रमज़ान बंदगी का बेहतरीन मौक़ा

रमज़ान बंदगी का बेहतरीन मौक़ा

रमज़ान के पवित्र महीने में ईश्वर ने अपनी विशेष अनुकंपाएं हमें प्रदान की हैं। यह महीना अपने कर्मों के बारे में विचार-विमर्श के लिए बहुत अच्छा अवसर है।  इस पवित्र महीने में हम अपने कर्मों द्वारा ईश्वर से निकट भी हो सकते हैं और दूर भी।  अर्थात सदकर्म करके मनुष्य ईश्वर से बहुत निकट हो सकता है जबकि बुरे कर्म करके वह ईश्वर से दूर और शैतान से निकट हो जाता है। ईश्वर ने हमे एक महीने का समय दिया है। इस दौरान हम अपनी योग्यताओं और क्षमताओं के अनुरूप भले कार्य करके आत्म निर्माण कर सकते हैं तथा पापों से दूर रह सकते हैं। इस प्रकार से रमज़ान, शैतान से दूरी का सबसे अच्छा माध्यम है। रमज़ान की एक अच्छी बात यह है कि इसमें ईश्वर ने हमें प्रायश्चित करने का निमंत्रण दिया है और वह अधिक से अधिक तौबा करने के लिए हमें प्रेरित करता है।

पवित्र रमज़ान की अनुकंपाओं में से एक अनुकंपा यह है कि रोज़ा, शैतान की उस भूमिका को भी नष्ट कर देता है जिसके माध्यम से वह लोगों को पथभ्रष्ट करता है। दूसरे शब्दों में रमज़ान के दौरान शैतान के पैरों में जो ज़ंजीर होती है और वह ज़ंजीर स्वयं रोज़ा है। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि रमज़ान में शैतान को ज़ंजीरों में जकड़ दिया जाता है और प्रायश्यित के द्वार खोल दिये जाते हैं। रोज़ा न केवल शैतान को नियंत्रित करता है बल्कि वह आंतरिक इच्छाओं के दमन का भी बहुत अच्छा माध्यम है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि रोज़े में भूख-प्यास के माध्यम से आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण प्राप्त किय जा सकता है। इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि नफ़्स अर्थात आंतरिक इच्छाओं के दमन और उनको परास्त करने के लिए भूख, कितना अच्छा साधन है। आत्मनिर्माण में भूख की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। महापुरूषों का कहना है कि भूख के माध्यम से बहुत सी उच्च एवं श्रेष्ठ विशेषताओं को प्राप्त किया जा सकता है।

ईश्वर ने रमज़ान में जिन बुराइयों से रुकने का आदेश दिया है उनमें से एक, लोगों का अपमान न करना है। इस्लाम की दृष्टि में दूसरों का अपमान करना पाप है। इसलिए हमें दूसरों की बुराई करने या उनका अपमान करने से बचना चाहिए।  इसी संदर्भ में इमाम अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जो भी लोगों की बुराइयों को ढूंढेगा तो ईश्वर उसकी बुराइयों को स्पष्ट कर देगा।

हम देखते हैं कि समाज में एसे बहुत से लोग हैं जो केवल दूसरों की बुराइयां करते हैं जबकि वे स्वयं ही बहुत सी बुराइयों में घिरे हुए होते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि सबसे बुरा एब यह है कि जिसे तुम दूसरों में ढूंढो जबकि वह स्वयं तुम्हारे ही भीतर पाया जाता हो। रोज़ा रखने वाले को सदैव ही इस बुराई से बचना चाहिए। इसका मुख्य कारण यह है कि इससे दूसरों का दिल दुखता है और किसी का दिल दुखाना बहुत बड़ा पाप है। इस्लाम का मानना है कि किसी की इज़्ज़त से खेलना बुरी बात है।

आपने भी सुना होगा कि बड़े-बूढ़े कहते हैं कि कही हुई बात फिर वापस नहीं आती। यह उस तीर की भांति है जो कमान से निकल गया। ज़बान से निकली हुई बात कभी किसी के अपमान का कारण बनती है तो कभी लड़ाई-झगड़े का।  कभी-कभी मनुष्य दूसरों की बुराई करके सामने वाले पक्ष को मानसिक पीड़ा पहुंचाता है और बाद में वह क्षमा मांगकर भी उसकी क्षतिपूर्ति नहीं कर सकता।

एक बार की बात है कि एक महिला ने अपने पड़ोसी पर आरोप लगाया और फिर उसे दूसरों को बताना शुरू किया। कुछ ही समय में सबमें यह बात आम हो गई और लोगों को पता चल गया कि अमुक व्यक्ति ठीक नहीं है। जिस व्यक्ति पर आरोप लगाया गया था उसको इस बात से बहुत पीड़ा हुई। अपने ऊपर लगाए गए आरोप से वह बहुत दुखी हुआ। कुछ समय के बाद जब महिला को अपनी ग़लती का आभास हुआ तो वह बहुत पछताई। इस बीच उसने अंदाज़ा लगाया कि जिस व्यक्ति पर उसने आरोप लगाया था वह मानसिक पीड़ा में ग्रस्त हो गया है। एसे में महिला ने इस समस्या के समाधान के लिए क़दम उठाया। वह अपने यहां के एक महापुरूष के पास गई। उसने उनको सारी बात बताई और कहा कि आप मुझको इस समस्या का कोई समाधान बताइए। महापुरुष ने महिला की बातों को बहुत ध्यान से सुना। फिर उससे कहा कि जाओ तुम एक परिंदा पकड़ो। उसको ज़िबह करो और उसके सारे परों को नोचकर अपने घर के निकट जो रास्ता है उसपर डाल दो। उसके बाद मेरे पास आओ तो मैं तुमको उपचार बताऊंगा। महापुरूष की बात सुनकर महिला को बहुत आश्चर्च हुआ किंतु उसने वैसा ही किया जैसे महापुरूष ने उससे कहा था। अगले दिन वह महिला महापुरूष के पास आई।  उन्होंने कहा कि अब तुम जाकर उन परों को इकट्ठा करके मेरे पास लाओ जो तुमने सड़क पर डाल दिये थे। वह वापस गई और बहुत प्रयास करने के बाद बहुत थोड़े से पर लेकर महापुरूष के पास आई। उसने कहा कि बड़ी मुश्किल से यह पर मुझको मिले हैं बाक़ी सब उड़ गए। महिला की बात के उत्तर में महापुरूष ने कहा कि देखो परों को सड़क पर डालना तो बहुत आसान था किंतु उनको इकट्ठा करना बहुत कठिन है। यह उसी आरोप की भांति है जिसे तुमने दूसरे पर लगाया और बाद में पता चला कि वह ग़लत था। एसे में उसकी क्षति पूर्ति कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है। कभी-कभी तो एक आरोप किसी के पूरे जीवन को क्षतिग्रस्त कर देता है।  इस कहानी से हमें यही पाठ मिलता है कि मनुष्य को अकारण ही किसी को दोषी नहीं ठहराना चाहिए और किसी पर आरोप नहीं लगाना चाहिए।

मनुष्य को सदैव ही दो प्रकार के शत्रुओं का सामना है। पहला शत्रु तो स्वंय उसकी आंतरिक इच्छाए हैं और दूसरा शत्रु शैतान है। आंतरिक इच्छाओं को भीतरी शत्रु की संज्ञा दी जाती है जबकि शैतान को बाहरी शत्रु कहकर संबोधित किया गया है।  आंतरिक इच्छाओं के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु वे इच्छाए हैं जो तुम्हारे अस्तित्व के भीतर हैं। इसी संदर्भ में पवित्र क़ुरआन में कहा गया है कि आंरतिक इच्छाएं मनुष्य को बुरे कर्मों की ओर प्रेरित करती हैं।  मनुष्य का दूसरा सबसे बड़ा शत्रु शैतान है। पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम इस बारे में ईश्वर को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर! मैं तुझसे उस शत्रु की शिकायत करता हूं जो मुझको पथभ्रष्ट करना चाहता है। यह शैतान मेरे मन में भांति-भांति के विचार लाता है जिन्होंने मेरे मन को घेर रखा है। यह मुझको सांसारिक मायामोह की ओर अग्रसर करता है। यह मुझमें और तेरी उपासना के बीच गतिरोध उत्पन्न करता है।

मनुष्य के ऊपर ईश्वर की जो अनुकंपाए हैं उनमें से एक यह है कि उसने हमको विभिन्न ढंग से शैतान की दुश्मनी से अवगत कराया है। पवित्र क़ुरआन में वह जगह-जगह पर हमको सचेत करते हुए कहता है कि उसके धोखे में न आ जाना। शैतान तुमको भांति-भांति से बहकाने के प्रयास करेगा। सूरए फ़ातिर की आयत संख्या 6 में ईश्वर कहता है  कि वास्तव में शैतान तुम्हारा शत्रु है अतः तुम उसको शत्रु समझो क्योंकि शैतान, मनुष्य के चुनाव और अधिकार में बाधा नहीं डाल सकता इसलिए वह विभिन्न बहानों से मन के भीतर वसवसे पैदा करता है। वह इन वसवसों के माध्यम से अपने ग़लत और बुरे विचारों को हमारे मन में डालता है। इस प्रकार वह मनुष्य को सीधे रास्ते से हटाना चाहता है। सीधा रास्ता वहीं मार्ग है जो स्वभाविक और ईश्वरीय मार्ग है। पूरी मानवजाति के भीतर आंतरिक आनंदों के प्रति एक झुकाव पाया जाता है। शैतान भी मनुष्य की इसी कमज़ोरी या आंरतिक भावना का दुरूपयोग करते हुए उसे बुरे मार्ग की ओर ले जाना चाहता है और मनुष्य को पाप के मार्ग पर लगा देता है। कभी-कभी वह पापों को बहुत सुन्दर दर्शाकर उन्हे करने के लिए मनुष्य को प्रेरित करता है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी वह मनुष्य के भीतर आलस्य या भय की भावना उतपन्न करके भी उसे ईश्वरीय दायित्वों के निर्वाह से रोकता है। इस प्रकार से वह हमें विभिन्न हथकण्डों के माध्यम से सही रास्ते से हटाकर बुरे मार्ग पर ले जाने के लिए प्रयत्नशील रहता है। जब भी मनुष्य कोई पाप करके पछताता है तो शैतान उसी पाप को उसके लिए बहुत ही सुन्दर रूप में प्रस्तुत करने लगता है और फिर उससे वही पाप कराने की कोशिश करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि शैतान मनुष्य को अलग-अलग चालों और षडयंत्रों के माध्यम से पाप की ओर धकेलता रहता है। वह उसके भीतर वसवसे पैदा करता है। इस प्रकार वह ईश्वर और उसके दास के बीच दूरी बनाने के प्रयास में लगा रहता है। शैतान बिल्कुल नहीं चाहता कि मनुष्य ईश्वर की उपासना करे और उसके सीधे मार्ग पर आगे बढ़े।

शैतान की चालों और उसके हथकण्डों से बचने के सबसे अच्छा मार्ग पवित्र रमज़ान का महीना है। इस महीने में रोज़े रखकर मनुष्य शैतान को परास्त कर सकता है। वैसे भी पैग़म्बरे इस्लाम के एक कथन में आया है कि पवित्र रमज़ान एसा महीना है जिसमें शैतान के पैरों में ज़ंजीरे डाल दी जाती हैं। एसे में हमे इस सुअवसर से लाभ उठाते हुए रमज़ान से ईश्वर से अधिक से अधिक निकट होने के प्रयास करते रहना चाहिए ताकि उसी अनुपात में हम शैतान से दूर हो सकें।

नई टिप्पणी जोड़ें