हदीसे सिलसिलतुज़ ज़हब और विलायत

हदीसे सिलसिलतुज़ ज़हब और विलायत

सैय्यद ताजदार हुसैन ज़ैदी

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जब चालीस साल की आयु में अपने नबी होने का दावा किया तब उसी दिन से आपकी विलायत का मसलआ भी साथ साथ चलता आया है आपने अपनी सबसे पहली दावत में ही अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी थी और एक आम एलान किया था कि जो भी मेरी सहायता करेगा वह मेरे बाद मेरा ख़लीफ़ा और जानशीन होगा, और इतिहास गवाह है कि उस समय 13 साल के अली (अ) के अतिरिक्त कोई दूसरा खड़ा नहीं हुआ जिसने आपकी सहायता का वादा किया हो, और अली ने अपने पूरे जीवन में इस वादे को पूरी निष्ठा के साथ पूरा किया।

तो ख़िलाफ़त और विलायत एक ऐसा मसअला है जो सदैव से ही इस्लाम के साथ साथ चला है और चलता रहेगा, और यह नबियों की सीरत भी रही है इसीलिय जब भी कोई नबी जाता है तो वह अपने बाद आने वाले नबीं के बारे में बता कर जाता है, यानी यह ख़ुदा की रीत रही है कि उसने किसी भी ज़माने में इन्सानों को बिना किसी हादी के नहीं छोड़ा है और वह हादी एवं मार्गदर्शक ईश्वर का चुना हुआ होता है, और जब यह रीत पैग़म्बर (स) तक पहुंची तो आपने भी अपने बाद अली (अ) को अपना ख़लीफ़ा घोषित किया, और इस एलान पर अन्तिम मोहर ग़दीर के मैदान में लगी जब आपने अली की ख़िलाफ़त के बारे में एक बार फिर एलान किया औऱ क़ुरआन ने इस्लाम के पूर्ण होने का सार्टिफ़िकेट दे दिया।

उसे बाद भी जब भी कोई मासूम आता था तो वह अपने बाद आने वाले इमाम के बारे में बता कर जाता था, अली (अ) ने हसन (अ) को अपना ख़लीफ़ा बनाया तो हसन (अ) ने हुसैन (अ) को और इसी प्रकार यह सिलसिला चलता रहा यह तक कि यह सिलसिला आठवे इमाम इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम तक पहुंचा जिसने इस रीत को अपने सबसे उच्च स्थान तक पहुंचा दिया, और अपनी यात्रा में वह हदीस फ़रमाई जिसे आज हदीसे सिलसिलतुज़ ज़हब यानी सोने की कड़ियों वाली हदीस कहा जाता है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के मर्व की तरफ़ यात्रा में आप जहां पर भी ठहरते थे उस क्षेत्र के लोगों पर ईश्वरीय अनुकम्पाओं की बारिश होती थी, आपकी इसी यात्रा में जब आप नैशापूर की तरफ़ से ग़ुज़रे तो बहुत से वह लोग जिन्होंने यह सुना था कि पैग़म्बर की एक औलाद यहां से ग़ुज़र रही है तो वह सब आपके स्वागत के लिए आए, और उसी समय दो हदीस के विद्वान और हाफ़िज़ों ने बहुत सी हदीस के प्यासों और शागिर्दों के साथ आपनी सवारी की लगाम थाम ली और कहाः हे महान इमाम हे सम्मानीय इमामों की औलाद, हम आपको अपने पवित्र वंशजों की क़सम देते हैं हमको अपना चेहरा दिखाएं और अपने जद की कोई हदीस हमको सुनाए

इमाम ने सवारी को रोके जाने का आदेश दिया, लोगों ने आपके पवित्र चेहरे की ज़ियारत की लोग आपको देख कर मारे ख़ुशी के रोने लगे और जो लोग आपकी सवारी के पास के वह आपकी सवारी को चूम रहे थे (लोगों का सवारी को चूमना और इमाम का मना न करना प्रश्न है उन वहाबियों के लिये जो ज़ियारत, तवस्सुल ज़रीह चूमने .. आदि को कुफ़्र कहते हैं) पूरे शहर में एक जोश भर गया था, यहां तक की शहर के सम्मानीय लोग लोगों से यह कह रहे थे कि चुप हो जाएं ताकि आपसे हदीस सुनी जा सके, कुछ देर के बाद सब लोग चुप हो गए।

जब इमान रज़ा अलैहिस्सलाम ने यह हदीस इर्शाद फ़रमाईः आपने फ़रमाया कि मैने अपने बाबा से उन्होंने अपने बाबा से उन्होंने अपने बाबा से उन्होंने ....... उन्होंने पैग़म्बर से, उन्होंने जिब्रईल से उन्होंने अल्लाह से सुना कि ईश्वर ने फ़रमायाः

 کلمه لا اله الا الله حصنی فمن دخل حصنی امن من عذابی

ला इलाहा इल्लललाह मेरा क़िला है और जो मेरे क़िले में प्रवेश कर गया वह मेरे क्रोध से बच गया

फिर आपने फ़रमाया

بشرطها و شروطها و انا من شروطها

लेकिन इसकी कुछ शर्ते हैं और उन शर्तों में से एक मैं स्वंय हूँ।

यह हदीस बता रही है कि तौहीद का सच्चा इक़रार उसी समय है जब तौहीद के साथ साथ इमामत का भी इक़रार किया जाए और इमाम की बातों और हदीसों पर अमल किया जाए, वास्तव में इमाम ने ख़ुदा के अज़ाब से बचने की शर्त तौहीद और तौहीद के लिये विलायत को स्वीकार करना शर्त बताया है।

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