आय ए बल्लिग़ के बारे में शियों का अक़ीदा
आय ए बल्लिग़ के बारे में शियों का अक़ीदा
يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ وَاللّهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ إِنَّ اللّهَ لاَ يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ
(सूरा मायदा आयत 67)
शिया इस बात पर अक़ीदा रखते हैं कि आय ए बल्लिग़ हज़रत अली (अ) की विलायत और आपकी इमामत के बारे में है और (आयत) का मिसदाक़ हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत है क्योकि:
1. ख़ुदा वंदे आलम ने इस सिलसिले में इतना अधिक प्रबंध किया कि अगर इस हुक्म को न पहुचाया तो गोया पैग़म्बर ने अपनी रिसालत ही नही पहुचाई और यह कार्य हज़रत अली (अ) की श्रेष्ठता, इमामत और जानशीनी के अलावा कुछ नही था और यह पद यानी जानशीनी जो अली को मिला है उसमें पैग़म्बर की सारी ज़िम्मेदारियां और दायित्व भी शामिल हैं सिवाय वहयी के।
2. उल्लेखित आयत से यह नतीजा प्राप्त होता है कि रसूले ख़ुदा के लिये इस अम्र का पहुचाना कठिन था क्यो कि इस चीज़ का भय पाया जाता था कि कुछ लोग इस आदेश का विरोध करेंगें और विरोध एवं मतभेद के नतीजे में आँ हज़रत (स) की 23 साल की मेहनत पर पानी फिर जायेगा और यह मतलब (जैसा कि अगर इतिहास को ध्यान पूर्वक देखा जाए तो पता चलता है) हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की विलायत के ऐलान के अतिरिक्त और कुछ नही था।
क़ुरआनी आयात के संक्षिप्त अध्ययन के बाद मालूम हो जाता है कि रसूले अकरम (स) को ईश्वर की तरफ़ से नबूवत दी गई थी और आप अपने इस कार्य के लिए दृण संकल्प थे और ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से आपको धैर्य रखने और अपने कार्य पर डटे रहने का आदेश मिला था। इसी वजह से आँ हज़रत (स) ने दीने ख़ुदा के प्रचार और ईश्वरीय पैग़ाम को पहुचाने में कोताही नही की है और कभी भी लोभ और बहकावे में नहीं आये और न ही कभी आपने विरोधियों के सामने अपना सर झुकाया। पैग़म्बरे अकरम (स) ने पैग़ामाते इलाही को पहुचाने में ज़रा भी कोताही नही की। यहाँ तक कि आपने उन चीज़ों को पहुंचा ने में भी कोई कोताही नहीं की जो देखने और समाजिक रूप से कठिन थे जैसे ज़ौज ए ज़ैद जै़नब का वाक़ेया और मोमिनीन से हया का मसला या मज़कूरा आयत को पहुचाने का मसला, उन तमाम मसायल में आँ हज़रत (स) को अपने लिये कोई ख़ौफ़ नही था।
وَإِذْ أَخَذْنَا مِنَ النَّبِيِّينَ مِيثَاقَهُمْ وَمِنكَ وَمِن نُّوحٍ وَإِبْرَاهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ ۖ وَأَخَذْنَا مِنْهُم مِّيثَاقًا غَلِيظًا
सूरए अहज़ाब आयत 7
فَلَعَلَّكَ تَارِكٌ بَعْضَ مَا يُوحَىٰ إِلَيْكَ وَضَائِقٌ بِهِ صَدْرُكَ أَن يَقُولُوا لَوْلَا أُنزِلَ عَلَيْهِ كَنزٌ أَوْ جَاءَ مَعَهُ مَلَكٌ ۚ إِنَّمَا أَنتَ نَذِيرٌ ۚ وَاللَّـهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ وَكِيلٌ
सूरए हूद आयत 12
وَإِذَا تُتْلَىٰ عَلَيْهِمْ آيَاتُنَا بَيِّنَاتٍ ۙ قَالَ الَّذِينَ لَا يَرْجُونَ لِقَاءَنَا ائْتِ بِقُرْآنٍ غَيْرِ هَـٰذَا أَوْ بَدِّلْهُ ۚ قُلْ مَا يَكُونُ لِي أَنْ أُبَدِّلَهُ مِن تِلْقَاءِ نَفْسِي ۖ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰ إِلَيَّ ۖ إِنِّي أَخَافُ إِنْ عَصَيْتُ رَبِّي عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيمٍ
सूरए युनुस आयत 15
وَإِذْ تَقُولُ لِلَّذِي أَنْعَمَ اللَّـهُ عَلَيْهِ وَأَنْعَمْتَ عَلَيْهِ أَمْسِكْ عَلَيْكَ زَوْجَكَ وَاتَّقِ اللَّـهَ وَتُخْفِي فِي نَفْسِكَ مَا اللَّـهُ مُبْدِيهِ وَتَخْشَى النَّاسَ وَاللَّـهُ أَحَقُّ أَن تَخْشَاهُ ۖ فَلَمَّا قَضَىٰ زَيْدٌ مِّنْهَا وَطَرًا زَوَّجْنَاكَهَا لِكَيْ لَا يَكُونَ عَلَى الْمُؤْمِنِينَ حَرَجٌ فِي أَزْوَاجِ أَدْعِيَائِهِمْ إِذَا قَضَوْا مِنْهُنَّ وَطَرًا ۚ وَكَانَ أَمْرُ اللَّـهِ مَفْعُولًا
सूरए अहज़ाब आयत 37
ا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَدْخُلُوا بُيُوتَ النَّبِيِّ إِلَّا أَن يُؤْذَنَ لَكُمْ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيْرَ نَاظِرِينَ إِنَاهُ وَلَـٰكِنْ إِذَا دُعِيتُمْ فَادْخُلُوا فَإِذَا طَعِمْتُمْ فَانتَشِرُوا وَلَا مُسْتَأْنِسِينَ لِحَدِيثٍ ۚ إِنَّ ذَٰلِكُمْ كَانَ يُؤْذِي النَّبِيَّ فَيَسْتَحْيِي مِنكُمْ ۖ وَاللَّـهُ لَا يَسْتَحْيِي مِنَ الْحَقِّ ۚ وَإِذَا سَأَلْتُمُوهُنَّ مَتَاعًا فَاسْأَلُوهُنَّ مِن وَرَاءِ حِجَابٍ ۚ ذَٰلِكُمْ أَطْهَرُ لِقُلُوبِكُمْ وَقُلُوبِهِنَّ ۚ وَمَا كَانَ لَكُمْ أَن تُؤْذُوا رَسُولَ اللَّـهِ وَلَا أَن تَنكِحُوا أَزْوَاجَهُ مِن بَعْدِهِ أَبَدًا ۚ إِنَّ ذَٰلِكُمْ كَانَ عِندَ اللَّـهِ عَظِيمًا
सूरए अहज़ाब आयत 53
इन आयतों में जिन मसाएल की तरफ़ इशारा किया गया है यह वह मसले थे ज़ाहिरी तौर पर जिनका पहुंचाना बहुत कठिन था लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम ने इसके बावजूद बिना किसी हिचक के यह पैग़ाम लोगों तक पहुंचा दिया।
लेकिन आयते बल्लिग़ के पहुंचाने का जब आदेश आया तो पैग़म्बर ने झिझक दिखाई और आपको ख़ौफ़ महसूस हुआ लिहाज़ा पैग़म्बरे अकरम (स) की परेशानी और ख़ौफ़ को दूसरी जगह तलाश करना चाहिये और वह इस पैग़ाम के पहुंचाने पर मुनाफ़ेक़ीन द्वारा झुटलाए जाने के ख़तरनाक नतायज और आँ हज़रत (स) के बाज़ असहाबियों की प्रतिक्रिया के ग़लत प्रभाव धे जिनकी वजह से उनके आमाल ज़ब्त हो गये और मुनाफ़ेक़ीन के निफ़ाक़ व क़ुफ्र में इज़ाफ़ा हो जाता और दूसरी तरफ़ उनकी तकज़ीब व क़ुफ्र की वजह से रिसालत को आगे बढ़ना यहाँ तक कि अस्ले रिसालत नाकाम रह जाती और दीन ख़त्म हो जाता।
3. आय ए इकमाल की शाने नुज़ूल के बारे में शिया और सुन्नी तरीक़ों से सहीहुस सनद रिवायात बयान हुई हैं कि यह आयत हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) के बारे में नाज़िल हुई हैं।
नतीजा यह हुआ कि आयते बल्लिग़ से हज़रत अली (अ) की विलायत मुराद है जिसको पहुचाने का हुक्म आँ हज़रत (स) को दिया गया था
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