हक़म बनाने के सिलसिले में इमाम अली का ख़ुत्बा

हक़म बनाने के सिलसिले में इमाम अली का ख़ुत्बा

[ तह्कीम (फ़ैसला करने वाले) के बारे में फ़रमाया ]

हम ने आदमियों को नहीं बल्कि क़ुरआन को हकम क़रार दिया था, चूंकि यह क़ुर्आन दो दफ़्तियों के दरमियान एक लिखी हुई किताब है कि जो ज़बान से बोला नहीं करती। इस लिये ज़रूरत थी कि इस के लिये कोई तर्जुमान (अनुवादक) हो, और वह आदमी ही होते हैं, जो इस की तर्जुमानी किया करते हैं। जह उन लोगों ने हमे यह पैग़ाम दिया कि हम अपने दरमियान (बीच) क़ुर्आन को हकम (निर्णायक) ठहरायें, तो हम ऐसे लोग न थे कि अल्लाह की किताब से मुह फेर लेते।

जब कि अल्लाह सुब्हानहू का इर्शाद है कि अगर तुम किसी बात में झगड़ा करो तो (उस का फ़ैसला निपटान के लिये) अल्लाह और रसूल (स) की तरफ़ रुजूउ करो। अल्लाह की तरफ़ रुजूउ करने का मतलब यह है कि हम उस की किताब के मुताबिक़ हुक्म करें और रसूल (स.) की तरफ़ रुजूउ करने के मअनी यह हैं कि हम उन की सुन्नत पर चलें। चुनांचे अगर किताबे ख़ुदा से सच्चाई के साथ हुक्म लगाया जाए तो उस की रु से सब लोगों से ज़ियादा हम (ख़िलाफ़त) के हक़दार होंगे।

और अगर सुन्नते रसूल (स.) के मुताबिक़ हुक्म लगाया जाए तो भई हम उनसे ज़ियादा इस के अहल साबित होंगे। अब रहा तुम्हारा यह क़ौल कि आप ने तह्कीम (फ़ैसले) के लिये अपने और उन के दरमियान मोहलत क्यों रखी, तो यह मैंने इस लिये किया कि इस अर्से में न जनने वाला तह्क़ीक़ कर ले, और जानने वाला अपने मस्लक (मत) पर जम जाए। और शायद कि अल्लाह तआला इस सुल्ब (संधि) की वजह से इस उम्मत के हालात दुरुस्त कर दे, और वह बेख़बरी (अचेत अवस्था) में गला घोंट कर तैयार न की जाए कि हक़ (सत्य) वाज़ेह (स्पष्ट) होने से पहले जल्दी में कोई क़दम न उठा बैठे, और पहले ही गुमराही के पीछे लग जाए। बिला शुब्हा (निस्सन्देह) अल्लाह के नज़्दीक सब से बेह्तर वह शख़्स है कि जो हक़ पर अमल पैरा रहे। चाहे वह उस के लिये बाइसे नुक़्सान व मज़र्रत हो। और बातिल की तरफ़ रुख़ न करे चाहे वह उस के लिये कुछ फ़ाइदे का बाइस हो रहा हो।

तुम्हें तो भटकाया जा रहा है। आख़िर तुम कहां से (शैतान की राह पर) लाए गए हो। तुम उस क़ौम की तरफ़ बढ़ने के लिये मुस्तइद व आमादा हो जाओ कि जो हक़ से मुंह मोड़ कर भटक रही है कि उसे (हक़ को) देखती ही नहीं। और वह बे राह रवीयों में बहका दिये गए हैं, कि उन से हट कर सीधी राह पर आना नहीं चाहते। यह लोग किताबे ख़ुदा से अलग रहने वाले और सहीह रास्ते से हट जाने वाले हैं, लेकिन तुम तो कोई मज़बूत वसीला ही नहीं हो कि तुम पर भरोसा किया जाए। तुम (दुशमन के लिये) जंग की आग भड़काने के अहल (योग्य) नहीं हो। तुम पर अफ़सोस है कि मुझे तुम से कितनी तकलीफ़ें उठाना पड़ी हैं। मैं किसी दिन तुम्हें (दीन की इमदाद के लिये) पुकारता हूं और किसी दिन तुम से (जंग की) राज़दाराना (गोपनीय) बातें करता हूं, मगर तुम पर पुकारने के वक्त सच्चे जवां मर्द और न राज़ (रहस्य) की बातों के लिये क़ाबिले एतिमाद (विश्वास योग्य) भाई साबित होते हो।

(ख़ुत्बा-123)

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