सच्चा मोमिन हदीस की रौशनी में

सच्चा मोमिन हदीस की रौशनी में

हदीस-

अन अनस इब्ने मालिक क़ाला क़ालू या रसूलल्लाहि मन औवलियाउ अल्लाहि अल्लज़ीना ला खौफ़ुन अलैहिम वला हुम यहज़नून ? फ़क़ाला अल्लज़ीना नज़रू इला बातिनि अद्दुनिया हीना नज़रा अन्नासु इला ज़ाहिरिहा, फ़ाइहतम्मु बिआजलिहा हीना इहतम्मा अन्नासु बिअजिलिहा, फ़अमातु मिनहा मा ख़शव अन युमीताहुम, व तरकु मिनहा मा अलिमु अन सयतरुका हुम फ़मा अरज़ा लहुम मिनहा आरिज़ुन इल्ला रफ़ज़ूहु, वला ख़ादअहुम मिन रफ़अतिहा ख़ादिऊन इल्ला वज़ऊहु, ख़ुलिक़त अद्दुनिया इन्दाहुम फ़मा युजद्दिदुनहा , व ख़राबत बैनाहुम फ़मा यअमुरूनहा, व मातत फ़ी सुदूरि हिम फ़मा युहिब्बुनहा बल यहदिमुनहा, फ़यबनूना बिहा आख़िरताहुम, व यबयाऊनहा फ़यशतरूना बिहा मा यबक़ा लहुम, नज़रु इला अहलिहा सर्आ क़द हल्लत बिहिम अलमुसलातु, फ़मा यरौवना अमानन दूना मा यरजूना, वला फ़ौफ़न दूना मा यहज़रूना।[1]

अनुवाद

अनस इब्ने मालिक ने रिवायत की है कि पैगम्बर (स) से कहा गया कि ऐ अल्लाह के रसूल अल्लाह के दोस्त -जिनको न कोई ग़म है और न ही कोई ख़ौफ- वह कौन लोग हैं? आप ने फरमाया यह वह लोग हैं जब दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं तो उसके बातिन को भी देख लेते हैं, इस तरह जब लोग इस दो रोज़ा दुनिया के लिए मेहनत करते हैं उस वक़्त वह आख़िरत के लिए कोशिश करते हैं, बस वह दुनिया की मुहब्बत को मौत के घाट उतार देते हैं इस लिए कि वह डरते हैं कि दुनिया उनकी मलाकूती और क़ुदसी जान को तबाह कर देगी, और इससे पहले कि दुनिया उनको तोड़े वह दुनिया को तोड़ देते हैं, वह दुनिया को तर्क कर देते हैं क्योंकि वह जानते हैं दुनिया उन्हें जल्दी ही तर्क कर देगी, वह दुनिया की तमाम चमक दमक को रद्द कर देते हैं और उसके जाल में नही फसते, दुनिया के नशेबो फ़राज़ उनको धोका नही देते बल्कि वह लोग तो ऐसे हैं जो बलन्दियों को नीचे खैंच लाते हैं। उनकी नज़र में दुनिया पुरानी और वीरान है लिहाज़ा वह इसको दुबारा आबाद नही करते, उनके दिलो से दुनिया की मुहब्बत निकल चुकी है लिहाज़ा वह दुनिया को पसंद नही करते बल्कि वह तो दुनिया को वीरान करते हैं, और उस वक़्त इस वीराने में अबदी(हमेशा बाक़ी रहने वाला) मकान बनाते हैं, इस ख़त्म होने वाला दुनिया को बेंच कर हमेशा बाक़ी रहने वाले जहान को ख़रीदते हैं, जब वह दुनिया परस्तों को देखते हैं तो वह यह समझते हैं कि वह ख़ाक पर पड़े हैं और अज़ाबे इलाही में गिरफ़्तार हैं, वह इस दुनिया में किसी भी तरह का अमनो अमान नही देखते वह तो फ़क़त अल्लाह और आख़िरत से लौ लगाये हैं और सिर्फ अल्लाह की नाराज़गी व उसके अज़ाब से डरते हैं।

हदीस की व्याख़्या

फ़र्क़े खौफ़ व ग़म- मामूलन कहा जाता है कि खौफ़ मुस्तक़बिल से और ग़म माज़ी से वाबस्ता है।इस हदीस में एक बहुत मुहिम सवाल किया गया है जिसके बारे में ग़ौरो फ़िक्र होना चाहिए।

पूछा गया कि औलिया ए इलाही जो न मुस्तक़बिल से डरते हैं और न ही माज़ी से ग़मगीन हैं कौन लोग हैं?

हज़रत ने उनको पहचनवाया और फरमाया औलिया अल्लाह की बहुत सी निशानियाँ हैं जिनमें से एक यह है कि वह दुनिया परस्तों के मुकाबले में बातिन को देखते हैं।क़ुरआन कहता है कि दुनिया परस्त अफ़राद आख़िरत से ग़ाफ़िल हैं। “यअलामूना ज़ाहिरन मिनल हयातिद्दुनिया व हुम अनिल आख़िरति हुम ग़ाफिलून।”[2]

अगर वह किसी को कोई चीज़ देते हैं तो हिसाब लगा कर यह समझते हैं कि हमों नुक़्सान हो गया है, हमरा सरमाया कम हो गया है।[3] लेकिन बातिन को देखने वाले एक दूसरे अंदाज़ में सोचते हैं। क़ुरआन कहता है कि “मसालुल लज़ीना युनफ़ीक़ूना अमवालाहुम फ़ी सबीलिल्लाहि कमसले हब्बतिन अन बतत सबआ सनाबिला फ़ी कुल्ले सुम्बुलतिन मिअतु हब्बतिन वल्लाहु युज़ाईफ़ु ले मन यशाउ वल्लाहु वासिउन अलीम।[4] ” जो अपने माल को अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं वह उस बीज की मानिन्द है जिस से सात बालियां निकलती हैं और बाली में सौ दाने होते हैं और अल्लाह जिसके लिए भी चाहता है इसको दुगना या कई गुना ज़्यादा करता है अल्लाह (रहमत और क़ुदरत के ऐतबार से वसीअ) और हर चीज़ से दानातर है।

जो दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं वह कहते हैं कि अगर सूद लेगें तो हमारा सरमाया ज़्यादा हो जायेगा लेकिन जो बातिन के देखने वाले हैं वह कहते हैं कि यही नही कि ज़यादा नही होगा बल्कि कम भी हो जायेगा। क़ुरआन ने इस बारे में दिलचस्प ताबीर पेश की है “यमहक़ु अल्लाहि अर्रिबा व युरबिस्सदक़ाति वल्लाहु ला युहिब्बु कुल्ला कफ़्फ़ारिन असीम ”[5] अल्लाह सूद को नाबूद करता है और सदक़ात को बढ़ाता और अल्लाह किसी भी नाशुक्रे और गुनाहगार इंसान को दोस्त नही रखता।
जब इंसान दिक़्क़त के साथ देखता है तो पाता है कि जिस समाज में सूदरा इज होता है वहआख़िर कार फ़क़रो फ़ाक़ा और ना अमनी में गिरफ़्तार हो जाता है। लेकिन इसी के मुक़ाबले में जिस समाज में आपसी मदद और इनफ़ाक़ पाया जाता है वह कामयाब और सरबलन्द है।

इंक़लाब से पहले हज के ज़माने में अख़बार इस ख़बर से भरे पड़े थे कि हज अंजाम देने के लिए ममलेकत का पैसा बाहर क्यों ले जाते हो ? क्यों यह अर्बों को देते हो ? क्योंकि वह फ़क़त ज़ाहिर को देख रहे थे लिहाज़ा इस बात को दर्क नही कर रहे थे कि यह चन्द हज़ार डौलर जो ख़र्च किये जाते हैं इसके बदले में हाजी लोग अपने साथ कितना ज़्यादा मानवी सरमाया मुल्क में लाते हैं। यह हज इस्लाम की अज़मत है और मुसलमानों की वहदत व इज़्ज़त को अपने दामन में छुपाये है। कितने अच्छे हैं वह जिल जो वहाँ जाकर पाको पाकीज़ा हो जाते हैं।

आप देख रहे हैं कि लोग इस दुनिया की दो दिन ज़िन्दगी के लिए कितनी मेहनत करते हैं वह मेहनत जिसके बारे में यह भी नही जानते कि इसका सुख भी हासिल करेंगें या नही। मिसाल के तौर पर तेहरान में एक इंसान ने एक घर बनाया था जिसकी नक़्क़ाशी में ही सिर्फ़ डेढ़ साल लग गया था, लेकिन वह बेचारा उस मकान से कोई फ़ायदा न उठा सका और बाद मे उसका चेहलुम इसी घर में मनाया गया। इस दुनिया के लिए जिसमें सिर्फ़ चार रोज़ ज़िन्दा रहना इतनी ज़्यादा भाग दौड़ की जाती है लेकिन उख़रवी ज़िंदगी के लिए कोई मेहनत नही की जाती, उसकी कोई फ़िक्र ही नही है।

यह हदीस औलिया ए इलाही की सिफ़ात का मजमुआ है। अगर इन सिफ़ात की जमा करना चाहो तो इनका ख़ुलासा तीन हिस्सों में हो सकता है।

1- औलिया ए इलाही दुनिया को अच्छी तरह पहचानते हैं और जानते हैं कि यह चन्द रोज़ा और नाबूद होने वाली है।

2-वह कभी भी इस की रंगीनियों के जाल में नही फसते और न ही इसकी चमक दमक से धोखा खाते क्योंकि वह इसको अच्छी तरह जानते हैं।

3-वह दुनिया से सिर्फ़ ज़रूरत के मुताबिक़ ही फ़यदा उठाते हैं, वह इस फ़ना होने वाली दुनिया में रह कर हमेशा बाक़ी रहने वाली आख़ेरत के लिए काम करते हैं। वह दुनिया को बेचते हैं और आखेरत को ख़रीदते हैं।

हम देखते हैं कि अल्लाह ने कुछ लोगों को बलन्द मक़ाम पर पहुँचाया है सवाल यह है कि उन्होंने यह बलन्द मक़ाम कैसे हासिल किया ? जब हम ग़ौर करते हैं तो पाते हैं कि यह अफ़राद वह हैं जो अपनी उम्र से सही फैयदा उठाते हैं, इस ख़ाक से आसमान की तरफ़ परवाज़ करते हैं ,पस्ती से बलन्दी पर पहुँचते हैं। हज़रत अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने इबी तालिब (अ) ने जंगे ख़न्दक़ के दिन एक ऐसी ज़रबत लगाई जो क़ियामत तक जिन्नो इन्स की इबादत से बरतर है।  “ज़रबतु अलीयिन फ़ी यौमिल ख़न्दक़ि अफ़ज़ला मिन इबादति अस्सक़लैन।” क्योंकि उस दिन कुल्ले ईमान कुल्ले कुफ़्र के मुक़ाबले में था। बिहारुल अनवार में है कि “बरज़ल ईमानु कुल्लुहु इला कुफ़्रे कुल्लिहि।” [6]अली (अ) की एक ज़रबत का जुन व इंस की इबादत से बरतर होना ताज्जुब की बात नही है।

अगर हम इन मसाइल पर अच्छी तरह ग़ौर करें तो देखेगें कि कर्बला के शहीदों की तरह कभी कभी आधे दिन में भी फ़तह हासिल की जा सकती है। इस वक़्त हमको अपनी उम्र के क़ीमती सरमाये की क़द्र करनी चाहिए और औलिया ए इलाही( कि जिनके बारे में क़ुरआन में भी बहस हुई है) की तरह हमको भी दुनिया को अपना हदफ़ नही बनाना चाहिए।

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[1] बिहारुल अनवार जिल्द 74/ 181
[2] सूरए रूम आयत 7
[3] पैग़म्बर (स) की एक हदीस में मिलता है कि “अग़फ़लु अन्नास मन लम यत्तईज़ यतग़य्यरु अद्दुनिया मिन हालि इला। ”सबसे ज़्यादा ग़ाफ़िल लोग वह हैं जो दुनिया के बदलाव ले ईबरत हासिल न करे और दिन रात के बदलाव के बारे में गौरो फ़िक्र न करे।(तफ़्सीरे नमूना जिल्द13/13)
[4] सूरए बक़रा आयत 261
[5] सूरए बक़रा आयत 276
[6] बिहारूल अनवार जिल्द 17/215

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