अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) का ख़वारिज से ख़िताब
अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) का ख़वारिज से ख़िताब
( जब ख़वारिज तह्कीम के न मानने पर अड़ गए तो हज़रत उन के पड़ाव की तरफ़ तशरीफ़ ले गए और उन से फ़रमाया ]
क्या तुम सब के सब हमारे साथ सिफ़्फ़ीन में मौजूद थे ? उन्हों ने कहा कि हम में से कुछ थे कुछ नहीं थे। तो हज़रत ने फ़रमाया कि फिर तुम दो गुरोहों में अलग अलग हो जाओ। एक वह जो सिफ़्फ़ीन में मौजूद था और एक वह जो वहां मौजूद न था। ताकि मैं हर एक से जो गुफ़्तुगू उस से मुनासिब हो वह करुं। और लोगों से पुकार कर कहा कि :--
बस ! अब आपस में बात चीत न हो, और ख़ामोशी से मेरी बात सुनो और दिल से तवज्जह करो, और जिस से हम गवाही तलब करें वह अपने इल्म के मुताबिक़ (ज्ञान के अनुसार) जूं की तूं गवाही दे। फिर हज़रत ने उन लोगों से एक तवील गुफ्तुगू (लम्बी वार्ता) फ़रमाई। मिनजुमला उस के यह फ़रमाया कि जब उन लोगों ने मक्र व हीला और जअल व फ़रेब (छल एवं कपट) से क़ुर्आन नेज़ों पर उठाए थे तो क्या तुम ने नहीं कहा था कि,
वह हमारे भाई बन्द और हमारे साथ इसलाम की दअवत क़बूल करने वाले हैं, अब हम चाहते हैं कि जंग से हाथ उठा लें और वह अल्लाह सुब्हानहू की किताब पर समझौता के लिये ठहर गए हैं, सहीह राय यह है कि उन की बात मान ली जाय और उन की गुलू ख़लासी की जाय। तो मैं ने तुम से कहा था कि इस चीज़ के बाहर ईमान और अन्दर कीना व इनाद है। इस की इब्तिदा (आरम्भ) शफ़क़त व मेह्रबानी (कृपा एवं दया) और नतीजा (परिणाम) निदामतो पशीमानी (लज्जा) है। लिहाज़ा (अस्तु) तुम अपने रवैये पर ठहरे रहो और अपनी राह पर मज़बूती से जमे रहो। और जिहाद के लिये अपने दांतों भींच लो, और इस चिल्लाने वाले की तरफ़ ध्यान न दो, कि अगर उस की आवाज़ पर लब्बैक कही गई तो यह गुमराह करेगा, और अगर उसे यूं ही रहने दिया जाए तो ज़लील हो कर रह जाएगा। लेकिन जब तहकीम की सूरत अंजाम पा गई तो मैं उन्हें देख रहा था कि तुम ही उस पर रज़ी मन्दी (स्वीकृति) देने वाले थे। ख़ुदा की क़सम ! अगर मैंने इस से इन्कार कर दिया होता तो मुझ पर उस का कोई फ़रीज़ा वाजिब न होता, और न अल्लाह मुझ पर उस के तर्क (त्याग) का गुनाह आयद करता। और क़सम बख़ुदा ! अगर मैं इस की तरफ़ बढ़ा तो उस सूरत में भी मैं ही वह हक़ परस्त हूं जिस की पैरवी (अनुसरण) की जानी चाहिये। और किताबे ख़ुदा मेरे साथ है। और जब से मेरा उस का साथ हुआ है मैं उस से अलग नहीं हुआ। हम जंगों में रसूलुल्लाह (स.) के साथ थे और क़त्ल होने वाले वही थे जो एक दूसरे के बाप, बेटे, भाई और रिश्तेदार होते थे। लेकिन हर मुसीबत और सख़्ती में ईमान बढ़ता था और हक़ की पैरवी (अनुसरण) और दीन की इताअत (धर्म की आज्ञाकारिता) में ज़ियादती होती थी, और ज़ख़्मों की टीसों पर सब्र में इज़ाफ़ा होता था। मगर अब हम को उन लोगों से कि जो इसलाम की रु से हमारे भाई कहलाते हैं जंग पड़ना पड़ गई है। चूंकि इन की वजह से इस में गुमराही, कजी, शुब्हात और ग़लत सलत तावीलात दाख़िल हो गए हैं, तो जब हमें कोई ऐसा ज़रीआ नज़र आए कि जिस में मुम्किन है अल्लाह हमारी परीशानियों को दूर कर दे और इस की वजह से हमारे दरमियान जो बाक़ीमांदा लगाव रह गया है उस की तरफ़ बढ़ते हुए एक दूसरे से क़रीब हों, तो हम इसी के ख़्वाहिशमन्द (इच्छुक) रहेंगे और किसी दूसरी सूरत से जो उस के ख़िलाफ़ हो हाथ रोक लेंगे।
इब्ने अबिल हदीद ने लिखा है कि यह ख़ुत्बा तीन ऐसे हिस्सों (भागों) पर मुशतमिल है जो एक दूसरे से ग़ैर मुर्तबित (असंदर्भित) हैं। चूंकि अल्लामा सैयिद रज़ी हज़रत ने ख़ुत्बों का कुछ हिस्सा मुन्तख़ब (चयनित) करते थे और कुछ दर्ज न करते थे जिस से सिलसिलए कलाम टूट जाता था और रब्त बाक़ी न रहता था।
इस से मुआविया या अमर इब्ने आस मुराद हैं।
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