क्या मुसलमान मानव नहीं हैं कि उनके कोई अधिकार हों?
टीवी शिया (International Affairs Department) आज के युग में मानवाधिकार एक ऐसा नारा बन के रह गया है जिसको हर कोई अपने लाभ के लिए प्रयोग करना चाहता है, अमरीका और पश्चिमी देश जो कि मानवाधिकार सुरक्षा के सबसे बड़े दावेदार हैं जब तक एशियाई विशेषकर इस्लामी देशों पर मानवाधिकार उल्लंघन का आरोप लगाते रहै हैं और इसकी आंड़ में भयानक जुर्म करते रहे हैं कभी तो यह अफ़्गानिस्तान में मुसलमानों पर बमबारी करते दिखाई देते हैं तो कभी इराक़ में लोगों पर गोलियां चलाते हुए, और यह सब होता है मानवाधिकार की सुरक्षा के मान पर।
दुनिया में हर तरफ़ से मानवाधिकारों की सुरक्षा की आवाज़ें उठती रहती हैं लेकिन ऐसा लगता है कि मानवाधिकार की बातें मुसलमानों के लिए नहीं है क्यों कि जब जब मुसलमानों पर किसी प्रकार का अत्याचार होता है उनका जनसंहार किया जाता है, उनके घरों को जलाया जाता है तब यही अमरीका और पश्चिमी देश जो मानवाधिकार का ढिडोरा पीट रहे हैं उनको चुप्पी साध लेते है, न केवल यह कि वह इन अत्याचारों के विरुद्ध कोई आवाज़ नहीं उठाते हैं बल्कि कभी खुलोआम तो कभी छिप कर अत्याचारियों और आतंकवादियों की सहायता करते है, जैसा कि हमें इराक़, और सीरिया में दिखाई देता है।
आतंकवादी संगठन दाइश सीरिया में अपनी हार का बदला इराक़ की भोली भाली जनता से ले रहा है, रोज़ाना न जाने कितने बेगुनाह लोग मारे जा रहे हैं, इसके मुक़ाबले में अमरीका न केवल यह की इराक़ की सहायता नहीं कर रहा है बल्कि इन आतंकवादियों को हथियार पे हथियार दिये चला जा रहा है।
इन वहाबी आतंकवादियों ने कल ही 1700 विद्यार्थियों को मौत के घाट उतार दिया लेकिन सब ख़ामोश हैं जिसमें से 800 सुन्नी थे। रोज़ाना न जाने कितने लोगों के गले काट दिये जाते हैं, न जाने कितनी महिलाएं सेक्स जिहाद के नाम पर अपनी इज़्ज़त का मातम करती हुई दिखाई देती हैं।
लेकिन कहीं से भी इन पीड़ितों के लिए मानवाधिकार की आवाज़ नहीं उठती है।
मेरा प्रश्न यह है कि क्या मानवाधिकार केवल अमरीकी और पश्चिमियों के लिये हैं?
क्या मुसलमान मानव नहीं है कि उनके कोई अधिकार हो?
क्या यू एन ओ और संयुक्त राष्ट्र को मुसलमानों पर होते हुए अत्याचार दिखाई नहीं देते?
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