आभार व्यक्त करना

आभार व्यक्त करना

इस्लामी शिक्षाओं में आभार के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है। हमें बताया गया है कि यदि कोई तुम्हारे साथ कोई भलाई करे या तुमपर कोई उपकार करे तो तुमको उसे भूलना नहीं चाहिए।

इंसान के साथ जो भलाई की जाती है उसे मनुष्य को कभी भूलना नहीं चाहिए बल्कि उसकी कोशिश यह होनी चाहिए कि वह उस उपकार का बदला दे। कभी-कभी एसा होता है कि उसके साथ की जाने वाली भलाई इतनी बड़ी या अधिक होती है कि मनुष्य चाहकर भी उसके बदले में कुछ नहीं कर पाता। एसे में उसे कम से कम ज़बान से उस भलाई के बदले धन्यवाद अवश्य करना चाहिए और यह सबसे छोटा बदला है अपने ऊपर किये गए उपकार का।

आभार व्यक्त करना एक स्वभाविक सा काम है जिसे बुद्धि भी स्वीकार करती है। मनुष्य की बुद्धि इस बात को मानती है कि जब उसके साथ भलाई की जाए तो कम से कम वह उसका आभार अवश्य व्यक्त करे। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अपने साथ की जाने वाली भलाई के बदले यदि मनुष्य आभार व्यक्त करता है तो वह बुद्धि के मार्ग पर चल रहा है अन्यथा एसा न करने की स्थिति में मनुष्य स्वभाविक एवं प्राकृतिक मार्ग से हटा हुआ माना जाएगा।

हमारे साथ जो लोग हमारे जीवन में भलाई करते हैं उनकी संख्या बहुत अधिक है जैसे माता-पिता, भाई-बहन, शिक्षक, पड़ोसी, रिश्तेदार या इसी प्रकार के बहुत से लोग। एसे में हमें उनका आभार अवश्य व्यक्त करना चाहिए। अब हमें यहां पर यह देखना है कि जब हम अपने जीवन में अन्य लोगों द्वारा किये गए उपकार का बदला देने में अक्षम हैं तो फिर हम किस प्रकार उस ईश्वर की अनुकंपाओं और विभूतियों का बदला कैसे अदा कर सकते हैं जिसने हमें जीवन जैसी अदभुत वस्तु के साथ ही असंख्य विभूतियां दी हैं। यदि हम अपने चारों ओर ध्यान दें तो पाएंगे कि हम ईश्वर की विभूतियों से घिरे हुए हैं। हमारे चारों और ईश्वर की विभूतियां मौजूद हैं चाहे वे अदृश्य ही क्यों न हों जैसे आक्सीजन जिससे हम लाभान्वित भी हो रहे हैं किंतु उसे देख नहीं पाते। विभूतियों के बदले आभार व्यक्त करने के बारे में ईश्वर कहता है कि यदि तुम आभार व्यक्त करोगे तो हम तुमको दी गई विभूतियों में बढ़ोत्तरी कर देंगे और यदि तुमने आभार व्यक्त नहीं किया तो मेरा दंड बहुत कठोर है।

यहां पर हमें यह बात समझ में आती है कि ईश्वर ने हमें सबकुछ देने के पश्चात हमसे केवल आभार व्यक्त करने की ही मांग की है। वह भी एसा आभार जिसके बदले में वह हमें सवाब या पुण्य देगा जो फिर हमारे ही हित में होगा। किसी भी विभूति या नेमत का सही आभार यह है कि उसका मौखिक आभार व्यक्त करने के अतिरिक्त उसका सदुपयोग किया जाए। वास्तविक आभार वस्तुओं का सदुपयोग है।

ईश्वर ने जो हमें भांति-भांति की वस्तुएं प्रदान की हैं उनमें से एक पवित्र रमज़ान भी है। इस पवित्र महीने में उसने हमें अपना मेहमान बनाया है। हमारी ईश्वर से प्रार्थना है कि वह हमें इस महीने से उचित ढंग से लाभान्वित होने की शक्ति प्रदान करे।

कहते हैं कि जब कभी कपड़ा ख़रीदना हो तो कपड़ा ख़रीदते समय उसे मुट्ठी में पकड़कर जोर से मसलना चाहिए। फिर मुट्ठी खोल देनी चाहिए और अब देखना चाहिए कि कपड़े की स्थित क्या है। यदि उसपर सिलवटों के निशान नहीं पड़े हैं तो समझ लेना चाहिए कि वह अच्छी क्वालिटी का है अन्यथा वह कपड़ा अच्छा नहीं है। इसी प्रकार कहा गया है कि वे लोग जो जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं के कारण बदल जाते हैं और उनके व्यवहार में परिवर्तन आ जाता है वे लोग श्रेष्ठ नहीं हो सकते। एसे लोग जीवन के उतार-चढ़ाव में सदैव ही आपको ईश्वर से शिकायत करते नज़र आएंगे। यह लोग इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि मनुष्य समस्याओं की भट्टी में ही सुदृढ़ होता है। जो लोग अपने जीवन में किसी स्थान पर पहुंचे हैं उन्होंने नाना प्रकार की कठिनाइयां सहन की हैं। उन्होंने कठिनाइयों से ही जीवन व्यतीत करने का पाठ सीखा है। पराजय से उन्होंने विजय प्राप्त करने का गुर सीखा है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जीवन में सफलता, कठिनाइयां सहन करने के पश्चात ही हाथ लगती है अतः जो लोग जीवन की समस्त कठिनाइयों के बावजूद अडिग दिखाई पड़ते हैं वे सराहनीय होते हैं और आदरणीय भी। एसे लोग सही जीवन व्यतीत करते हैं।     

पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन संसार के सर्वेश्रेष्ठ लोगों में से थे। यदि हम उनके जीवन पर दृष्टि डालें तो पता चलेगा इन लोगों ने अपने जीवन में कितनी अधिक कठिनाइयां सहन की हैं। जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि किसी भी ईश्वरीय दूत को मेरी भांति समस्याओं और कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा। इसके बावजूद कभी भी उनके व्यक्तिव में परिवर्तन देखने में नहीं आया। उन्होंने कभी भी ईश्वर से कोई शिकायत नहीं की बल्कि कठिनाइयों के समय ईश्वर के साथ उनका संपर्क अधिक होता था। उनका पूरा जीवन हमारे लिए आदर्श है।

एक बार हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि हे ईश्वर! तू मुझको अपने किसी निकटतम मित्र का परिचय करा। इसके जवाब में ईश्वर ने उनसे कहा कि अमुक स्थान पर जाओं वहां पर मेरा एक दोस्त है। हज़रत ईसा, बताए हुए स्थान पर गए। देखा कि वहां पर एक बुढ़िया है जो अंधी है। उसके हाथ-पैर भी नहीं हैं किंतु वह पड़ी हुई ईश्वर का आभार व्यक्त कर रही है। वह कह रही है कि हे ईश्वर तूने मुझको जो विभूतियां प्रदान की हैं मैं उनका आभार व्यक्त करती हूं।

उस बुढ़िया की स्थिति को देखकर हज़रत ईसा को बहुत आश्चर्य हुआ। वे उसके पास गए और उसे सलाम किया। बुढ़िया ने उनके सलाम के जवाब में कहा कि सलाम हो तुमपर हे रूहल्लाह। हज़रत ईसा मसीह ने कहा कि तुमको कैसे पता कि मैं ईसा हूं? उसने कहा कि हे ईसा, उसने ही मुझको तुम्हारे बारे में सबकुछ बताया जिसने तुमको यहां का पता बताया है। ईसा ने कहा कि न तो तुम्हारी आंखें हैं और न ही तुम्हारे हाथ-पैर। इसपर बुढ़िया ने कहा कि मैं ईश्वर का आभार व्यक्त करती हूं कि उसने मुझको एसी ज़बान दी जो उसका आभार व्यक्त करती है। मैं सदैव ईश्वर को याद करती हूं और उसका आभार व्यक्त करती हूं कि उसने मुझसे वह चीज़ें ले लीं जिनसे पाप किया जा सकता है। यदि हाथों, पैरों, और आंखों से मैं पाप के मार्ग पर बढ़ती तो मेरा क्या हाल होता? बस एसे में मैं ईश्वर का आभार व्यक्त करती हूं कि उसने मुझपर कृपा की है।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की दुआओं में से एक दुआ का नाम है मुनाजाते शाकेरीन अर्थात आभार व्यक्त करने वालों की प्रार्थना। इसके आरंभ में इमाम सज्जाद ईश्वर की प्रशंसा करते हुए उसका गुणगान करते हैं। उसके बाद वे ईश्वर को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर तेरी निरंतर अनुकंपाओं ने मुझको तेरा आभार व्यक्त करने से निश्चेत कर रखा है। तेरी विभूतियों के आभार के समक्ष मैं अक्षम हो चुका हूं। वास्तव में तेरी विभूतियों और अनुकंपाओं को गिनना संभव ही नहीं है।

कुछ लोगों का यह भी मानना है कि ईश्वर की अनुकंपाओ की पहचान न होने का एक कारण यह भी है कि उनकी संख्या बहुत अधिक है। क्योंकि ईश्वर की विभूतियों की संख्या बहुत है और वे निरंतर मनुष्य तक पहुंचती रहती हैं इसलिए उनका गिनना मानव के लिए संभव नहीं है और कभी-कभी यही विषय मनुष्य की ओर से आभार व्यक्त न करने का कारण भी बनता है। पवित्र कुरआन में ईश्वर स्वयं कहता है कि यदि ईश्वर की दी हुई नेमतों को यदि तुम गिनना चाहोगे तो भी तुम उनको गिन नहीं सकोगे। इन बातों से यह निष्कर्श निकाला जा सकता है कि ईश्वर ने मनुष्य को जो विभूतियां दी हैं वे अनगिनत है। मनुष्य की ओर से ईश्वरीय अनुकंपाओं पर आभार व्यक्त न करने के बारे में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मनुष्य को हर स्थिति में उसका आभार व्यक्त करना चाहिए क्योंकि ईश्वर की दी हुई अनुकंपाओं के बारे में यदि तुम सोच-विचार करोगे तो पाओगे कि वे तुम्हारे लिए कितनी आवश्यक और अनिवार्य हैं जबकि ईश्वर ने उन्हें तुमको निःशुल्क प्रदान किया है।

वे कहते हैं कि हम लाख चाहने के बाद भी ईश्वर का आभार व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि स्वयं आभार व्यक्त करने की क्षमता और योग्यता भी तो ईश्वर की ही देन है। अंत में यह कहा जा सकता है कि ईश्वर की अनुकंपाएं अनगिनत हैं जिन्हें गिनना असंभव है और मनुष्य को ईश्वरीय अनुकंपाओं का आभार अपने सामर्थ्य के हिसाब से अवश्यक व्यक्त करना चाहिए।

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