रमज़ान तौबा और इस्तेग़फ़ार का महीना

रमज़ान तौबा और इस्तेग़फ़ार का महीना

रमज़ानुल मुबारक में हर दिन पढ़ी जाने वाली दुआओं में, एक दुआ में हम पढ़ते हैं

’’ وَ هٰذَا شَهرُالإِنَابَةِ وَ هٰذَا شَهرُ التَّوبَةِ وَ هٰذَا شَهرُ العِتقِ مِنَ النَّارِ‘‘

यह ख़ुदा की ओर लौटने का महीना है, यह तौबा करने का महीना है और यह जहन्नम की आग से छुटकारा पाने का महीना है।

इस्तेग़फ़ार क्या है?

इस्तेग़फ़ार का मतलब है ख़ुदा से अपने गुनाहों की माफ़ी मांगना। अगर इस्तेग़फ़ार सही तरीक़े से किया जाए तो ख़ुदा की रहमत के दरवाज़े इन्सान के लिये खुल जाएंगे। एक इन्सान को और इन्सानी समाज को ख़ुदा की ओर से जिन चीज़ों की ज़रूरत है जैसे ख़ुदा की रहमत, उसका नूर, उसकी हिदायत, उसकी तौफ़ीक़, कामों में सहायता, जीवन के एम्तेहान में सफलता और इस तरह की दूसरी चीज़ें, गुनाहों के कारण उनका रास्ता बंद हो जाता है, गुनाह हमारे और ख़ुदा के बीच ख़ुदा की ओर से मिलने वाली उन सारी चीज़ों के बीच रुकावट बन जाते हैं। इस्तेग़फ़ार इस रुकावट को हटा देती है और ख़ुदा की रहमत के सारे रास्ते और दरवाज़े खुल जाते हैं, यह है इस्तेग़फ़ार का फ़ायदा। क़ुरआने करीम की बहुत सी आयतों में भी इस्तेग़फ़ार के बहुत से फ़ायदे बयान किये गए हैं, जैसे एक आयत में है-

’’وَیَا قَوْمِ اسْتَغْفِرُواْ رَبَّكُمْ ثُمَّ تُوبُواْ إِلَیْهِ یُرْسِلِ السَّمَاء عَلَیْكُم مِّدْرَارًا‘‘(سورہ ہود۔۵۲)

अपने ख़ुदा से गुनाहों की माफ़ी मांगिये और फिर उसकी ओर लौट आइये। वह आपके लिये आसमान से लगातार तेज़ बारिश बरसाएगा।

और इस तरह की दूसरी आयतें जिनसे यह समझ में आता है कि बहुत सी चीज़ें इस्तेग़फ़ार (गुनाहों की माफ़ी मांगने) से एक मुसलमान को या इस्लामी समाज को मिलती हैं। इसलिये इस्तेग़फ़ार का बहुत ज़्यादा महत्व है।

गुनाह नाकामियों का कारण

तौबा ख़ुदा की ओर लौटने को कहते हैं और तौबा का एक भाग इस्तेग़फ़ार है। ख़ुदा की ओर लौटने के लिये सबसे पहले गुनाहों की माफ़ी मांगने की ज़रूरत है। ख़ुदा की एक बहुत बड़ी नेमत यही है कि उसनें तौबा का दरवाज़ा अपने बंदों के लिये खोल रखा है ताकि गुनाहों की वजह से किसी खाई में गिर न पड़ें बल्कि संभल कर फिर से आगे बढ़ें। गुनाह इन्सान को ऊँचाई से नीचे गिराता है लेकिन इस्तेग़फ़ार उसे दोबारा ऊपर उठाता है और उसे फिर से आगे बढ़ने का मौक़ा देता है। इसी इस्तेग़फ़ार की वजह से इन्सान जानवरों जैसा या उनसे भी नीच बनने से बच सकता है वरना गुनाह इन्सान की आत्मा को, उसके अन्दर की पवित्रता को और उसके शीशे जैसे साफ़ दिल को ज़ंग लगा देता है। इसके अलावा दुनिया में बहुत से मैदान हैं जिन में इन्सान गुनाहों की वजह से पीछे रह जाता है, बहुत सी नाकामियां गुनाहों के कारण होती हैं। यह केवल शब्दों का खेल नहीं है बल्कि एक ऐसी वास्तविकता है जिसे लोग अपने जीवन में ख़ुद देखते हैं और साइंस इन चीज़ों को साबित करती है। गुनाह इन्सान को किस तरह पराजित करता है? जैसे जंगे ओहद में कुछ मुसलमानों की सुस्ती और लापरवाही की वजह से जीती हुई जंग हार गए। पहले मुसलमानों की जीत हुई, लेकिन बाद में क्या हुआ कि जिन सिपाहियों को एक पहाड़ी पर रोके रखा गया था और उनसे कहा गया था कि वह दुश्मन पर नज़र रखें उन्होंने माल की लालच में पहाड़ी को छोड़ दिया और दुश्मन नें इसका फ़ायदा उठाकर पीछे से उन पर हमला किया, जिससे मुसलमान बौखला गए और थोड़ी देर के लिये उनकी हार हो गई। क़ुरआने करीम में 10-12 आयतों में इस घटना को बयान किया गया है और मुसलमानों की इस पराजय के असली कारण को बताया है।

’’ إِنَّ الَّذِینَ تَوَلَّوْاْ مِنكُمْ یَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعَانِ إِنَّمَا اسْتَزَلَّهُمُ الشَّیْطَانُ بِبَعْضِ مَا كَسَبُواْ‘‘(سورہ آل عمران۔۱۵۵)

आयत कहती है, उनके पैर इस कारण लड़खड़ाए क्योंकि शैतान नें उनके कुछ कामों (गुनाहों) की वजह से उन्हें बहकाया और वह बहक गए। गुनाह इन्सानों को किसी भी मैदान में नाकाम कर सकता है और उसके पैर लड़खड़ा सकते हैं चाहे वह जंग का मैदान हो, सियासत का मैदान हो दुश्मन के साथ मुक़ाबले का मैदान हो, हर वह जगह जहाँ डटे रहना ज़रूरी है, जहाँ बहुत सूझ बूझ की ज़रूरत है, जहाँ इन्सान को फ़ौलाद बन के रहना होता है, वहाँ गुनाह इन्सान को नाकाम कर सकता है। हालांकि यह उन गुनाहों की बात है जिनके लिये इन्सान नें इस्तेग़फ़ार न किया हो, जिनकी माफ़ी न मांगी हो। और जिन गुनाहों के लिये सच्ची माफ़ी मांगी जा चुकी हो वह इन्सान को गिरने नहीं देते बल्कि गिरे हुए इन्सान को उठाते हैं। इसी सूरे में ख़ुदा फ़रमाता है-

’’وَكَأَیِّن مِّن نَّبِیٍّ قَاتَلَ مَعَهُ رِبِّیُّونَ كَثِیرٌ فَمَا وَهَنُواْ لِمَا أَصَابَهُمْ فِی سَبِیلِ اللّهِ وَمَا ضَعُفُواْ وَمَا اسْتَكَانُواْ‘‘

तुम्हे क्या हो गया है? जंग में कुछ लोग मारे गए और कुछ देर के लिये तुम्हारी पराजय हो गई तो उसके कारण तुम निराश हो गए हो? पिछले पैग़म्बरों के ज़माने में भी इस तरह की घटनाएं होती रहती थीं लेकिन वह कभी कमज़ोर नहीं होते थे या हार नहीं मानते थे, जब किसी भी जंग में वह कठिनाइयों में फँसते थे तो दुआ और इस्तेग़फ़ार करते थे।

’’وَمَا كَانَ قَوْلَهُمْ إِلاَّ أَن قَالُواْ ربَّنَا اغْفِرْ لَنَا ذُنُوبَنَا وَإِسْرَافَنَا فِی أَمْرِنَا‘‘(سورہ آل عمران ۔۱۴۷)

ख़ुदाया हमारे गुनाहों को, हमारी सुस्ती को और हमारी ग़लतियों को माफ़ कर दे। इससे मालूम होता है कि गुनाह बहुत सी जगहों पर नाकामियों का और कठिनाइयों का कारण बनते हैं। इसलिये गुनाहों के लिये इस्तेग़फ़ार बहुत ज़रूरी है।

गुनाहों का परिणाम

दुनिया की लालच, पैसों की लालच, ग़लत इच्छाओं, ईर्ष्या, नफ़रत और इस तरह की चीज़ों के कारण इन्सान जो गुनाह करता है उनके दो तरह के परिणाम होते हैं। एक उसका रूहानी असर है यानी इन्सान की रूह ज़ख़्मी होती है, रूह की रौशनी मध्यम होती है, इन्सान के अन्दर रूहानियत (आध्यात्मिकता) कम हो जाती है और ख़ुदा की रहमत के दरवाज़े बंद हो जाते हैं। दूसरा असर यह है कि इन्सान के जीवन में रोज़ाना के कामों में उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, बहुत सी जगहों पर नाकामियां होती हैं, वह जगह जहाँ इन्सान को मज़बूत बन के रहना चाहिये वहाँ उसका इरादा कमज़ोर पड़ने लगता है और उसके पैर लड़खड़ाने लगते हैं। इस परिणाम से बचने का रास्ता क्या है? इसका रास्ता ख़ुद ख़ुदा नें बताया है। अगर किसी नें गुनाह किया, उस से ग़लती हो गई तो उसे मायूस नहीं होना चाहिये बल्कि तौबा का, इस्तेग़फ़ार का दरवाज़ा खुला है, उसका तरीक़ा यह है कि सबसे पहले इन्सान को गुनाह के लिये पश्चयाताप हो, दोबारा गुनाह न करने का इरादा हो, और फिर उस गुनाह की माफ़ी मांगे। अगर इन्सान सच्चे दिल से ख़ुदा की ओर आए तो ख़ुदा नें यह दरवाज़ा हमेशा खुला रखा है। सहीफ़ए सज्जादिया की दुआ 45 में इमाम सज्जाद अ. फ़रमाते हैं-

’’ أَنتَ الَّذِى فَتَحتَ لِعِبَادَكَ بَاباً إِلىٰ عَفوِكَ‘‘

ख़ुदाया, तूने अपने बंदों के लिये गुनाहों की माफ़ी मांगने का दरवाज़ा हमेशा खोल रखा है

’’وَ سَمَّتَہُ بِا التَّوبَۃِ‘‘

और उसका नाम तौबा रखा है।

’’وَ جَعَلتَ عَلىٰ ذَلِكَ البَابَ دَلِیلاً مِن وَحیِكَ لِئلاَّ یَضِلُّوا عَنهُ‘‘

और उसे अपनी किताब क़ुरआने मजीद में भी बताया ताकि तेरे बंदे यह बात भूल न जाएं और इस दरवाज़े को खो न दें.

’’فَمَا عُذرُ مَن اَغفَلَ دُخُولَ ذَلِكَ المَنزِلَ بَعدَ فَتحَ البَابِ وَ إِقَامَةِ الدَّلِیلِ‘‘

अब जो इन्सान तौबा और इस्तेग़फ़ार का दरवाज़ा खुला होने के बाद भी उसके अन्दर न आए तो उसका क्या होगा? उसके पास क्या बहाना है?

रसूले अकरम स. की एक हदीस में है-

’’إِنَّ‌اللَّهَ تَعَالىٰ یَغفِرُ للِمُذنِبِینَ إِلّاَ مَن لَایُریدُ أَن یَّغفِرَ لَه‘‘

ख़ुदा हर गुनाह करने वाले को माफ़ करता है मगर यह है कि कोई ख़ुद से यह चाहे कि उसे माफ़ न किया जाए। आपके असहाब को यह सुनकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा-

’’قَالُوا یَا رَسُولُ‌اللَّهِ مَنِ الَّذِى یُرِیدُ أَن لَّایُغفَرُ لَه‘‘

वह कौन होगा जो नहीं चाहता कि ख़ुदा से माफ़ न करे? फ़रमाया-

’’قَالَ مَن لَایَستَغفِرُ‘‘

जो अपने गुनाहों की माफ़ी नहीं मांगता। इससे मालूम होता है कि इस्तेग़फ़ार तौबा के दरवाज़े की चाभी है। अगर इन्सान ख़ुदा की ओर जाना चाहता है और तौबा के दरवाज़े से अन्दर जाना चाहता है, इसके लिये ज़रूरी है कि वह पहले इस्तेग़फ़ार की चाभी अपने साथ लेकर जाए।

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