दुआ आयतुल्लाह ख़ामेनई की निगाह में
दुआ आयतुल्लाह ख़ामेनई की निगाह में
दुआ ख़ुदा की इबादत का एक सिम्बल और इन्सान के अन्दर ख़ुदा की इबादत के एहसास को जगाने और मज़बूत करने का एक माध्यम है।
ख़ुदा की इबादत और उसका बंदा बन के रहने का एहसास वही चीज़ है जिसके लिये ख़ुदा नें नबियों को भेजा ताकि वह इन्सानों के अन्दर इस एहसास को जगाएं और उनका ध्यान उसकी ओर मोड़ें। इन्सान जितनी भी अच्छाइयां करता है या कर सकता है चाहे वह उसकी निजी ज़िन्दगी से सम्बंधित हों या उनका सम्बंध समाजी ज़िन्दगी से हो, वह इसी एहसास पर निर्भर हैं। इस एहसास के अपोज़िट एक और एहसास है जिसे स्वार्थ परता कहा जाता है। जहाँ इन्सान ख़ुदा को भूल कर ख़ुद को सब कुछ मानने और समझने लगता है। इन्सान की सारी ख़राबियों और बुराइयों की जड़ यही है। दुनिया में जितने भी ज़ुल्म और अत्याचार हुए हैं, इतिहास में जितनी जंगे और क़त्ल हुए हैं और आज भी दुनिया में जो फ़ित्ना आप देख रहे हैं यह उसी एहसास का परिणाम है।
अगर यह एहसास इन्सान के अन्दर ख़ुदा के विरोध में हो यानी इन्सान ख़ुद को ख़ुदा के मुक़ाबले में ले आए तो इन्सान विद्रोही बन जाएगा। जिसे क़ुरआने करीम ताग़ूत कहता है। ताग़ूत केवल राजा और बादशाह नहीं है बल्कि हो सकता है हमने अपने अन्दर भी एक ताग़ूत बनाया हो। ख़ुदा के विरुद्ध कोई काम करने का मतलब यह है कि हमने अपने अन्दर एक ताग़ूत को जन्म दिया है। और ख़ुदग़रज़ी व स्वार्थ परता का यह एहसास अगर दूसरे इन्सानों के विरुद्ध हो तो इसका परिणाम यह होता है कि इन्सान दूसरों के अधिकार छीनने लगता है, किसी को उसका अधिकार नहीं देता और अगर यह एहसास नेचर के मुक़ाबले में हो तो इन्सान नेचर को कोई महत्व नहीं देता और उसे तबाह करता है।
दुआ इन सारी चीज़ों की अपोज़िट है। जब हम दुआ करते हैं तो उस बीमारी से लड़ते हैं जिसका असर यह होता है कि इन्सान की निजी ज़िन्दगी, समाजी जीवन और नेचर सब कुछ सुरक्षित हो जाता है। इसी लिये फ़रमाया-
’’اَلدُّعَا مُخُّ العِبَادَةِ‘‘
दुआ इबादत का दिमाग़ और उसकी बुद्धि है। इबादत का मक़सद यही है कि इन्सान ख़ुदा के सामने सेरेण्डर हो जाए, क्योंकि हर नेकी और अच्छाई का स्रोत और सोर्स वही है। जो भी है उसी की ओर से आता है और उसी से मिलता है इसलिये उसी के सामने सेरेण्डर होना चाहिये।
एक नेमत और अवसर
दुआ और दुआ का अवसर एक नेमत है। हज़रत अली अ. नें इमाम हुसैन अ. को जो वसीयत की है उसमें आप लिखते हैं-
’’اِعلَم اَنَّ الَّذِى بِیَدِهِ خَزَائِنُ مَلَكُوتِ الدُّنیَا وَ الآخِرَةِ قَد أَذِنَ لِدُعَائِكَ وَ تَكَفَّلَ لِإِجَابَتِكَ‘‘
वह ख़ुदा जिसके क़ब्ज़े में दुनिया व आख़ेरत और ज़मीन व आसमान के सारे ख़ज़ाने हैं उसनें तुम्हे आज्ञा दी है कि उससे दुआ करो, उसके साथ बात करो और उसी से मांगो-
’’وَ اَمَرَكَ أَن تَسأَلَهُ لِیُعطِیكَ‘‘
और तुम्हे हुक्म दिया है कि उससे मांगो ताकि वह तुम्हे दे। ख़ुदा से मांगना और उससे दुआ करना इन्सान की आत्मा को मज़बूत करता है-
’’وَ هُوَ رَحیمُ كَرِیم لَم یَجعَل بَینَكَ وَ بَینَهُ مَن یَحجُبُكَ عَنهُ‘‘
वह बड़ा दयालू और दाता है, उसने तुम्हारे और ख़ुद के बीच कोई परदा नहीं रखा है। आप जब चाहें ख़ुदा से बातें करें वह सुनता है। उस से किसी समय भी बात की जा सकती है, किसी समय भी मांगा जा सकता है यह इन्सान के लिये एक बहुत बड़ी नेमत और अवसर है।
अगर इन्सान ख़ुदा से दुआ करे और मांगे तो वह कभी न नहीं कहता। उसने मांगने के लिये कोई शर्त भी नहीं रखी है, हाँ हमारी दुआ के वहाँ तक पहुँचने के लिये ज़रूरी है कि हमारे अन्दर सच्चाई हो, हमारे कार्य ऐसे न हों जो दुआ को वहाँ तक पहुँचने ही न दें।
ज्ञान और विज्ञान एक ख़ज़ाना
हमारे इमामों की जो दुआएं हम तक पहुँची हैं वह एक बहुत बड़ा ख़ज़ाना हैं। सहीफ़ए सज्जादिया, दुआए कुमैल, मुनाजाते शाबानिया, दुआए अबू हमज़ा सुमाली और दूसरी दुआएं ज्ञान और विज्ञान की बातों से भरी हुई हैं। उनमें इल्म का एक समन्दर है। अगर कोई उन्हें पड़े, जाने और समझे तो वह महसूस करेगा कि उसे एक बहुत बड़ा ख़ज़ाना मिल गया है। जवानों को मेरा यह संदेश है कि इन दुआओं का अनुवाद पढ़ें। यह दुआएं उन्हें ख़ुदा से क़रीब करने के लिये बहुत ज़रूरी हैं। दुआए कुमैल के यह जुमले देखिये-
’’اَللّهُمَّ اغفِرلِىَ الذُّنُوبَ الَّتِى تَحبِسُ الدُّعَا؛ اَللّهُمَّ اغفِرلِىَ الذُّنُوبَ الَّتِى تَنزِلُ البَلَا‘‘
ख़ुदाया! उन गुनाहों को माफ़ कर दे जो दुआओं को रोक देते हैं, ख़ुदाया! उन गुनाहों को माफ़ कर दे जिनके कारण मुसीबतें आती हैं। इन जुमलों में हमें यह समझाया जा रहा है कि हम इन्सान कभी ऐसे गुनाह भी करते हैं जो दुआओं के क़ुबूल होने में रुकावट बन जाते हैं। कुछ गुनाह ऐसे भी होते हैं जिनके कारण हम मुसीबत में फँस जाते हैं। कभी बड़ी बड़ी दुर्घटनाएं गुनाहों के कारण होती हैं लेकिन हमें पता नहीं चलता कि किस गुनाह के कारण ऐसा हुआ है। अलबत्ता जो अल्लाह वाले होते हैं, जिनका सम्बंध अल्लाह से मज़बूत होता है वह समझ जाते हैं कि यह मुसीबतें क्यों टूट पड़ती हैं।
सब कुछ उससे मांगें
दुआ ख़ुदा को बुलाना और उससे बातें करना है। वह किसी भी ज़बान में हो सकता है। फ़ारसी, अरबी या और कोई दूसरी ज़बान। आप ख़ुदा से अपनी ज़बान, अपने लहजे और अन्दाज़ में बातें करें यह भी दुआ है। यह भी ज़रूरी नहीं है कि इन्सान कुछ मांगे। नहीं इन्सान यूँ भी ख़ुदा से बातें कर सकता है। अलबत्ता इन्सान हमेशा और हर समय मांग सकता है (यह हो ही नहीं सकता कि मांगने के लिये कुछ न हो) केवल दुनिया की ज़रूरतें नहीं हैं और भी बहुत सी ज़रूरतें हैं जो ख़ुदा से मांगनी चाहिये। ख़ुदा की मरज़ी। गुनाहों की माफ़ी। हमेशा हक़ पर जमे रहने की तौफ़ीक़ और इस तरह की बहुत सी चीज़ें। ख़ुदा से मांगने में शरमाना भी नहीं चाहिये दुनिया चाहिये तो भी ख़ुदा से मांगिये। आख़ेरत चाहिये तो भी ख़ुदा से मांगें। छोटी से छोटी चीज़ भी ख़ुदा से मांगें। बड़ी से बड़ी चीज़ भी ख़ुदा से मांगें। केवल इस बात का ध्यान रखें कि आपके दिल के तार ख़ुदा से जुड़ जाएं, आप उसके बंदे बन जाएं। ख़ुदा हमसे यही चाहता है। इसके लिये यही इमामों की दुआएं अच्छी हैं। क्योंकि इनमें सब कुछ है। दुआ का अदब भी, मांगने का तरीक़ा भी और यह भी कि क्या क्या मांगा जा सकता है और क्या क्या मांगना चाहिये।
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