सूर-ए-फ़ातिहातुल किताब “अलहम्द” 3

सूर-ए-फ़ातिहातुल किताब “अलहम्द” 3

दूसरी आयत

الْحَمْدُ لِلَّـهِ رَ‌بِّ الْعَالَمِينَ

अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन

अनुवाद –हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सम्पूर्ण जगत का पालनहार है।

बिस्मिल्लाह के बाद, बंदों का प्रथम कर्तव्य यह है कि वह संसार की रचना एवं अल्लाह की उन नेअमतों के प्रति चिन्तन करे, जो उसने संसार के विभिन्न प्राणियों को प्रदान की हैं। यही चीज़े अल्लाह को पहचानने में हमारा मार्गदर्शन करती हैं और इनके द्वारा ही हम अल्लाह को उसके वास्तविक रूप में पहचान ने का थोड़ा बहुत प्रयत्न कर पाते हैं। यह प्रयत्न ही हमारी इबादत की प्रवृत्ति को जागृत करता है।

हम प्रवृत्ति के जागृत होने का उल्लेख  इस लिए कर रहे हैं क्योँकि इस संसार का प्रत्येक इंसान जब भी कोई नेअमत को प्राप्त करता है तो उसके अन्दर उस नेअमत के प्रदान करने वाले को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और वह प्रवृत्ति स्वरूप उसका शुक्रिया अदा करना चाहता है। इसी लिए इल्मे कलाम (मतज्ञान) के विद्वानों ने इस ज्ञान के शुरू में ही इस बात का वर्णन किया है कि नेअमत देने वाले का शुक्र अदा करना अति आवश्यक है और यह एक स्वभाविक प्रवृत्ति है और अल्लाह को पहचानने का साधन भी है।

“अल्लाह को पहचान ने में उसकी प्रदान की हुई नेअमतें हमारे लिए मार्ग दर्शक सिद्ध होती हैं” यह कथन इस आधार पर कहा गया है क्योँकि स्रोत को जानने का सबसे सरल तरीक़ा यह है कि इंसान प्रकृति, सृष्टि व उत्पत्ति के भेदों को समझे और इन सब के इंसान से सम्बन्ध को जाने। तब समझ में आयेगा कि नेअमतें हमारा मार्ग दर्शन किस प्रकार करती हैं।

इन दोनों दलीलों के द्वारा यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस सूरेह का प्रारम्भ इस आयत से क्योँ हुआ है। (हर प्रकार की प्रशंसा अल्लाह के लिए है, जो सारे जगत का पालनहार है।)

हम्द शब्द का अर्थ, किसी कार्य या नेक स्वेच्छित विशेषता की प्रशंसा करना है।

1.      प्रत्येक इंसान अच्छाइयों व भलाईयों का स्रोत है। पैग़म्बर व अल्लाह के द्वारा भेजे गये हादी (मार्ग दर्शक) जो लोगों के दिलों को कल्याण व हिदायत से प्रकाशित करते हैं, और प्रत्येक दानी व्यक्ति और वैद्य जो जड़ी बूटियों के द्वारा लोगों का इलाज करते हैं, इन समस्त लोगों की प्रशंसा वास्तव में अल्लाह के पवित्र अस्तित्व के द्वारा ही सम्पन्न होती हैं। इसकी मिसाल ऐसी ही है जैसे सूरज प्रकाश देता है, बादल वर्षा करता है तथा ज़मीन फल फूल सब्ज़ी व अनाज प्रदान करती है। परन्तु वास्तव में यह सभी चीज़ें अल्लाह की ओर से ही प्रदान होती हैं।

2.      यह बात ध्यान देने योग्य है कि हम्द किसी कार्य के प्रारम्भ में ही नही होती बल्कि उसके अंत में भी होती है। क्योँकि कुरआन हमें यह शिक्षा देता है कि अल्लाह की प्रशंसा हमेशा करते रहो। स्वर्ग वासियों के समबन्ध में वर्णन होता है कि “स्वर्ग में उनका कथन यह होगा कि अल्लाह पाक एवं पवित्र है। वह आपस में सलाम के द्वारा मुलाक़ात करेंगे और उनका अन्तिम कथन यह होगा कि समस्त प्रशंसायें अल्लाह के लिए है जो पूरे जगत का पालनहार है।”[1]

3.      रब्ब शब्द का अर्थ मालिक है। यह शब्द विशेषकर तरबियत, प्रशिक्षण व पालनहारिता के अर्थ में प्रयोग होता है।

4.      आलमीन यह शब्द आलम शब्द का बहुवचन है। आलम शब्द का अर्थ संसार व उसमें विद्यमान समस्त चीज़े हैं। जब यह शब्द अपने बहुवचन में प्रयोग होता है तो इसका अर्थ व्यापक हो जाता है और इसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड व उसमें विद्यमान समस्त वस्तुएं सम्मिलित हो जातीं हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि सूर-ए- फ़ातिहा में रब्बिल आलमीन अल्लाह की सम्पूर्ण सृष्टि की ओर संकेत है जिसके अन्तर्गत सजीव व निर्जीव सभी वस्तुएं आती हैं।

तीसरी आयत

الرَّ‌حْمَـٰنِ الرَّ‌حِيمِ

अर्रहमानि अर्रहीमि

अनुवाद- ऐसा अल्लाह जो रहमान व रहीम है।

हमने रहमान एवं रहीम का अन्तर बिस्मिल्लाह की तफ़सीर के अन्तर्गत स्पष्ट कर दिया है। यहाँ केवल यह बताना उचित रहेगा कि अल्लाह की इन दोनों विशेषतओं को हर रोज़ की नमाज़ मे कम से कम तीस बार पढ़ा जाता है। हर नमाज़ की पहली व दूसरी रकत में छः बार अर्रहमान व अर्रहीम पढ़ा जाता है। इस प्रकार हम हर रोज़ पाँच वक्त की नमाज़ों में अल्लाह को रहमान व रहीम की विशेषताओं के साथ तीस बार पुकारते हैं। यह प्रत्येक इंसान के लिए एक शिक्षा है कि वह अपने जीवन में सबसे पहले स्वयं को इस नैतिक गुण से जोड़े।  इसके अलावा यह विशेषता इस ओर भी इशारा करती है कि अगर हम स्वयं को अल्लाह का बंदा मानते हैं तो हमेंबी अपने बंदों व सेवकों के साथ वही व्यवहार करना चाहिए जो व्यवहार अल्लाह अपने बंदों के साथ करता है।

इसके अलावा जिस बात का यहाँ वर्णन किया जा सकता है वह यह है कि रहमान व रहीम, रब्बिल आलमीन के बाद प्रयोग हुआ है जो कि इस बात की ओर संकेत करता है कि अल्लाह सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने बंदों के साथ मुहब्बत व सहानुभूती रखता है।

चौथी आयत

مَالِكِ يَوْمِ الدِّينِ

मालिकि यौमिद्दीन

अनुवाद- (वह अल्लाह) जो क़ियामत के दिन का मालिक है।

इस आयत में अल्लाह के प्रभुत्व की ओर संकेत हुआ है और बताया गया है कि उसका प्रभुत्व क़ियामत के दिन उस समय स्पष्ट होगा जब समस्त प्राणी अपने कार्यों के हिसाब किताब के लिए उसकी अदालत में उपस्थित होंगे व अपने आपको उसके सम्मुख पायेंगे और अपने संसारिक जीवन के समस्त कर्मों यहाँ तक कि अपने चिंतन को भी अपने सामने देखेंगे। सूईं की नोक के बराबर भी न कोई चीज़ गुम होगी और न ही भुलाई जायेगी। इंसान को अपनी समस्त ज़िम्मेदारियों को अपने काँधों पर उठाना पड़ेगा। क्योँकि इंसान ही रीती को बनाने वाला एवं लक्ष्यों व उद्देश्यों पर खरा उतरने वाला है। अतः इंसान को चाहिए कि वह अपनी ज़िम्मेदारियों को समझे व उन्हें पूरा करते हुए अपने वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करे।

इसमें कोई संदेह नही है कि इस संसार में अल्लाह का प्रभुत्व ही वास्तविक है। उसका प्रभुत्ता ऐसी नही है जैसे अपनी वस्तुओं पर हमारा होता है।

दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अल्लाह का प्रभुत्व ख़ालक़ियत व रबूबियत (उत्पत्ति व पालनहारिता) के नतीजे में है। वह अस्तित्व जिसने इस प्रकृति की रचना की और जो प्रत्येक पल समस्त जीव जन्तुओं पर कृपा करता है वास्तव में वही समस्त चीज़ों का मालिक व प्रभु है।

यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या अल्लाह इस सम्पूर्ण सृष्टि का मालिक नही है, जो हम उसे क़यामत के दिन का मालिक कहते है?

इस प्रश्न के उत्तर में हम यह कह सकते हैं कि इसमें कोई संदेह नही है कि अल्लाह पूर्ण सृष्टि का मालिक है। लेकिन उसका मालिक होना पूर्ण रूप से उसी दिन स्पष्ट होगा। क्योँकि उस दिन सभी भौतिक पर्दे उठा दिये जायेंगे व सामयिक मालकियत व प्रभुत्व समाप्त कर दिया जायेगा। उस दिन किसी के पास कोई वस्तु नही होगी। यहाँ तक कि अगर किसी की शिफ़ाअत भी की जायेगी तो वह भी अल्लाह के आदेश से होगी

क़यामत का यक़ीन इंसान को नियन्त्रित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और इंसान को बहुत से अनैतिक व धर्म विरोधी कार्यों से रोकता है। नमाज़ द्वारा इंसान का बुराईयों से रुकने का एक कारण यह भी है कि नमाज़ इंसान को उसकी वास्तविक्ता व अन्य चीज़ों से अवगत कराती है। उसे अल्लाह के उस दरबार की याद दिलाती है जहाँ अदालत व इंसाफ़ का राज होगा और जहाँ हर चीज़ आईने की तरह साफ़ नज़र आयेंगी।

एक हदीस में हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के बारे में मिलता है कि जब आप सूरा-ए-हम्द पढ़ते हुए मालिकि यौमिद्दीन पर पहुँचते थे तो इस आयत को इतनी बार दोहराते थे कि ऐसा लगने लगता था कि आप की रूह बदन से निकल जायेगी।

क़ुरआन में यौमद्दीन जहाँ भी प्रयोग हुआ है सब जगह क़ियामत के अर्थ में है। अगर यह प्रश्न किया जाये कि क़ियामत को दीन का दिन क्योँ कहा जाता है, तो इसका जवाब यह दिया जा सकता है कि लुग़त (शब्द कोष) में दीन का अर्थ जज़ा व प्रतिफल है। चूँकि क़ियामत के दिन हर प्राणी को उसके कार्यों का प्रतिफल मिलेगा शायद इसी लिए क़ियामत को यौमिद्दीन अर्थात दीन का दिन कहा गया है।

 

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(1) सूर-ए-यूनुस आयत न.10

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