आसमाने इमामत का पहला चाँद डूब गया!
आसमाने इमामत का पहला चाँद डूब गया!
21 रमज़ान सन 40 हिजरी क़मरी को हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस नश्वर संसार पर अन्तिम बार दृष्टि डाली। उन्होंने अपने परिजनों को इकट्ठा करके वसीयत की और शांत हृदय से वे अपने पालनहार से जा मिले। हज़रत अली अलैहिस्सलाम यद्यपि दुष्ट इब्ने मुल्जिम की ज़हर से बुझी तलवार से शहीद हो गए किंतु उनका मार्ग सदा के लिए लोगों का मार्गदर्शक रहेगा।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक इस्लामी शिक्षाओं के प्रचार एवं प्रसार के लिए प्रयास करते रहे। अपने जीवन के अन्तिम महत्वपूर्ण क्षणों में उन्होंने जो वसीयत की है वह आने वाली पीढ़ियों के लिए पाठ है जिससे लाभ उठाना चाहिए।
अपनी वसीयत में वे कहते हैं कि हे मेरे सुपुत्र हसन! तुम और मेरी अन्य संतानों, मेरे परिजनों और जिस-जिस तक मेरा यह संदेश पहुंचे उनसब से मैं सिफ़ारिश करता हूं कि अपने जीवन में कभी भी तक़वे अर्थात ईश्वरीय भय को हाथ से न जाने दो। इस बात का प्रयास करो कि जीवन के अन्तिम समय तक ईश्वर के धर्म पर बाक़ी रहो। तुमसब मिलकर ईश्वर की रस्सी को मज़बूती से थाम लो। ईमान और ईश्वरीय पहचान के आधार पर तुम एकजुट रहो। मतभेदों से सदैव बचो क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि लोगों के मतभेदों को दूर करना और उन्हें सही मार्ग पर लाने जैसे कार्य को नमाज़ और रोज़े पर वरीयता प्राप्त है। जो चीज़ धर्म के लिए ख़तरनाक और हानिकारक है वह आपसी मतभेद हैं।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इन वाक्यों की व्याख्या करते हुए आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी लिखते हैं कि अपनी वसीयत के पहले भाग में इमाम अली ने पुनः तक़वे या ईश्वरीय भय पर बल देते हुए समझाया है कि यह सफलता की कुजी है और परलोक की यात्रा में मनुष्य का अच्छा साथी भी यही है। वे कहते हैं कि तक़वे से ही मनुष्य अपने जीवन में सफलताएं अर्जित कर सकता है। वे कहते हैं कि इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अनुशासन की ओर संकेत किया है। आयतुल्लाह शीराज़ी कहते हैं कि जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन की आवश्यकता होती है। उनका कहना है कि अनुशासनहीनता से सारे काम बिगड़ जाते हैं। अनुशासन के पालन से हर क्षेत्र में विकास और प्रगति संभव है। हमारी सृष्टि की व्यवस्था पूर्ण से अनुशासन पर ही निर्भर है। जिस प्रकार से अनुशासन का पालन न करने से व्यक्ति अपने जीवन में सफलता से वंचित रह जाता है उसी प्रकार से यदि किसी समाज में अनुशासन की कमी पाई जाएगी तो उसे भी नाना प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है।
आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी कहते हैं कि हज़रत अली ने अपनी वसीयत में जो यह कहा है कि लोगों के मतभेदों को दूर करना और उनकी सेवा उपासना से बढ़कर है तो उसका मुख्य कारण यह है कि यदि लोगों के मन में पाई जाने वाली शत्रुता और उनके मतभेदों को दूर नहीं किया जाएगा तो समाज में विघटन की प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी जो पूरे समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होगी। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि लोगों के बीच सुधार या उनकी समस्याओं का समाधान करना अच्छा काम है।
इसके बाद इमाम अली अलैहिस्सलाम सामाजिक, नैतिक और उपासना संबन्धी विषयों के बारे में कहते हैं कि अनाथों के अधिकारों का ध्यान रखो। एसा न हो कि वे भूखे रहें और अभिभावक के बिना रह जाएं। इसके बाद वे पड़ोसियों के संबन्ध में कहते हैं कि उनके साथ अच्छा व्यवहार करो और भलाई से पेश आओ क्योंकि स्वंय पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनके ध्यान रखने पर विशेष बल दिया है। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि इस्लाम में पड़ोसियों के अधिकारों का इतना अधिक ध्यान रखा गया है कि मुझको यह शक होने लगा कि संभवतः “इर्स” में भी वे भागीदार हैं। वास्तव में इस्लाम में पड़ोसी को विशेष महत्व प्राप्त है। इस्लाम में पड़ोसियों का ध्यान रखने और उनके अधिकारों को अदा करने पर बहुत बल दिया गया है।
इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि क़ुरआन पर अमल करने को न भूलना। कहीं एसा न हो कि क़ुरआन पर अमल करने में दूसरे तुमसे आगे निकल जाएं अर्थात तुम क़ुरआन की शिक्षाओं को व्यवहारिक बनाओ।
इस विषय को स्पष्ट करते हुए आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी कहते हैं कि एसा न हो कि हम केवल पवित्र क़ुरआन के पढ़ने तक सीमित रह जाएं और उसके मूल संदेश अर्थात उसकी बातें अपनाने को भूल जाएं और दूसरे उससे पाठ लेकर हमसे आगे निकल जाएं। उदाहरण स्वरूप दूसरे तो शिक्षा प्राप्त करके नए-नए अविष्कार करें और उससे लाभ उठाएं जबकि हम निरक्षरता का शिकार हो जाएं। वे अपने कामों में ईमानदारी से काम लें और हम एसा न कर सकें। दूसरे पढ़लिखकर आर्थिक दृष्टि से संपन्न हों और हम पिछड़पन तथा बेरोज़गारी का शिकार बनें। बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि इस प्रकार की बहुत सी समस्याएं वर्तमान समय में इस्लामी समाजों में पाई जाती हैं और विडंबना यह है कि इन समस्याओं के समाधान के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं किये जा रहे हैं।
आप फ़रमाते हैं कि अम्र बे मारुफ़ और नहीअज़ मुनकर को न छोड़ों अर्थात लोगों को बुरे काम करने से रोको और अच्छ काम करने का आदेश दो। इसे त्याग करने का परिणाम यह निकलेगा कि तुमपर अत्याचारी शासन करेंगे जो तुमपर हर प्रकार के अत्याचार करेंगे। एसे में तुम्हारे अच्छे भी यदि दुआ करेंगे तो उनकी दुआ नहीं सुनी जाएगी। अपने इस कथन के माध्यम से इमाम अली अलैहिस्सलाम यह समझाना चाहते हैं कि भले कामों का आदेश देना और बुराइयों से रोकना, एसे कार्य हैं जिनको छोड़ने से व्यक्ति और समाज दोनों को क्षति पहुंचती है। इस्लाम के इस अनिवार्य आदेश की अवहेला के दुष्परिणामों को वर्तमान काल में बहुत ही स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। चारों ओर फैला भ्रष्ट्चार इसका स्पष्टतम उदाहरण है।
अपनी वसीयत में हज़रत अली अलैहिस्सलाम आगे कहते हैं कि जान, माल और ज़बान से तुम ईश्वर के मार्ग में जेहाद करो और इसमे तनिक भी लापरवाही न करो। जान से जेहाद करने से तात्पर्य इस्लाम की रक्षा के लिए रणक्षेत्र में उपस्थित होना है। माल से जेहाद का अर्थ इस्लाम की रक्षा के लिए पैसा ख़र्च करना और आवश्यकता रखने वालों की आर्थिक सहायता करना है। दान-दक्षिणा भी इसी सूचि में आती है। ज़बान से जेहाद का अर्थ इस्लाम के प्रचार व प्रसार के लिए प्रयास करना है। यहां पर इस बात को स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि जेहाद के नाम का दुरूपयोग किसी भी स्थिति में और किसी भी स्थान पर वैध नहीं है। जेहाद बहुत पवित्र शब्द है और इसका अर्थ बहुत व्यापक है किंतु इसकों केवल मार-काट तक सीमित रखना और इस नाम से लोगों की हत्याएं करना किसी भी स्थिति में उचित नहीं है बल्कि यह इस्लामी शिक्षाओं के बिल्कुल विपरीत है। वर्तमान समय में कुछ आतंकवादी गुट इस्लाम के नाम पर जो जनसंहार कर रहे हैं और निर्दोष लोगों की हत्याएं कर रहे हैं उसे किसी भी रूप में जेहाद नहीं कहा जा सकता बल्कि यह जेहाद के नाम पर कलंक है।
इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम आपस में प्रेम और मित्रता की सिफ़ारिश करते हैं। इस्लाम में दोस्ती और प्रेम को बहुत महत्व प्राप्त है। इसके विपरीत मतभेदों और परस्पर दूरियों से बचने को कहा गया है। आपसी वैमनस्य को समाप्त करने को प्रेरित किया गाय है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जब दो मुसलमान आपस में एक दूसरे से नाराज़ होते हैं तो शैतान बहुत प्रसन्न होता है। किंतु जब वे दोनों फिर मिलते हैं तो वह अपने पैर पटकता है और क्रोधित होता है।
यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है कि यदि उनकी वसीयत को पूरे ढंग से अपने जीवन में उतार लिया जाए तो हम एक सफल जीवन व्यतीत कर सकेंगे बल्कि एक आदर्श जीवन गुज़ारेंगे। इमाम अली की वसीयत को अपनाकर लोक-परलोक दोनों में कल्याण प्राप्त किया जा सकता है। खेद की बात यह है कि अली जैसे महान व्यक्ति को पहचाना नहीं गया।
हे ईश्वर! रमज़ान के पवित्र महीने में तू हमें हज़रत अली अलैहिस्सलाम को उचित ढंग से पहचानने और उनकी शिक्षाओं को व्यवहारिक बनाने की शक्ति व सामर्थ्य प्रदान कर।
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