इमाम ख़ुमैनी की पुण्य तिथि के अवसर पर विशेष

इमाम ख़ुमैनी की पुण्य तिथि के अवसर पर विशेष

चूंकि धर्म व धार्मिक मान्यताएं, लोक-परलोक में मनुष्य के कल्याण व मुक्ति का कारण बनती हैं इस लिए उन्हें जीवन का आधार कहा जाता है अर्थात इसे पुनर्जीवित करने की विशेषता का स्वामी माना जाता है। क़ुरआने मजीद के सूरए अन्फ़ाल की 24वीं आयत में कहा गया है। हे ईमान वालो, ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर की पुकार का उत्तर दो जब वे तुम्हें ऐसी भलाई की ओर बुलाएं जो तुम्हें जीवित करती है। स्वाभाविक रूप से ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर का निमंत्रण धर्म, उच्च धार्मिक मान्यताओं और आध्यात्मिक जीवन हेतु है किंतु यह भी जानना चाहिए कि यद्यपि, धर्म मानव जीवन का आधार है किंतु यह पथभ्रष्टता और ग़लत विचारों में फंसने का भी कारण बन सकता है। इन्हीं परिस्थितियों में लोगों को धर्म के पालन के लिए, पुनर्जीवित करने वाले की ज़रूरत पड़ती है। अलबत्ता धर्म की वास्तविकता कभी परिवर्तित और समाप्त नहीं होगी बल्कि जिस चीज़ को क्षति पहुंचती है वह धर्म के बारे में सही ढंग से जानने की शैली है। अतः लोगों के मन में धर्म और धार्मिक मान्यताओं के बारे में ग़लत कल्पनाएं और विचार पैदा होने लगते हैं।

स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने अपनी वसीयत में क़ुरआने मजीद को पुनर्जीवित करने के संबंध में जो बात कही है वह इसी विषय को दर्शाती है क्योंकि इमाम ख़ुमैनी की दृष्टि में क़ुरआन की बातें अमर हैं किंतु उनके संबंध में लोगों की समझ रुढ़िवादी हो सकती है। वे कहते हैं। हमें भी गर्व है और इस्लाम व क़ुरआन पर पूर्ण रूप से कटिबद्ध सम्मानीय ईरानी राष्ट्र को भी गर्व है कि वह ऐसे धर्म का अनुयाई है जो चाहता है कि क़ुरआन की वास्तविकताओं को, जिनमें न केवल मुसलमानों बल्कि सभी मनुष्यों के बीच एकता पर बल दिया गया है, मज़ारों व क़ब्रस्तानों से निकाल कर, इन्सान के हाथ, पैर, हृदय व मन को जकड़ने वाली और उसे साम्राज्यवादियों की दासता की जाल में फंसाने वाली हर प्रकार की सीमितता से मनुष्य की मुक्ति व कल्याण के सबसे बड़े माध्यम के रूप में, मुक्ति दिलाए। इमाम ख़ुमैनी के इस कथन के आधार पर क़ुरआने मजीद और इसी प्रकार धर्म, ठोस व स्थायी वास्तविकताओं पर आधारित है और इसी लिए वह अमर है। उसमें पथभ्रष्टता व नश्वरता नहीं है बल्कि जिस चीज़ में पथभ्रष्टता व जड़ता हो सकती है वह उसके संबंध में हमारे सोचने और विचार करने की शैली है।

इमाम ख़ुमैनी सूझ-बूझ रखने वाले एक महान धर्मगुरू थे। वे न केवल धार्मिक नियमों और शिक्षाओं के ज्ञानी थे बल्कि उनके रक्षक भी थे। धर्म को ग़लत विचारों और भ्रमों से दूर रखना हर धर्मगुरू का परम कर्तव्य होता है जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि जब मेरे धर्म के अनुयाइयों के बीच ग़लत संस्कार उभरने लगें तो धर्म के ज्ञानियों का दायित्व है कि वे अपने ज्ञान को प्रकट करें और जो कोई ऐसा न करे उस पर ईश्वर की धिक्कार हो। पूरे इतिहास में, विभिन्न कारणों से धार्मिक विचार अपनी वास्तविक आयु खो कर परिवर्तित होते रहे हैं। कहा जा सकता है कि धार्मिक विचारों को, दो दिशाओं से सदैव ख़तरा रहा है। प्रथम उन लोगों के विचारों व प्रयासों से जो धर्म तथा धार्मिक मान्यताओं व मूल्यों के संबंध में अपनी ग़लत व अपरिपूर्ण सोच को, धर्म की सच्ची, ठोस व परिपूर्ण शिक्षाओं के स्थान पर पेश करने का प्रयास करते हैं। ऐसे लोग ईश्वरीय धर्म और उसके उच्च मूल्यों को जड़ता व रूढ़िवाद में ग्रस्त कर देते हैं। इस प्रकार के विचारों को इस समय वहाबी और तकफ़ीरी सोच में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। धर्म के लिए ख़तरे की दूसरी दिशा, मायामोह और भौतिकता में ग्रस्त उन धर्म विरोधियों के आक्रमण है जो इस्लाम की उच्च मान्यताओं विशेष रूप से न्याय की स्थापना और अत्याचार के विरोध के संबंध में उसके आदेशों को अपनी वासनाओं, निरंकुशता, विस्तारवाद, ज़ोर-ज़बरदस्ती और वर्चस्ववाद के लिए ख़तरा समझते हैं। यही कारण है कि वे कभी तो धर्म को सामाजिक जीवन से पूरी तरह अलग करने की कोशिश करते हैं और कभी इस्लाम व उसकी मान्यताओं का बिगाड़ा हुआ रूप प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं जो उनकी अवैध इच्छाओं के अनुकूल हो।

इस प्रकार के विचारों के मुक़ाबले में सदैव ही ऐसे सच्चे व वीर धर्मावलम्बी रहे हैं जो इस्लाम व उसकी उच्च मान्यताओं की रक्षा और धार्मिक समाजों में सुधार के लिए उठ खड़े हुए और इस मार्ग में उन्होंने अथक प्रयास किए यहां तक कि कभी कभी इस प्रकार के पवित्र लक्ष्यों के लिए उन्होंने अपने प्राण भी न्योछावर किए। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी भी ऐसे ही एक सच्चे संघर्षकर्ता और जागरूक धर्मगुरू थे जिन्होंने विचार और व्यवहार दोनों ही क्षेत्रों में उन सभी लोगों के समक्ष स्पष्ट मार्ग खोल दिया जो धर्म व धार्मिक मान्यताओं को पुनर्जीवित करने का संकल्प रखते हैं। वे ऐसे नेता थे जो धार्मिक शिक्षाओं के सहारे, अत्याचारी शासन को गिराने में सफल हुए और इस प्रकार उन्होंने धर्म व धार्मिक मान्यताओं पर पड़े हुए ग़लत विचारों व रूढ़िवाद के पर्दों को चीर दिया। ईरान की इस्लामी क्रांति, वर्तमान जगत में इस्लाम व उसकी मान्यताओं को पुनर्जीवित करने के मार्ग में इमाम ख़ुमैनी का सबसे प्रमुख व्यवहारिक क़दम है।

जो बात इस्लामी क्रांति के नेता इमाम ख़ुमैनी को, अपने समय की स्थिति के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए प्रेरित करती थी वह, तत्कालीन ईरान समाज में धार्मिक शिक्षाओं का अभाव था। इस प्रकार से कि समाज, ईश्वरीय एवं धार्मिक आस्थाओं के संबंध में गंभीर समस्याओं में ग्रस्त था। इस्लाम की व्याख्या इस प्रकार की जाती थी कि धर्म का समाज के राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों से कोई लेना-देना नहीं है और वह केवल उपासनाओं और व्यक्तिगत कर्मों तक ही सीमित है। धर्म के बारे में इस प्रकार के विचार सदैव ही अत्यचारी शासकों और तानाशाहों को भाते रहे हैं और वे इन विचारों को लोगों के बीच फैलाते रहे हैं। इमाम ख़ुमैनी की दृष्टि में, पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद इस्लामी समाज को काफ़ी क्षति पहुंची और हालिया समय में यह अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई है। वे कहते हैं। यह एक शैतानी चाल थी जो बनी उमय्या और बनी अब्बास के काल में तैयार की गई थी और उसके बाद जो भी सरकार आई उसने इस बात की पुष्टि की और हाल में जब इस्लामी सरकारों तक पूरब और पश्चिम के मार्ग खुल गए हैं, यह बात अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई है कि इस्लाम, व्यक्ति व ईश्वर के बीच एक व्यक्तिगत मामला है और राजनीति इस्लाम से अलग है तथा मुसलमान को राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए या धर्मगुरुओं को राजनीति में नहीं आना चाहिए। इमाम ख़ुमैनी ने प्रयास किया कि इस्लाम को रुढ़िवाद से जोड़ने वाले तत्वों का मुक़ाबला करें। इस मार्ग में उन्होंने धर्म के राजनीति से अलग होने के संदिग्ध नारे के विरुद्ध खुल कर संघर्ष किया। इस संबंध में उनका कहना था कि यह नारा, साम्राज्यवाद का कुप्रचार है जो यह चाहता है कि मुस्लिम राष्ट्रों को स्वयं उनके भविष्य में भूमिका न निभाने दे।

इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी विचार धारा के प्रचार व पुनर्जीवन के लिए पैग़म्बरे इस्लाम व उनके पवित्र परिजनों के चरित्र को अपना मार्गदर्शक बना रखा था। उन्होंने इस्लामी आंदोलन के आरंभ से ही इस्लामी शिक्षाओं तथा पैग़म्बर व उनके परिजनों की परंपराओं पर भरोसा करके एक बार फिर, धर्म को समाज तथा राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश दिलाने में सफलता प्राप्त की और काफ़ी समय बाद उसे लोगों के विचारों व जीवन में पुनर्जीवित किया। वे इस्लामी सरकार के गठन पर बल देते थे और इस संबंध में यह तर्क प्रस्तुत करते थे कि स्वयं पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम भी इस्लामी सरकार के गठन के बाद ही न्याय स्थापित कर पाए थे। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी वसीयत के एक भाग में लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी पूरी आयु इस्लामी राजनीति और इस्लामी सरकार के गठन के लिए बिता दी। इस्लाम की बहुत सी उपसनाएं, राजनैतिक आयाम लिए हुए हैं जिनकी ओर से निश्चेतना के कारण ही यह स्थिति उत्पन्न हुई है। पैग़म्बरे इस्लाम ने संसार की अन्य सरकारों की भांति ही सरकार गठित की किंतु सामाजिक न्याय के प्रसार की भावना के साथ, इस्लाम के आरंभिक ख़लीफ़ाओं की व्यापक सरकारें थी और हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने भी न्याय के प्रसार की भावना के साथ सत्ता संभाली और यह बात इतिहास में बहुत स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी, सरकार गठन को, अत्याचार व अन्याय से संघर्ष तथा अत्याचार ग्रस्त लोगों के समर्थन जैसे पवित्र लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने हेतु एक साधन मानते थे। यही कारण है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान में, जो इमाम ख़ुमैनी के प्रयासों से अस्तित्व में आया है, धर्म व राजनीति के बीच संबंध, सरकार में लोगों की सम्मिलिति, नैतिक मान्यताओं के प्रचार, भ्रष्टाचार से संघर्ष, अन्याय व अत्याचार से मुक़ाबला तथा सार्वजनिक संपन्नता, धर्म के पुनर्जीवन और उसकी उच्च मान्यताओं पर ध्यान की निशानी है।

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