नमाज़ और क़ुरआन

नमाज़ और क़ुरआन

नमाज़ का बाक़ी रहना क़ुरआन का बाक़ी रहना है। क्योंकि हर नमाज़ी मजबूर है कि हर रोज़ अपनी सतरह रकत नमाज़ों मे दस मर्तबा सूरए हम्द पढ़े। और क्योंकि सूरए हम्द मे सात आयात हैं इस लिए हर रोज़ क़ुरआन की सत्तर आयात पढ़ने पर मजबूर है। और हम्द के बाद जो दूसरी सूरत पढ़ता है उसमे भी चन्द आयात हैं। मसलन अगर सूरए तौहीद को ही पढ़ा जाये तो इसमे पाँच आयात हैं। इस तरह अगर दस रकतों मे यह दस बार पढ़ी जाये तो पचास आयात की तिलावत और होगी। इस तरह एक नमाज़ी दिन रात मे तक़रीबन 120 आयात की तिलावत करेगा।

हर रोज़ इतनी आयात की तिलावत से एक तो क़ुरआन महजूरियत से बचाता है। दूसरे यह कि समाज मे क़ुरआन और इंसान के दरमियान राबिता बढ़ाता है। अब आगे बढ़ते हैं कि कभी कभी इंसान सूरए तौहीद की जगह किसी दूसरी सूरत को भी पढ़ता है जो क़ुरआन की सूरतों के हिफ़्ज़ करने का सबब बनता है।

इसके अलावा क़ुरआने करीम मे कई मक़ामात पर क़ुरआन और नमाज़ का ज़िक्र एक साथ हुआ है। मसलन सूरए फ़ातिर की 29वी आयत मे इरशाद होता है कि जो क़ुरआन की तिलावत करते हैं और नमाज़ क़ाइम करते हैं। सूरए आराफ़ की 170वी आयत मे इरशाद होता है कि वह लोग क़ुरआन से तमस्सुक रखते हैं और नमाज़ क़ाइम करते हैं। यह सही है कि क़ुरआन और नमाज़ ज़ाहिर और बातिन मे एक साथ हैं।

नई टिप्पणी जोड़ें