इस्लामी विचारधारा में न्यायायिक प्रक्रिया
इस्लामी विचारधारा में न्यायायिक प्रक्रिया
मध्यकालीन युग के दौरान जब यूरोपीय देश अज्ञानता और अंधविश्वास के अंधकार में फंसे हुए थे और अप्रचलित एवं अंधविश्वासी तरीक़ों के आधार पर लोगों को अपराधी ठहरा रहे थे, इस्लामी जगत में स्पष्ट और तार्किक नियमों और सिद्धांतों पर आधारित एक न्याय प्रणाली मौजूद थी। जिस दौरान यूरोप में इंसानों को कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे और उनके साथ ग़ुलामों की तरह व्यवहार किया जाता था, मुसलमान उससे शताब्दियों पूर्व इस्लामी न्याय प्रणाली के अंतरगत समानता एवं मानवीय सम्मान से लाभान्वित हो रहे थे। अंतिम ईश्वरीय धर्म के रूप में इस्लाम ने समाज में न्याय की स्थापना के लिए न्यायिक प्रणाली की स्थापना को ज़रूरी क़रार दिया है। न्याय के स्थान, उसके प्रारूप, न्याया के स्रोत और न्यायाधीश के बारे में इस्लाम का दृष्टिकोण अन्य धर्मों से बिल्कुल भिन्न है। इस्लामी समाज में न्याय प्रणाली को इस प्रकार रखा गया है कि लोगों की जान और माल और उनकी इज्ज़त अयोग्य एवं अनुचित हाथों में न पड़े, और व्यक्ति या समाज के अधिकारों के साथ किसी भी स्तर पर खिलवाड़ न हो।
इस्लाम के दृष्टिकोण में न्याया पर आधारित फ़ैसला सुनाना ईश्वर पर आस्था के बाद सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में से है। लोगों के अधिकारों की सुरक्षा और सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए इस्लाम ने न्यायिक प्रक्रिया को बहुत महत्व दिया है और उसे एक बड़ी अमानत क़रार दिया है। जैसा कि क़ुरान में उल्लेख है कि ईश्वर तुम्हें आदेश देता है कि अमानत उसके मालिकी को लौटा दो, और जब लोगों के बीच फ़ैसला सुनाओ तो न्याय करो, ईश्वर तुम्हें अच्छे उपदेश देता है, ईश्वर सुन्ने और देखने वाला है।
इस्लाम में फ़ैसला सुनाना एक ईश्वरीय पद है जिसे उसने अपने दूतों को प्रदान किया है, ईश्वरीय दूतों से यह उनके उत्तराधिकारियों और योग्य लोगों तक पहुंचा है। जिस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के कांधों पर मानव समाज के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी थी उसी तरह न्याय करना और फ़ैसला सुनाना भी ईश्वरीय जिम्मेदारी थी। वे इस्लाम के प्रचार प्रसार के अतिरिक्त लोगों के मतभेदों और झगड़ों को समाधान भी पेश किया करते थे।
हज़रत अली (अ) न्यायाधीश बनने के योग्य लोगों के बारे में मालिके अश्तर को लिखते हैं कि लोगों के बीच जो तुम्हारी नज़र में सर्वश्रेष्ठ हों उन्हें न्याय के लिए चुनो, ऐसे लोग कि जो लोगों के अधिक संपर्क से अंहकारी न बन जाएं और विरोधियों के आपस में टकराव से क्रोधित न हो उठें। अपनी ग़लतियों पर अड़े न रहें और अवगत होने के बाद सत्य की ओर पलटने में उन्हें कोई कठिनाई न हो, लालच को दिल से निकाल फेंकें और मामले को जांच पड़ताल में जल्दबाज़ी न करें, आशंकाओं में सबसे अधिक सावधानी बरतें तथा सुबूतों की प्राप्ति के लिए वे सबसे अधिक आग्रह करें। शिकायत करने वालों के निरंतर संपर्क से थक न जाएं, वास्तविकता का पता लगाने में सबसे अधिक धैर्य रखने वाले और शत्रुता के मामले में वास्तविकता को स्पष्ट करने में सबसे अधिक दृढ़ता रखते हों। ऐसे लोग कि जिन्हें अधिक प्रशंसा भी धोखा न दे और मीठी मीठी बातें उन्हें भटका न दें, इस प्रकार के लोग बहुत कम हैं।
न्यायाधीश बनना इस्लाम में बहुत ही महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील पेशों में से है। इसलिए कि न्याय और इंसाफ़ करना एक ऐसा विषय है जिसका स्रोत इस्लामी शासन है। एक मुसलमान न्यायाधीश को चाहिए कि वह हर प्रकार के पूर्वाग्रह एवं लाभ से ऊपर उठकर लोगों के बीच चाहे वह मुसलमान हों या ग़ैर मुसलमान न्याय करे, ताकि किसी का हक़ मारा न जाए। पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, न्यायाधीश की ज़बान आग के दो अंगारों के बीच होती है, यहां तक कि वह लोगों के बीच फ़ैसला सुनाए ताकि उसके भविष्य का निर्धारण हो, अगर वह न्याय करता है तो उसका भविष्य स्वर्ग है और अगर अन्याय करे तो नरक में जाएगा।
इसी प्रकार इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) न्यायाधीशों को चार समूहों में बांटते हैं, इनमें से तीन समूह नरक में और एक समूह स्वर्ग में जाएगा। वे फ़रमाते हैं कि जो कोई भी ग़लत फ़ैसला सुनाए और जानता हो कि उसने ग़लत फ़ैसला सुनाया है तो वह नरक में जाएगा। जो कोई ग़लत फ़ैसला सुनाए और वह नहीं जानता हो कि यह ग़लत है वह भी नरक में है। जो कोई बिना जाने बूझे निर्णय करे वह भी नरक में है। जिस व्यक्ति ने सही फ़ैसला सुनाया है और वह जानता है कि सही है, उसके लिए स्वर्ग है।
इसलिए इस्लाम की नज़र में न्यायाधीश को पूर्ण रूप से जांच के बाद, सोच समझकर और ठोस सुबूतों के आधार पर ही न्यायपूर्ण फ़ैसला देना चाहिए।
इस बात के दृष्टिगत कि न्यायाधीश का आदेश लोगों का भविष्य निर्धारित करता है, इसलिए स्पष्ट है कि अपने ग़लत फ़ैसले से वह जिसका अधिकार है समस्याएं उत्पन्न कर दे। अतः न्यायाधीश या क़ाज़ी को चाहिए कि वह ठोस सुबूतों के आधार पर अपना फ़ैसला सुनाए। हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं, जब मुझे पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने यमन में न्याय प्रक्रिया की ज़िम्मेदारी सौंपी तो हज़रत ने मुझ से सिफ़ारिश करते हुए फ़रमाया कि जब लोगों के बीच फ़ैसला सुनाओ तो दोनों पक्षों को सुनने से पहले कभी फ़ैसला नहीं सुनाना। मैंने इस आदेश को गांठ से बांध लिया और कभी भी आशंकित नहीं हुआ।
दूसरी ओर, न्यायाधीश को चाहिए कि वह धर्म में गहरी आस्था रखने और ज्ञान के अलावा, समस्त पक्षों के साथ समान व्यवहार करे। पैग़म्बरे इस्लाम अपनी एक हदीस में न्यायाधीशों से सिफ़ारिश करते हैं कि जो कोई भी लोगों के बीच फ़ैसला सुनाना चाहता है, तो उसे चाहिए उनके बीच प्रत्येक आयाम से न्याय करे, इस प्रकार कि नज़र डालने, इशारा करने और बैठने में भी उनके बीच अंतर न करे और उनमें से किसी एक से ज़ोर से न बोले लेकिन यह कि दूसरों के साथ भी ऐसा ही करे।
इस्लाम की दृष्टि में पीड़ित के अधिकार की प्राप्ति का इतना महत्व है कि न्यायाधीश को चाहिए कि उसे इंसाफ़ दिलाने के लिए शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ हो। फ़ैसला सुनाने के नियमों में से एक यह है कि फ़ैसला सुनाते समय न्यायाधीश को क्रोधित और भूखा नहीं होना चाहिए। इसलिए कि ग़ुस्से में इंसान अपना निंयत्रण खो बैठता है और भूख से ध्यान बटता है, इस प्रकार संभव है वह मामले की खोज बीन में पूरा ध्यान न लगा सके।
न्यायाधीश को आर्थिक रूप से और अन्य ज़रूरतों की दृष्टि से स्वाधीन होना चाहिए, यही कारण है कि इस्लाम में न्यायाधीश को मतभेद रखने वाले पक्षों से वेतन लेने का अधिकार नहीं है, बल्कि उसे राज्य कोष से वेतन मिलना चाहिए।
न्यायाधीश की निष्पक्षता को बनाए रखने के लिए इस्लाम उसे व्यापार करने से रोकता है। इसलिए कि संभव है व्यापारिक गतिविधियों के दौरान उसकी कुछ लोगों से जान पहचान हो जाए और उनके बीच दोस्ती हो जाए और न्याय प्रक्रिया के समय न्यायाधीश के फ़ैसले पर उसका प्रभाव पड़े। इस बारे में हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं, न्यायाधीश अगर व्यापार करेगा तो वह न्याय नहीं कर सकेगा।
इस्लाम में न्यायाधीश को बहुत महत्व दिया गया है। इस प्रकार से कि न्यायाधीश मामले की जांच और निर्णय लेने में स्वाधीन है और वह फ़ैसला सुनाने में किसी के आदेश का पालन नहीं करता है और न ही किसी शक्ति या अधिकारी के अधीन है। इस्लाम में न्यायाधीश को इस प्रकार की शक्ति प्रदान की गई है।
इस्लाम में फ़ैसला सुनाने की स्वाधीनता का मतलब, शासन और शासकों के मुक़ाबले में स्वाधीनता है। इस्लामी इतिहास में साहसी न्यायाधीशों ने किसी की शक्ति या पद से प्रभावित हुए बिना शासकों को अदालत में हाज़िर किया है और उनके ख़िलाफ़ आम लोगों की तरह मुक़दमा चलाया है। इस प्रकार की आश्चर्यचकित और गौरवपूर्ण कहानियों से इस्लामी इतिहास भरा पड़ा है। यहां तक तत्कालीन ख़लीफ़ा हज़रत अली (अ) अपना कवच हासिल करने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाते हैं और एक ग़ैर मुस्लिम के खिलाफ़ शिकायत करते हैं। स्पष्ट रूप से हज़रत अली (अ) का दावा सही होने के बावजूद क्योंकि उनके पास अपने दावे के लिए कोई दस्तावेज़ या सुबूत नहीं था, उनकी शिकायत रद्द कर दी जाती है, और न्यायाधीश उस ग़ैर मुस्लिम के हक़ में फ़ैसला सुना देता है। लेकिन वह व्यक्ति इस वास्तविकता से अच्छी तरह अवगत था कि वह कवच उसका नहीं है, हज़रत अली (अ) के इस व्यवहार और न्यायाधीश की स्वाधीनता से इतना प्रभावित होता है कि चिल्ला उठता है कि यह व्यवहार किसी आम व्यक्ति का नहीं हो सकता बल्कि यह आचरण ईश्वरीय दूतों का है, यह कह कर वह इस्लाम स्वीकार कर लेता है।
इस्लाम में न्यायाधीश का पद एक बहुत ही महत्वपूर्ण पद है, इसलिए कि न्यायाधीश सदैव कठिन परीक्षा से गुज़रता है। लेकिन जब न्यायाधीश ईश्वर से भय रखते हुए न्याय करता है और अत्याचार को दूर करने का कारण बनता है तो उसे उसका विशेष इनाम मिलता है। हज़रत अली इस संदर्भ में फ़रमाते हैं कि क़ाज़ी के सर पर ईश्वर का हाथ है, और वह ईश्वरीय कृपा की छाया में बैठता है, लेकिन अगर न्याय नहीं करता है तो ईश्वर उससे स्वयं समझता है।
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