रमज़ान का महीना और रिश्तेदारों के साथ अच्छा बर्ताव

रमज़ान का महीना और रिश्तेदारों के साथ अच्छा बर्ताव

इस्लामी शिक्षाओं का एक विषय “सेलए रह्म” है अर्थात अपने परिजनों से मेलजोल बनाए रखना।

पवित्र रमज़ान से संबन्धित पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम सज्जाद की दुआओं में से एक दुआ का आरंभ इस प्रकार है।  हे ईश्वर! इस महीने में तू मुझको इस बात की क्षमता प्रदान कर कि मैं अपने परिजनों के साथ भलाई कर सकूं और उनसे भेंट करूं।  मुझको अपने पड़ोसियों के साथ कृपा करने की शक्ति प्रदान कर।  हे ईश्वर! हमने यदि अपनी संपत्ति में कुछ हराम माल बढ़ा लिया है तो हमे उसे ज़कात के माध्यम से पवित्र करने की क्षमता प्रदान करे।  जो लोग हमसे दूर हो गए हैं उनसे संपर्क स्थापित करने की शक्ति मुझको दे।

 

इस्लाम में अपने परिजनों और मिलने वालों के साथ संपर्क बनाए रखने पर विशेष रूप से बल दिया गया है।  आपस में मतभेद करने और एक दूसरे से अलग-थलग रहने की बहुत आलोचना की गई है।  इस संदर्भ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कहना है कि एक-दूसरे से अलग-थलग रहने से बचो।  हमको यह बात याद रखनी चाहिए कि आपस में एक दूसरे से अलग रहने से जहां कमज़ोरी आती है वहीं पर मनुष्य का व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है।  यदि हम आपस में एक-दूसरे से संपर्क बनाए रखेंगे और संगठित रहेंगे तो हम एकता के बहुत से लाभों से लाभान्वित होंगे।  यदि मनुष्य अपने ही परिजनों से अलग-थलग रहे और उसके साथ भलाई न करे तो इससे उसको ही क्षति होगी। यहां पर परिजनों और मित्रों से मिलने का अर्थ यह नहीं है कि उनके साथ अवश्य भेंट वार्ताएं ही की जाएं बल्कि कहने का तातपर्य यह है कि उनके साथ संपर्क को विच्छेद न होने दिया जाए बल्कि जिस शैली में भी संभव हो उनके साथ संपर्क बनाए रखा जाए।  इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने आशूर की रात अपने परिवार वालों को एकत्रित करके उनसे कहा था कि मैं एसे किसी को भी नहीं जानता जिसने तुम्हारी भांति अपनों की सहायता की हो।  इससे यह ज्ञात होता है कि आपसी मेलजोल केवल खाने-पीने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वास्तविक मेलजोल यह है कि कठिन समस्याओं में एक-दूसरे का साथ दिया जाए।

 

एक व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में उपस्थित हुआ और कहने लगा कि हे ईश्वर के दूत! मेरे कुछ रिश्तेदार हैं जिनके साथ मैं अच्छा व्यवहार करता हूं।  मैं उनके साथ संपर्क बनाए रखात हूं किंतु वे लोग मुझको परेशान करते हैं।  अब मैंने यह निर्णय कर लिया है कि उनके साथ अपने संबन्ध तोड़ लूं।  उसकी यह बात सुनकर पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि एसे में ईश्वर भी तुमको छोड़ देगा।  यह सुनकर वह बोला कि फिर मैं क्या करूं? पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा कि जिसने भी तुमको वंचित किया है तुम उसको प्रदान करो।  जिसने तुमसे संबन्ध तोड़ लिए हैं उनसे तुम संपर्क बनाओ।  जिसने तुमपर अत्याचार किया है उसे अनदेखा कर दो।  अगर तुमने एसा किया तो फिर ईश्वर तुम्हारे साथ होगा।

वास्तव में जनसेवा, एक बहुत बड़ी उपासना है।  एसे में केवल आर्थिक सहायता को ही जनसेवा नहीं कहा जाता बल्कि मनुष्य की जिस प्रकार से भी संभव हो उसकी सहायता की जाए।  दूसरों को प्रसन्न करना भी एक प्रकार से भला कार्य है।  इस बारे में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि कोई व्यक्ति किसी की छोटी से छोटी समस्या का भी समाधान करता है तो ईश्वर उसको दस अच्छाइयां प्रदान करता है।  जो कोई भी दूसरे से प्रसन्नचित मुद्रा में मिलता है उसे एक भलाई प्रदान की जाती है।

 

ईरान में एक बहुत महान साधक या तपस्वी गुज़रे हैं जिनका नाम है शेख रजब अली ख़य्यात है।  एक बार एक युवा उनकी सेवा में उपस्थित हुआ।  वह वास्तव में एक इंजीनियर था।  उसने हाल ही में कुछ घर बनाए थे।  घर बनने के बाद बिक नहीं रहे थे।  इस बात से वह बहुत परेशान था क्योंकि इन घरों के बनवाने में वह बहुत ज़्यादा क़र्जदार हो गया था।  लोग उससे अपने पैसे मांग रहे थे।  उनके पैसे न देने के कारण वह युवा इंजीनियर बहुत दुखी और हताश था।  बात इतनी बढ़ गई थी कि उसकी गिरफ़्तारी का वारेंट जारी हो चुका था।  उस इंजीनियर ने शेख़ रजबअली ख़य्यात से कहा कि पुलिस मेरी तलाश में है।  अब तो मैं अपने घर भी नहीं जा सकता।  आप बताइये कि मैं क्या करूं जिससे मेरी मुश्किल हल हो सके।  जवान इंजीनियर की बात सुनकर शेख रजब अली ख़य्यात कुछ देर सोचते रहे फिर उन्होंने उससे कहा कि जाओ तुम अपनी बहन को मनाओ।  इंजीनियर ने कहा कि मेरी बहन मुझसे नाराज़ नहीं है।  रजब अली ने कहा कि नहीं एसा नहीं है तुम जाकर वही करो जो मैंने कहा है।  इतना सुनने के बाद इंजीनियर ने कहा कि हां आप सही कह रहे हैं।  अपने पिता की मृत्यु के पश्चात मैंने अपनी बहन को उसका हिस्सा नहीं दिया था।  हो सकता है इसलिए वह मुझसे नाराज़ हो।  फिर वह अपनी बहन के पास गया और उसने बहन के हिस्से का पैसा उसे दे दिया।  अब वह रजबअली के पास आया और बोला कि मैंने उसे राज़ी कर लिया है।  शेख रजबअली, इंजीनियर की बात सुनकर कुछ देर चुप रहे फिर बोले कि तुम्हारी बहन अभी भी तुमसे राज़ी नहीं है।  क्या उसके पास घर है? इंजीनियर ने कहा कि नहीं वह किराये पर रहती है।  रजबअली ने कहा कि जाओ तुमने जो घर बनाए हैं उनमें से एक घर अपनी बहन को देदो।  इंजीनियर ने जाकर एक घर अपनी बहन के हवाले कर दिया।  जब इंजीनियर वापस आया तो उसने बताया कि मैंने एक घर अपनी बहन को दे दिया है।  यह सुनकर शेख़ रजबअली ने कहा कि अब ठीक है।  जाओ तुम्हारी समस्या का समाधान हो जाएगा।  अगले कुछ ही दिनों में इंजीनियर के सारे घर बिक गए और उसकी समस्या का समाधान हो गया।

सूरए नेसा की आयत संख्या 36 में ईश्वर कहता है कि और ईश्वर की उपासना करो और किसी को उसका भागीधार न ठहराओ और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो और इसी प्रकार निकट परिजनों, अनाथों, मुहताजों, निकट और दूर के पड़ोसी, साथ रहने वाले, राह में रह जाने वाले यात्री और अपने दास-दासियों सबके साथ भला व्यवहार करो। नि:संदेह ईश्वर इतराने वाले और घमंडी लोगों को पसंद नहीं करता।

ईश्वर पर भरोसे का एक फल प्रेम है।  जब किसी को ईश्वर की पहचान हो जाती है तो उसे यह विश्वास हो जाता है कि समस्त अनुकंपाएं ईश्वर की ओर से हैं चाहे वे भौतिक हो या आध्यात्मिक।  इसीलिए वह सृष्टिकर्ता से दिल की गहराई से प्रेम करता है।  उसका यह प्रयास रहता है कि जिसे वह चाहता है उसीकी इच्छानुसार कार्य करे।  इस कार्य के माध्यम से वह उसके ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट कराना चाहता है।  इसी संदर्भ में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम अपनी एक दुआ में कहते हैं कि हे ईश्वर! मेरी तुझसे विनती है कि तू मेरे मन में अपने प्रेम को भर दे।  मैं उनसे भी प्रेम करना चाहता हूं जो तुझको पसंद करते हैं।

इसके विपरीत वे लोग जिन्होंने ईश्वर के प्रेम का स्वाद चखा है उनके लिए ईश्वर से दूरी असहनीय बात है।  इस बारे में इमाम ज़ैनुल आबेदीन कहते हैं कि हे ईश्वर! तू अपने आपसे उसे कैसे दूर कर सकता है जो तुझसे प्रेम करता है।  तू मुझको कैसे अपनी अनुकंपाओं से वंचित रखेगा जबकि मैंने तेरी कृपा से आस लगा रखी है।  इमाम सज्जाद के यह वाक्य, ईश्वर के प्रति उनके हार्दिक लगाव को दर्शाते हैं।  इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम इस बिंदु पर बल देते हैं कि ईश्वर की उपसना में हमें अपनी समस्त इंद्रियों का प्रयोग करना चाहिए।  मोमिन का यह मानना है कि अपने शरीर की इंद्रियों को ईश्वर के आदेश की अवहेलना में प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि यह पाप है।  जिस प्रकार से मनुष्य आग की ओर हाथ बढ़ाने से बचता है उसी प्रकार से उसे पाप करने से भी बचना चाहिए क्योंकि पाप भी एक प्रकार की आग है।  पाप एसी ज्वाला की भांति है जो मनुष्य के भीतर मौजूद ईमान की भावना को जलाकर भस्म कर देता है।  वास्तव में मनुष्य को पापों से यथासंभव बचना चाहिए।  इस कार्य के लिए पवित्र रमज़ान का महीना सर्वोत्तम है।  इस महीने में मनुष्य, रोज़े जैसे उपकरण के माध्यम से पाप का सिर कुचल सकता है।

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