अपनी पारिवारिक श्रेष्ठा।

एक दिन एक व्यक्ति ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से कहा कि ईश्वर की सौगंध, पूर्वजों की दृष्टि से क्या धरती पर कोई आपसे श्रेष्ठ है? इसके उत्तर में इमाम रज़ा ने कहा कि तक़वा या ईश्वरीय भय, मेरे पूर्वजों से श्रेष्ठ है। उन्होंने कहा कि ईश्वर के आदेशों के पालन ने ही उन्हें उच्च स्थान पर पहुंचाया।

इसी प्रकार से एक दिन किसी ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा कि ईश्वर की सौगंध आप सर्वश्रेष्ठ हैं। इसपर इमाम रज़ा ने कहा कि तुम क़सम न खाओ, मुझसे श्रेष्ठ वह है जो ईश्वर की प्रशंसा के लिए उसका अनुसरण करे और उसके भय के कारण पाप न करे। फिर आपने सूरए होजोरात की आयत संख्या की 13वीं आयत पढ़ी जिसमें ईश्वर कहता है कि हे लोगो! हमने तुमको एक पुरुष और महिला से पैदा किया है और तुमको जातियों और क़बीलों में बांटा ताकि तुम एक-दूसरे को पहचानो। ईश्वर के निकट वह सर्वश्रेष्ठ है जो तुममे से सर्वाधिक ईश्वर से भय रखता है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की स्पष्ट नैतिक विशेषताएं इस प्रकार थीं कि शत्रु भी उनके गिरवीदा थे। वे लोगों के साथ विनम्रता से पेश आते थे, उनके साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार करते थे और कभी भी स्वयं को लोगों से अलग नहीं मानते थे। इमाम रज़ा लोगों से कहा करते थे कि इमाम अर्थात ईश्वरीय पथप्रदर्शक, लोगों के लिए एक कृपालु पिता, हितैषी भाई और दुख बांटने वाली माता के समान है। बुरे समय में वह लोगों की शरणस्थली है। इमाम रज़ा के एक सेवक यासिर कहते हैं कि मैंने कभी भी नहीं देखा कि उन्होंने किसी के साथ कड़े शब्दों में बात की हो। वे अपने सेवकों से कहते थे कि कभी मैं तुमको किसी काम के लिए बुलाऊं और तुम खाना खा रहे हो तो फौरन उठकर न आओ बल्कि पहले खाना ख़त्म करो फिर मेरे पास आओ। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि कई बार एसा हुआ कि इमाम रज़ा ने हमें आवाज़ दी और हमने उनसे कहा कि हम खाना खा रहे हैं।

किसी समाज में अच्छे कामों को फैलाने के लिए समाज के भीतर अच्छाई की संस्कृति को लागू करने की आवश्यकता होती है। लोगों को अच्छी बातें सिखाने के लिए सर्वोत्तम मार्ग यह है कि पहले स्वयं उन कार्यों को किया जाए। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने भी समाज मे अच्छाइयां प्रचलित करने के लिए इसी शैली को अपनाया था। इब्राहीम बिन अब्बास नामक एक व्यक्ति का कहना है कि मैंने कभी भी यह नहीं देखा कि इमाम ने किसी के साथ वार्ता में ऊंची आवाज़ का प्रयोग किया हो या फिर समाने वाले की बात पूरी होने से पहले अपनी बात कही हो। वे हमेशा समाने वाले की बात सुनते और जब वह शांत हो जाता तथा इमाम इस बात का आभास करते कि कुछ कहना चाहिए तभी वे कुछ कहते थे अन्यथा शांत हो जाते थे।  वे कभी भी उस कार्य को करने से पीछे नहीं रहते जो उनके सामर्थ्य में होता था। लोगों के बीच वे टेक लगाकर नहीं बैठते थे। वे अपने किसी भी सेवक या नौकर को बुरा-भला नहीं कहते थे और न ही उनका अनादर करते थे। वे छिपकर दान दिया करते थे।  दान देना या दूसरे बहुत से अन्य परोपकार वे रात के समय किया करते थे।

लोगों के साथ मिलजुलकर रहना इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की एक अन्य विशेषता थी। इमाम के एक अन्य साथी अबएबाद कहते हैं कि वे बहुत ही सादा जीवन व्यतीत करते थे। साधारण कपड़े पहनते और सादा खाना खाते थे। दान-दक्षिणा, भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और वंचितों की सहायता करना एसे कार्य हैं जिनका उल्लेख पवित्र क़ुरआन में मिलता है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन में लोगों की सहायता करने जैसी बातों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के एक जानने वाले का कहना है कि एक बार एक अपरिचित उनकी सेवा में आया। उसने इमाम रज़ा को सलाम किया और कहा कि मैं हज़ से वापस आया हूं।  मेरे पास पैसे नहीं हैं। अब मैं अपने घर जाना चाहता हूं और मेरा हाथ ख़ाली है। यदि आपके पास कुछ पैसे हों तो मुझको दे दीजिए मैं अपने घर जाकर उन पैसों को दक्षिणा में दे दूंगा क्योंकि यहां पर मेरी जेब खाली है और मेरे पास कुछ भी नहीं है लेकिन अपने शहर में मैं निर्धन नहीं हूं। उस अपरिचित की बात सुनकर इमाम ने उसे 200 दीनार देते हुए कहा कि तुम यह ले लो और अब आवश्यक नहीं है कि उसके बराबर के पैसों को दान करो।

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